विद्रोही - मुंशी प्रेमचंद | Vidrohi by Munshi Premchand
मानसरोवर भाग - 2
मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
विद्रोही, मानसरोवर भाग - 2 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 2 की अन्य कहानियाँ
1
आज दस साल से जब्त कर रहा हूँ । अपने इस नन्हें-से हृदय में अग्नि का दहकता हुआ कुंड छिपाये बैठा हूँ । संसार में कहीं शान्ति होगी, कहीं सैर-तमाशे होगें, कहीं मनोरंजन की वस्तुएँ होगी; मेरे लिए तो अब यहीं अग्निराशि हैं और कुछ नहीं। जीवन की सारी अभिलाषाएँ इसी में जलकर राख हो गयीं। किससे अपनी मनोव्यथा कहूँ ? फायदा ही क्या? जिसके भाग्य में रुदन, अनंत रुदन हो, उसका मर जाना ही अच्छा।
मैने पहली बार तारा को उस वक़्त देखा, जब मेरी उम्र दस साल की थी। मेरे पिता आगरे के एक अच्छे डॉक्टर थे। लखनऊ में मेरे एक चचा रहते थे। उन्होंने वकालत में काफी धन कमाया था। मैं उन दिनों चचा ही के साथ रहता था। चचा के कोई सन्तान न थी, इसलिए मैं ही उनका वारिस था। चचा और चची दोनों मुझे अपना पुत्र मानते थे। मेरी माता बचपन में ही सिधार चुकी थी। मातृ- स्नेह का जो कुछ प्रसाद मुझे मिला, वह चची जी ही की भिक्षा थी। यही भिक्षा मेरे उस मातृ- प्रेम से वंचित बालपन की सारी विभूति थी।
चचा साहब के पड़ोस में हमारी बिदादरी के एक बाबू साहब और रहते थे। वह रेलवे-विभाग में किसी अच्छे ओहदे पर थे। दो-ढाई सौ रुपये पाते थे। नाम था विमलचन्द्र। तारा उन्हीं की पुत्री थी। उस वक़्त उसकी उम्र पाँच साल की होगी। बचपन का वह दिन आज भी आँखों के सामने हैं, जब तारा एक फ्राक पहने, बालों में एक गुलाब का फूल गूँथे हुए मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। कह नही सकता, क्यों में उसे देखकर झेंप-सा गया। मुझे वह देव-कन्या सी मालूम हुई, जो उषा-काल के सौरभ और प्रकाश से रंजित आकाश से उतर आयी हो।
उस दिन से तारा अक्सर मेरे घर आती। उसके घर में खेलने की जगह न थी। चचा साहब के घर के सामने लम्बा-चौड़ा मैदान था। वहीं वह खेला करती। धीरे- धीरे में भी उससे मानूस हो गया। मैं जब स्कूल से लौटता तो तारा दौड़कर मेरे हाथों से किताबों का बस्ता ले लेती। जब मैं स्कूल जाने के लिए गाड़ी पर बैठता, तो वह भी आकर मेरे साथ बैठ जाती। एक दिन उसके सामने चची ने चाचा से कहा- तारा को मैं अपनी बहू बनाऊँगी। क्यों कृष्णा, तू तारा से ब्याह करेगा? मैं मारे शर्म से बाहर भागा; लेकिन तारा वही खड़ी रही, मानो चची ने उसे मिठाई देने को बुलाया हो। उस दिन से चचा और चची में अक्सर यही चर्चा होती- कभी सलाह के ढंग से, कभी मजाक के ढंग से। उस अवसर पर मैं तो शर्मा कर बाहर भाग जाता था; पर तारा खुश होती थी। दोनों परिवारों में इतना घराव था कि इस सम्बन्ध का हो जाना कोई असाधारण बात न थी। तारा के माता-पिता को तो इसका पूरा विश्वास था कि तारा से मेरा विवाह होगा। मैं जब उनके घर जाता, तो मेरी बड़ी आवभगत होती। तारा की माँ उसे मेरे साथ छोड़कर किसी बहाने से टल जाती थी। किसी को अब इसमें शक न था कि तारा ही मेरी हदयेश्वरी होगी।
एक दिन इस सरला ने मिट्टी का एक घरौंदा बनाया। मेरे मकान के सामने नीम का पेड़ था। उसी की छाँह में वह घरौदा तैयार हुआ। उसमें कई जरा-जरा से कमरे थे, कई मिट्टी के बरतन, एक नन्हीं-सी चारपाई थी। मैंने जाकर देखा, तो तारा घरौंदा बनाने में तन्मय हो रही थी। मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पास आयी और बोली- कृष्णा, चलो हमारा घर देखो, मैंने अभी बनाया हैं। घरौंदा देखा, तो हँसकर बोला- इसमें कौन रहेगा, तारा?
