जादू - मुंशी प्रेमचंद | Jadu by Munshi Premchand
मानसरोवर भाग - 2
मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
जादू, मानसरोवर भाग - 2 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 2 की अन्य कहानियाँ
1
नीला- तुमने उसे क्यों लिखा?
मीना- किसको?
‘उसी को?’
‘मै नही समझती।’
‘खूब समझती हो! जिस आदमी ने मेरा अपमान किया, गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा, उसे तुम मुँह लगाती हो, क्या यह उचित हैं?’
‘तुम गलत कहती हो!’
‘तुम उसे खत, नहीं लिखा?’
‘कभी नहीं।’
‘तो मेरी गलती क्षमा करो। तुम मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती।’
‘मैने किसी को खत नही लिखा।’
‘मुझे यह सुनकर खुशी हुई।’
‘तुम मुसकाती क्यो हो?’
‘मैं!’
‘जी हाँ, आप!’
‘मैं तो जरा भी नही मुसकरायी।’
‘क्या मैं अन्धी हूँ?’
‘यह तो तुम अपने मुँह से ही कहती हो।’
‘तुम क्यों मुसकरायीं?’
‘मै सच कहती हूँ, जरा भी नहीं मुसकायी।’
‘मैने अपनी आँखों से देखा।’
‘अब मैं कैसे तुम्हे विश्वास दिलाऊँ?’
‘तुम आँखों मे धूल झोंकती हो।’
‘अच्छा मुसकरायी! बस, या जान लोगी?’
‘तुम्हें किसी के ऊपर मुसकराने का क्या अधिकार हैं?’
‘तेरे पैरों पड़ती हूँ, नीला, मेरा गला छोड़ दे। मैं बिलकुल नहीं मुसकरायी।’
‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूँ ।’
‘यह मैं जानती हूँ।’
‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा हैं।’
‘तू आज किसका मुँह देखकर उठी हैं?’
‘तुम्हारा।’
‘तू मुझे थोड़ा संखिया क्यों नहीं दे देती।’
‘हाँ, मैं तो हत्यारिन हूँ।’
‘मैं तो नहीं कहती।’
‘अब और कैसे कहोगी, क्या ढोल बजाकर? मैं हत्यारिन हूँ, मदमाती हूँ, दीदा-दिलेर हूँ ; तुम सर्वगुणागरी हो, सीता हो, सावित्री हो। अब खुश हुई?’
‘लो कहती हूँ, मैने उन्हें पत्र लिखा फिर तुमसे मतलब? तुम कौन होती हो, मुझसे जवाब-तलब करने वाली?’
‘अच्छा किया, लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफी थी कि मैने तुमसे पूछा।’
‘हमारी खुशी, हम जिसको चाहेंगे खत लिखेंगे। जिससे चाहेंगे बोलेंगे। तुम कौन होती हो रोकने वाली । तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती; हालाँकि रोज तुम्हें पुलिन्दों पत्र लिखते देखती हूँ।’
‘जब तुमने शर्म ही भून खायी, तो जो चाहो करो, अख्तियार हैं।’
‘और अब तुम कब से बड़ी लज्जावती बन गयीं? सोचती होगी, अम्माँ से कह दूँगी, यहाँ इसकी परवाह नहीं हैं। मैंने उन्हें पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी। बातचीत भी की, जाकर अम्माँ से, दादा से और सारे मुहल्ले से कह दो।’
‘जो जैसा करेगा, आप भोगेगा, मैं क्यों किसी से कहने जाऊँ?’
‘ओ हो, बड़ी धैर्यवाली, यह क्यों नही कहती, अंगूर खट्टे हैं?’
‘जो तुम कहो, वही ठीक हैं।’
‘दिल में जली जाती हो।’
‘मेरी बला जले!’
‘रो दो जरा।’
जादू - मुंशी प्रेमचंद | Jaadu by Munshi Premchand |
2
‘तुम खुद रोओ, मेरा अँगूठा रोये।’
‘मुझे उन्होंने एक रिस्टवाच भेट ही हैं, दिखाऊँ?’
‘मुबारक हो, मेरी आँखों का सनीचर दूर न होगा?’
‘मैं कहती हूँ, तुम इतनी जलती क्यो हो?’
‘अगर मैं तुमसे जलती हूँ, तो मेरी आँखे पट्टम हो जायँ।’
‘तुम जितना ही जलोगी, मैं उतना ही जलाऊँगी।’
‘मैं जलूँगी ही नहीं।’
‘जल रही हो साफ।’
‘कब सन्देशा आयेगा?’
‘जल मरो।’
‘पहले तेरी भाँवरे देख लूँ।’
‘भाँवरे का चाट तुम्हीं को रहती हैं।’
‘अच्छा! तो क्या बिना भाँवरो का ब्याह होगा?’
‘यह ढकोसले तुम्हें मुबारक रहें, मेरे लिए प्रेम काफी हैं।’
‘तो क्या तू सचमुच …!’
‘मैं किसी से नहीं डरती।’
‘यहाँ तक नौबत पहुँच गयी! और तू कह रही थी, मैंने उसे पत्र नही लिखा और कसमें खा रही थी?’
‘क्यों अपने दिल का हाल बतलाऊँ।’
‘मैं तो तुझसे पूछती न थी, मगर तू आप-ही-आप बक चली।’
‘तुम मुसकरायी क्यों?’
‘इसलिए कि वह शैतान तुम्हारे साथ भी वहीं दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसे ही बाते कहता फिरेगा। और फिर तुम मेरी तरह उसके नाम को रोओगी।’
‘तुमसे उन्हें प्रेम न था?’
‘मुझसे! मेरे पैरो पर सिर रखकर रोता था और कहता था कि मैं मर जाऊँगा और जहर खा लूँगा।’
‘सच कहती हो?’
‘बिलकुल सच।’
‘यह तो वह मुझसे भी कहते हैं।’
‘सच?’
‘तुम्हारे सिर की कसम।’
‘और मैं समझ रही थी, अभी वह दाने बिखेर रहा हैं।’
‘क्या वह सचमुच।’
‘पक्का शिकारी हैं।’
मीना सिर पर हाथ रखकर चिन्ता में डूब जाती हैं।