तारा ने ऐसा मुँह बनाया, मानो वह व्यर्थ का प्रश्न था। बोली- क्यों, हम और तुम रहेंगें ? जब हमारा-तुम्हारा विवाह हो जाएगा, तो हम लोग इसी घर में आकर रहेंगे। वह देखो, तुम्हारी बैठक हैं, तुम यहीं बैठकर पढोगे। दूसरा कमरा मेरा हैं, इसमें बैठकर मैं गुड़िया खेलूँगी।
2
मैंने हँसी करके कहा- क्यों, क्या मैं सारी उम्र पढ़ता ही रहूँगा और तुम हमेशा गुड़िया ही खेलती रहोगी?
तारा ने मेरी तरफ इस ढंग से देखा, जैसे मेरी बात नहीं समझी। पगली जानती थी कि जिन्दगी खेलने और हँसने ही के लिए हैं। यह न जानती थी कि एक दिन हवा का एक झोंका आयेगा और इस घरौंदे को उड़ा ले जायेगा और इसी के साथ हम दोनों भी कही-से-कहीं जा उड़ेगे।
इसके बाद मैं पिताजी के पास चला आया और कई साल पढ़ता रहा। लखनऊ की जलवायु मेरे अनुकूल न थी, या पिताजी ने मुझे अपने पास रखने के लिए यह बहाना किया था, मैं निश्चित नहीं कह सकता। इंटरमीडिएट तक मैंने आगरे ही में पढ़ा; लेकिन चचा साहब के दर्शनों के लिए बराबर जाता रहता था। हर एक तातील में लखनऊ अवश्य जाता और गर्मियों की छुट्टी तो पूरी लखनऊ ही में कटती थी। एक छुट्टी गुजरते ही दूसरी छुट्टी आने के दिन गिने जाते लगते थे। अगर मुझे एक दिन की भी देर हो जाती, तो तारा का पत्र आ पहुँचता। बचपन के उस सरल प्रेम में अब जवानी का उत्साह और उन्माद था। वे प्यारे दिन क्या भूल सकते हैं। वहीं मधुर स्मृतियाँ अब इस जीवन का सर्वस्व हैं। हम दोनों रात को सब की नजरें बचाकर मिलते और हवाई किले बनाते। इससे कोई यह न समझे कि हमारे मन में पाप था, कदापि नहीं। हमारे बीच में एक भी ऐसा शब्द, एक भी ऐसा संकेत न आने पाता, जो हम दूसरों के सामने न कर सकते, जो उचित सीमा के बाहर होते। यह केवल वह संकोच था, जो इस अवस्था में हुआ करता हैं। शादी हो जाने बाद भी तो कुछ दिनों तक स्त्री औऱ पुरुष बड़ो के सामने बातें करते लजाते हैं। हाँ, जो अंग्रेजी सभ्यता के उपासक हैं, उनकी बात मैं नहीं चलता। वे तो बड़ो के सामने आलिंगन और चुम्बन तक करते हैं। हमारी मुलाकतें दोस्तों की मुलाकतें होती थी- कभी ताश की बाजी होती, कभी साहित्य की चर्चा, कभी स्वदेश सेवा के मनसूबे बँधते, कभी संसार यात्रा के। क्या कहूँ, तारा का हृदय कितना पवित्र था। अब मुझे ज्ञात हुआ कि स्त्री कैसे पुरुष पर नियन्त्रण कर सकती हैं, कुत्सित को कैसे पवित्र बना सकती हैं। एक दूसरे से बातें करने में, एक दूसरे के सामने बैठे रहने में हमें असीम आनन्द होता था। फिर, प्रेम की बातों की जरूरत वहाँ होती है, जहाँ अपने अखंड अनुराग, अपनी अतुल निष्ठा, अपने पूर्ण-आत्म-समर्पण का विश्वास दिलाना होता हैं। हमारा सम्बन्ध तो स्थिर हो चुका था। केवल रस्में बाकी थी। वह मुझे अपनी पति समझती थी, मैं उसे अपनी पत्नी समझता था। ठाकुरजी को भोग लगाने के पहले थाल के पदार्थो को कौन हाथ लगा सकता हैं? हम दोनों में कभी-कभी लड़ाई भी होती थी और कई-कई दिनों तक बातचीत की नौबत न आती; लेकिन ज्यादती कोई करें, मनाना उसी को पड़ता था। मैं जरा-सी बात पर तिनक जाता था। वह हँसमुख थी, बहुत ही सहनशील, लेकिन उसके साथ ही मानिनी भी परले सिरे की। मुझे खिलाकर भी खुद न खाती, मुझे हँसाकर भी खुद न हँसती।
इंटरमिडिएट पास होते ही मुझे फौज में एक जगह मिल गयी। उस विभाग के अफसरों में पिताजी का बड़ा मान था। मैं सार्जन्ट हो गया और सौभाग्य से लखनऊ में ही मेरी नियुक्ति हुई। मुँहमाँगी मुराद पूरी हुई।
मगर विधि-वाम कुछ और ही षड्यन्त्र रच रहा था। मैं तो इस ख्याल में मग्न था कि कुछ दिनों में तारा मेरी होगी। उधर एख दूसरा ही गुल खिल गया। शहर के एक नामी रईस ने चचा जी से मेरे विवाह की बात छेड़ दी और आठ हजार रुपये दहेज का वचन दिया । चचाजी के मुँह से लार टपक पड़ी। सोचा, यह आशातीत रकम मिलती हैं, इसे क्यों छोड़ूँ । विमल बाबू की कन्या का विवाह कहीं- न-कहीं हो ही जाएगा। उन्हें सोचकर जवाब देने का वादा करके विदा किया और विमल बाबू को बुलाकर कहा- आज चौधरी साहब कृष्णा की शादी की बातचीत करने आये थे। आप तो उन्हें जानते होंगे? अच्छे रईस हैं। आठ हजार दे रहे हैं। मैंने कह दिया, सोच कर जवाब दुँगा। आपकी क्या राय हैं? यह शादी मंजूर कर लूँ?
विद्रोही - मुंशी प्रेमचंद | Vidrohi by Munshi Premchand |
3
विमल बाबू ने चकित होकर कहा- यह आप क्या फरमाते हैं? कृष्णा की शादी तो तारा से ठीक हो चुकी हैं न?
चचा साहब ने अनजान बनकर कहा- यह तो मुझे आज मालूम हो रहा हैं। किसने ठीक की हैं यह शादी? आपसे तो मुझसें इस विषय में कोई भी बातचीत नहीं हुई।
विमल बाबू जरा गर्म होकर बोले- जो बात आज दस-बारह साल से सुनता हूँ, क्या उसकी तसदीक भी करनी चाहिए थी? मैं तो इसे तय समझे बैठा हूँ ; मैं ही क्या, सारा मुहल्ला तय समझ रहा हैं।
चचा साहब में बदनामी के भय से जरा दबकर कहा- भाई साहब, हक तो यह हैं कि जब कभी इस सम्बन्ध की चर्चा करता था, दिल्लगी के तौर पर लेकिन खैर, मैं तो आपको निराश नही करना चाहता। आप मेरे पुराने मित्र हैं। मैं आपके साथ सब तरह की रिआयत करने को तैयार हूँ । मुझे आठ हजार मिल रहे हैं। आप मुझे सात ही हजार दीजिये- छः हजार ही दीजिए।
विमल बाबू ने उदासीन भाव से कहा- आप मुझसे मजाक कर रहे हैं या सचमुच दहेज माँग रहे हैं, मुझे यकीन नहीं आता।
चचा साहब ने माथा सिकोड़कर कहा- इसमें मजाक की तो कोई बात नहीं। मैं आपके सामने चौधरी से बात कर सकता हूँ ।
विमल- बाबूजी, आपने तो यह नया प्रश्न छेड़ दिया। मुझे तो स्वप्न में भी गुमान न था कि हमारे और आपके बीच में यह प्रश्न खड़ा होगा। ईश्वर ने आपको बहुत कुछ दिया। दस-पाँच हजार में आपका कुछ न बनेगा। हाँ, यह रकम मेरी सामर्थ्य से बाहर हैं। मैं तो आपसे दया ही की भिक्षा माँग सकता हूँ । आज दस-बारह साल से हम कृष्णा को अपना दामाद समझते आ रहे हैं। आपकी बातो से भी कई बार इसकी तसदीक हो चुकी हैं। कृष्णा और तारा में जो प्रेम हैं, वह आपसे छिपा नहीं हैं। ईश्वर के लिए थोड़े-से रुपयों के वास्ते कई जनों का खून न कीजिए।
चचा साहब ने धृष्टता से कहा- विमल बाबू, मुझे खेद हैं कि मैं इस विषय में और नहीं दब सकता।
विमल बाबू जरा तेज होकर बोले- आप मेरा गला घोंट रहे हैं।
चचा- आपको मेरा एहसान मानना चाहिए कि कितनी रिआयत कर रहा हूँ ।
विमल- क्यों न हो, आप मेरा गला घोंटें और मैं आपका एहसान मानूँ ? मैं इतना उदार नहीं हूँ । अगर मुझे मालूम होता कि आप इतने लोभी हैं, तो आपसे दूर ही रहता। मैं आपको सज्जन समझता था। अब मालूम हुआ कि आप भी कौड़ियों को गुलाम हैं। जिसकी निगाह में मुरौवत नहीं, जिसकी बातों का विश्वास नहीं, उसे मैं शरीफ नहीं कह सकता। आपको अख्तियार हैं, कृष्णा बाबू की शादी जहाँ चाहें करें; लेकिन आपको हाथ न मलना पड़े, तो कहिएगा। तारा का विवाह तो कहीं-न- कहीं हो ही जायगा और ईश्वर ने चाहा तो किसी अच्छे ही घर में होगा। संसार में सज्जनों का अभाव नहीं हैं, मगर आपके हाथ अपयश के सिवा और कुछ न लगेगा।
चचा साहब ने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा- अगर आप मेरे घर में न होते, तो इस अपमान का कुछ जवाब देता!
विमल बाबू ने छड़ी उठा ली और कमरे बाहर जाते हुए कहा- आप मुझे क्या जवाब देंगे? आप जवाब देने के योग्य ही नहीं हैं।
उसी दिन शाम को जब मैं बैरक से आया और जलपान करके विमल बाबू के घर जाने लगा, तो चची ने कहा- कहाँ जाते हो? विमल बाबू से और तुम्हारे चचाजी से आज एक झड़प हो गयी।
मैने ठिठक कर ताज्जूब के साथ कहा- झड़प हो गयी! किस बात पर?
4
चची ने सारा-का-सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विमल को जितने काले रंगों में रंग सकी, रंग – तुमसे क्या कहूँ बेटा, ऐसा मुँहफट तो आदमी ही नही देखा। हजारों ही गालियों दीं, लड़ने पर आमादा हो गया।
मैंने एक मिनट कर सन्नाटे में खड़े रहकर कहा- अच्छी बात हैं, वहाँ न जाऊँगा। बैरक जा रहा हूँ । चची बहुत रोयीं-चिल्लायी; पर मैं एक क्षण-भर भी न ठहरा। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई मेरे हृदय मं भाले भोंक रहा हैं। घर से बैरक तक पैदल जाने में शायद मुझे दस मिनट से ज्यादा न लगे। बार-बार जी झुँझलता था; चचा साहब पर नहीं, विमल बाबू पर भी नही, केवल अपने ऊपर। क्यों मुझमें इतनी हिम्मत नहीं हैं कि जाकर चचा साहब से कह दूँ- कोई लाख रुपये भी दे, तो शादी न करूँगा। मैं क्यों इतना डरपोक, इतना तेजहीन, इतना दब्बू हो गया?
इसी क्रोध में मैने पिताजी को एक पत्र लिखा और वह सारा वृत्तांत सुनाने के बाद अन्त में लिखा- मैंने निश्चय कर लिया हैं कि और कहीं शादी न करूँगा, चाहे मुझे आपकी अवज्ञा ही क्यों न करनी पडे। उस आवेश में न जाने क्या-क्या लिख गया, अब याद भी नहीं। इतना याद हैं कि दस-बारह पन्ने दस मिनट में लिख डाले थे। सम्भव होता तो मैं यहीं सारी बाते तार से भेजता।
तीन दिन मैं बड़ी व्यग्रता के साथ काटे। उसका केवल अनुमान किया जा सकता हैं। सोचता, तारा हमें अपने मन में कितना नीच समझ रही होगी। कई बार जी में आया कि चलकर उसके पैरों पर गिर पड़ूँ औऱ कहूँ – देवी, मेरा अपराध क्षमा करो- चचा साहब के कठोर व्यवहार की परवा न करो। मैं तुम्हारा था और तुम्हारा हूँ । चचा साहब मुझसे बिगड़ जायँ, पिताजी घर से निकाल दें, मुझे किसी की परवा नहीं हैं; लेकिन तुम्हें खोकर मेरा जीवन ही खो जायेगा।
तीसरे दिन पत्र का जवाब आया। रही-सही आशा भी टूट गयी। वही जवाब था जिसका मुझे शंका थी। लिखा था- भाई साहब मेरे पूज्य हैं। उन्होंने जो निश्चय किया हैं, उसके विरुद्ध मैं एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाल सकता और तुम्हारे लिए भी यही उचित हैं कि उन्हें नाराज न करो।
मैने उस पत्र को फाड़कर पैरों से कुचल दिया और उसी वक़्त विमल बाबू के घर की तरफ चला। आह! उस वक़्त अगर कोई मेरा रास्ता रोक लेता, मुझे धमकता कि उधर मत जाओ, तो मै विमल बाबू के पास जाकर ही दम लेता और आज मेरा जीवन कुछ और ही होता; पर वहाँ मना करने वाला कौन बैठा था। कुछ दूर चल कर हिम्मत हार बैठा। लौट पड़ा। कह नहीं सकता, क्या सोचकर लौटा। चचा साहब की अप्रसन्नता का मुझे रत्ती-भर भी भय न था। उनकी अब मेरे दिल में कोई इज्जत न थी। मैं उनकी सारी सम्पत्ति को ठुकरा देने को तैयार था। पिताजी के नाराज हो जाने का भी डर न था। संकोच केवल यह था- कौन मुँह लेकर जाऊँ; आखिर मैं उन्हीं चचा का भतीजा हूँ । विमल बाबू मुझसे मुखातिब न हुए या जाते-ही-जाते दुत्कार दिया, तो मेरे लिए डूब मेरे लिए डूब मरने के सिवा और क्या रह जायगा? सबसे बड़ी शंका यह थी कि कहीं तारा ही मेरा तिरस्कार कर बैठे तो मेरी क्या गति होगी। हाय! अहृदय तारा! निष्ठुर तारा! अबोध तारा! अगर तूने उस वक़्त दो शब्द लिख कर मुझे तसल्ली दे दी होती, तो आज मेरा जीवन कितना सुखमय होता। तेरे मौन के मुझे मटियामेट कर दिया- सदा के लिए! आह, सदा के लिए।
तीन दिन बाद फिर मैंने अंगारों पर लोट-लोट कर काटे। ठान लिया था कि अब किसी से न मिलूँगा। सारा संसार मुझे अपना शत्रु -सा दिखता था। तारा पर भी क्रोध आता था। चचा साहब की तो सूरत से मझु घृणा हो गयी थी; मगर तीसरे दिन शाम को चचाजी का रुक्का पहुँचा, मुझसे आकर मिल जाओ। जी में तो आया, लिख दूँ, मेरा लिख दूँ, मेरा आपसे कोई सम्बन्ध नही, आप समझ लीजिए, मैं मर गया। मगर फिर उनके स्नेह और उपकारों की याद आ गयी। खरी-खरी सुनाने का भी अच्छा अवसर मिल रहा था। हृदय में युद्ध का नशा और जोश भरे हुए मैं चचाजी की सेवा में गया।
चचाजी नें मुझे सिर से पैर तक देख कर कहा- क्या आजकल तुम्हारी तबियत अच्छी नहीं हैं? रायसाहब सीताराम तशरीफ लाये थे। तुमसे कुछ बातें करना चाहते थे। कल सबेरे मौका मिले, तो चले आना या तुम्हें लौटने की जल्दी न हो, तो मैं इसी वक़्त बुला भेजूँ।
5
मैं समझ गया कि यह रायसाहब कौन हैं; लेकिन अनजान बनकर बोला-यह रायसाहब कौन हैं? मेरा तो उनसे परिचय नहीं हैं।
चचाजी ने लापरवाही से कहा- अजी, यह वही महाशय हैं, जो तुम्हारे ब्याह के लिए घेरे हुए हैं। शहर के रईस और कुलीन आदमी हैं। लड़की भी बहुत अच्छी हैं। कम-से-कम तारा से कई गुनी अच्छी। मैने हाँ कर लिया हैं। तम्हें भी जो बाते पूछनी होस उनसे पूछ लो।
मैने आवेश के उमड़ते हुए तूफान को रोककर कहा- आपने नाहक हाँ की। मैं अपना विवाह नहीं करना चाहता।
चचाजी ने मेरी तरफ आँखें फाड़कर कहा- क्यों?
मैने उसी निर्भीकता से जवाब दिया- इसीलिए कि मैं इस विषय में स्वाधीन रहना चाहता हूँ ।
चचाजी ने जरा नर्म होकर कहा- मैं अपनी बात दे चुका हूँ, क्या तुम्हें इसका कुछ ख्याल नहीं हैं?
मैने उद्दंडता से जवाब दिया- जो बात पैसों पर बिकती हैं, उसके लिए मैं अपनी जिन्दगी नहीं खराब कर सकता।
चचा साहब ने गम्भीर भाव से कहा- यह तुम्हारा आखिरी फैसला हैं?
‘जी हाँ, आखिरी।’
‘पछताना पड़ेगा।’
‘आप इसकी चिन्ता न करें। आपको कष्ट देने न आऊँगा।’
‘अच्छी बात हैं।’
यह कहकर वह उठे और अन्दर चले गये। मैं कमरे से निकला और बैरक की तरफ चला। सारी पृथ्वी चक्कर खा रहीं थी, आसमान नाच रहा था और मेरी देह हवा में उड़ी जाती थी। मालूम होता था, पैरौं के नीचे जमीन हैं ही नहीं।
बैरक में पहुँचकर मैं पलंग पर लेट गया और फूट-फूटकर रोने लगा। माँ-बाप, चाचा-चाची, धन-दौलत, सब कुछ होते होते हुए भी मैं अनाथ था। उफ! कितना निर्दय आघात था!
सबेरे हमारे रेजिमेंट को देहरादून जाने का हुक्म हुआ। मुझे आँखे-सी मिल गयी। अब लखनऊ काटे खाता था। उसके गली-कूचों तक से घृणा हो गयी थी। एक बार जी में आया, चलकर तारा से मिल लूँ ; मगर फिर वही शंका हुई- कहीं वह मुखातिब न हुई तो? विमल बाबू इस दशा में भी मुझसे उतना ही स्नेह दिखायेंगे, जितना अब तक दिखाते आये हैं, इसका मैं निश्चय न कर सका। पहले मैं धनी परिवार का दीपक था, अब एक अनाथ युवक, जिसे मजूरी के सिवा और कोई अवलम्ब नहीं था।
देहरादून में अगर कुछ दिन मैं शान्ति से रहता, तो सम्भव था, मेरा आहत हृदय सँभल जाता और मैं विमल बाबू को मना लेता; लेकिन वहाँ पहुँचे एक सप्ताह भी न हुआ था कि मुझे तारा का पत्र मिल गया। पते को देखकर मेरे हाथ काँपने लगे। समस्त देह में कंपन-सा होने लगा। शायद शेर को देखकर भी मैं इतना भयभीत न होता। हिम्मत ही न पड़ती थी कि उसे खोलूँ । वही लिखावट थी, वही मोतियों की लड़ी, जिसे देखकर मेरे लोचन तृप्त हो जाते थे, जिसे चूमता था और हृदय से लगाता था, वही काले अक्षर आज नागिनों से भी ज्यादा डरावने मालूम होते थे। अनुमान कर रहा था कि उसने क्या लिखा होगा; पर अनुमान की दूर तक दौड़ भी पत्र के विषय तक न पहुँच सकी। आखिर, एक बार कलेजा मजबूत करके मैने पत्र खोल डाला। देखते ही आँखों में अँधेरा छा गया। मालूम हुआ, किसी ने शीशा पिघला कर पिला दिया। तारा का विवाह तय हो गया था। शादी होने में कुल चौबीस घंटे बाकी थे। उसनें मुझसे अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगी और विनती की थी कि मुझे भूला देना। पत्र का अन्तिम वाक्य पढ़कर मेरा आँखों से आँसूओं की झड़ी लग गयी। लिखा था- यह अन्तिम प्यार लो। अब आज से मेरे और तुम्हारे बीच में केवल मैत्री का नाता हैं। मगर कुछ और समझूँ तो वह अपने पति के साथ अन्याय होगा, जिसे शायद तुम सबसे ज्यादा नापसंद करोगे। बस इससे अधिक और न लिखूँगी। बहुत अच्छा हुआ कि तुम यहाँ से चले गये। तुम यहाँ रहते, तो तुम्हें भी दु:ख होता औऱ मुझे भी। मगर प्यारे! अपनी इस अभागिनी तारा को भूल न जाना। तुमसे यही अन्तिम निवेदन हैं।
मैं पत्र को हाथ में लिये-लिये लेट गया। मालूम होता था, छाती फट जाएगी! भगवान, अब क्या करूँ? जब तक मैं लखनऊ पहुँचूँगा, बारात द्वार पर आ चुकी होगी, यह निश्चय था। लेकिन तारा के अन्तिम दर्शन करने की प्रबल इच्छा को मैं किसी तरह न रोक सकता था। वही अब जीवन की अंतिम लालसा थी।
मैंने जाकर कंमाडिग आफिसर से कहा- मुझे एक बड़े जरूरी काम से लखनऊ जाना हैं। तीन दिन की छुट्टी चाहता हूँ।
साहब ने कहा- अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।
‘मेरा जाना जरूरी हैं।’
‘तुम नहीं जा सकते।’
‘मैं किसी तरह नहीं रूक सकता।’
6
‘तुम किसी तरह नहीं जा सकते।’
मैने और अधिक आग्रह न किया। वहाँ से चला आया। रात की गाड़ी से लखनऊ जाने का निश्चय कर लिया। कोर्ट-मार्शल का अब मुझे जरा भी डर न था।
जब मैं लखनऊ पहुँचा, तो शाम हो गयी थी। कुछ देर तक मैं प्लेटफार्म से दूर खड़ा अँधेरा हो जाने का इन्तजार करना रहा। तब अपनी किस्मत के नाटक का सबसे भीषण कांड देखने चला। बारात द्वार पर आ गयी थी। गैस की रोशनी हो रही थी। बाराती लोग जमा थे। हमारे मकान की छत तारा की छत से मिली हुई थी। रास्ता मरदाने कमरे की बगल से था। चचा साहब शायद कहीं सैर करने गये हुए थे। नौकर-चाकर सब बारात की बहार देख रहे थे। मैं चुपके से जीने पर चढ़ा और छत पर जा पहूँचा। वहाँ इस वक़्त बिल्कुल सन्नाटा था। उसे देखकर मेरा दिल भर आया। हाय! यहीं वह स्थान हैं, जहाँ हमने प्रेम के आनन्द उठाये थे यहीं मैं तारा के साथ बैठकर जिन्दगी के मनसूबे बाँधता था! यही स्थान मेरी आशाओं का स्वर्ग और मेरे जीवन का तीर्थ था। इस जमीन का एक-एक अणु मेरे लिए मधुर-स्मृतियों से पवित्र था। पर हाय! मेरे हृदय की भाँति आज वह भी ऊजड़, सुनसान, अंधेरा था। मैं उसी जमीन से लिपटकर खूब रोया, यहाँ तक की हिचकियाँ बँध गयी। काश! इस वक़्त तारा वहाँ आ जाती, तो मैं उसके चरणों पर सिर रखकर हमेशा के लिए सो जाता। मुझे ऐसा भासित होता था कि तारा की पवित्र आत्मा मेरी दशा पर रो रही हैं। आज भी तारा यहाँ जरुर आयी होगी। शायद इसी जमीन पर लिपटकर वह भी रोयी होगी। उस भूमि से उसके सुगन्धित केशो की महक आ रही थी। मैने जेब से रूमाल निकाला और वहाँ की धूल जमा करने लगा। एक क्षण में मैने सारी छत साफ कर डाली और अपनी अभिलाषाओं की इस राख को हाथ में लिये घंटो रोया। यही मेरे प्रेम का पुरस्कार हैं, यही मेरी उपासना का वरदान हैं, यहीं मेरे जीवन की विभूति हैं! हाय री दुर्दशा!
नीचे विवाह के संस्कार हो रहे थे। ठीक आधी रात के समय वधू मंडल के नीचे आयी, अब भाँवरे होगी। मैं छत के किनारे चला आया और यह मर्मान्तक दृश्य देखने लगा। बस, यही मालूम हो रहा था कि कोई हृदय के टुकड़े किये डालता हैं। आश्चर्य हैं, मेरी छाती क्यों न फट गयी, मेरी आँखें न निकल पड़ी। वह मंडप मेरे लिए एक चिता थी, जिसमें वह सब कुछ, जिस पर मेरे जीवन का आधार था; जला जा रहा था।
भाँवरें समाप्त हो गयीं तो मैं कोठे से उतरा। अब क्या बाकी था ? चिता की राख भी जलमग्न हो चुकी थी। दिल को थामे, वेदना से तपड़ता हुआ, जीने के द्वार पर आया; मगर द्वार बाहर से बन्द था। अब क्या हो? उल्टे पाँव लौटा। अब तारा के आँगन से होकर जाने के सिवा दूसरा रास्ता न था। मैने सोचा, इस जमघट में मुझे कौन पहचानता हैं, निकल जाऊँगा। लेकिन ज्यों ही आँगन में पहुँचा, तारा की माताजी की निगाह पड़ गयी। चौककर बोली- कौन, कृष्णा बाबू? तुम कब आये? आओ, मेरे कमरे में आओ। तुम्हारे चचा साहब के भय से हमने तुम्हें न्यौता नहीं भेजा। तारा प्रातःकाल विदा हो जायगी। आओ, उससे मिल लो। दिन- भर से तुम्हारी रट लगा रही हैं।
यह कहते हए उन्होंने मेरा बाजू पकड़ लिया और मुझे खीचते हूए अपने कमरे में ले गयी। फिर पूछा- अपने घर से होते हुए आये हो न?
मैने कहा- मेरा घर यहाँ कहाँ हैं?
‘क्यों, तुम्हारे चचा साहब नहीं हैं?’
‘हाँ, चचा साहब का घर हैं, मेरा घर अब कहीं नहीं हैं। बनने की कभी आशा थी, पर आप लोगों ने वह भी तोड़ दी।’
‘हमारा इसमे क्या दोष था भैया? लड़की का ब्याह तो कहीं-न-कहीं करना था। तुम्हारे चचाजी ने तो हमें मँझधार में छोड़ दिया था। भगवान ही ने उबारा। क्या अभी स्टेशन से चले आ रहे हो? तब तो अभी कुछ खाया भी न होगा।’
‘हाँ, थोड़ा-सा जहर लाकर दीजिए, यही मेरे लिए सबसे अच्छी दवा हैं।’
7
वृद्धा विस्मित होकर मुँह ताकने लगी। मुझे तारा से कितना प्रेम था, वह बेचारी क्या जानती थी?
मैंने उसी विरक्ति के साथ फिर कहा- जब आप लोगों ने मुझे मार डालने ही का निश्चय कर लिया, तो अब देर क्यों करती हैं? आप मेरे साथ यह दगा करेंगी यह मैं न समझता था। खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। चचा और बाप की आँखों से गिरकर में शायद आपकी आँखों में भी न जँचता।
बुढ़िया ने मेरी तरफ शिकायत की नजरों से देखकर कहा- तुम हमको इतना स्वार्थी समझते हो, बेटा।
मैने जले हुए हृदय से कहा- अब तक तो न समझता था लेकिन परिस्थित ने ऐसा समझने को मजबूर किया। मेरे खून का प्यासा दुश्मन भी मेरे ऊपर इससे घातक वार न कर सकता । मेरा खून आप ही की गरदन पर होगा।
‘तुम्हारे चचाजी ने ही तो इन्कार कर दिया?’
‘आप लोगों ने मुझसे भी कुछ पूछा, मुझसे भी कुछ कहा, मुझे भी कुछ कहने का अवसर दिया? आपने तो ऐसी निगाहें फेरी जैसे आप दिल से यही चाहती थी। मगर अब आपसे शिकायत क्यों करूँ? तारा खुश रहे, मेरे लिए यही बहुत हैं।’
‘तो बेटा, तुमने भी तो कुछ नहीं लिखा; अगर तुम एक पुरजा लिख देते तो हमें तस्कीन हो जाती। हमें क्या मालूम था कि तुम तारा को इतना प्यार करते हो। हमसे जरूर भूल हुई; मगर उससे बड़ी भूल तुमसे हुई। अब मुझे मालूम हुआ कि तारा क्यो बराबर डाकिये को पूछती रहती थी। अभी कल वह दिन-भर डाकिये का राह देखती रही। जब तुम्हारा कोई खत नहीं आया, तब वह निराश हो गयी। बुला लूँ उसे? मिलना चाहते हो?’
मैने चारपाई से उठकर कहा- नहीं-नहीं, उसे मत बुलाइए। मैं अब उसे नहीं देख सकता। उसे देख कर मैं न जाने क्या कर बैठूँ ।
यह कहता हुआ मैं चल पड़ा। तारा की माँ ने कई बार पुकारा पर मैने पीछे फिर कर भी न देखा।
यह हैं मुझ निराश की कहानी। इसे आज दस साल गुजर गये। इन दस सालों में मेरे ऊपर जो कुछ बीती, उसे मैं ही जानता हूँ । कई-कई दिन मुझे निराहार रहना पड़ा हैं। फौज से तो उसके तीसरे ही दिन निकाल दिया गया था। अब मारे-मारे फिरने के सिवा मुझे कोई काम नहीं। पहले तो काम मिलता ही नहीं और अगर मिल भी गया, तो मैं टिकता नहीं। जिन्दगी पहाड़ हो गयी हैं। किसी बात की रुचि नही रही। आदमी की सूरत से दूर भागता हूँ ।
तारा प्रसन्न हैं। तीन-चार साल हुए, एक बार मैं उसके घर गया था। उसके स्वामी ने बहुत आग्रह करके बुलाया था। बहुत कसमें दिलायीं। मजबूर होकर गया। यह कली अब खिलकर फूल हो गयी हैं। तारा मेरे सामने आयी। उसका पति भी बैठा हुआ था। मैं उसकी तरफ ताक न सका। उसने मेरे पैर खींच लिये। मेरे मुँह से एक शब्द भी न निकला। अगर तारा दुखी होती, कष्ट में होती, फटेहालों मे होती तो मैं उस पर बलि हो जाता; पर सम्पन्न, सरस, विकसित तारा मेरी संवेदना के योग्य न थी। मैं इस कुटिल विचार को न रोक सका- कितनी निष्ठुरता! कितनी बेवफाई!
शाम को मैं उदास बैठा वहाँ जाने पछता रहा था कि तारा का पति आकर मेरे पास बैठ गया और मुस्कराकर बोला- बाबूजी, मुझे यह सुनकर खेद हुआ कि तारा से मेरे विवाह हो जाने का आपको बड़ा सदमा हुआ तारा जैसी रमणी शायद देवताओं को भी स्वार्थी बना देती; लेकिन मैं आपसे सच कहता हूँ, अगर मैं जानता कि आपको उससे इतना प्रेम हैं, तो मैं हरगिज आपकी राह का काँटा न बनता। शोक यही हैं कि मुझे बहुत पीछे मालूम हुआ। तारा मुझसे आपकी प्रेम- कथा कह चुकी हैं।
मैने मुस्कराकर कहा- तब तो आपको मेरी सूरत से घृणा होगी।
उसने जोश से कहा- इसके प्रतिकूल मैं आपका आभारी हूँ । प्रेम का ऐसा पवित्र, ऐसा उज्जवल आदर्श आपने उसके सामने रखा। वह आपको अब भी उसी मुहब्बत से याद करती हैं। शायद कोई दिन ऐसा नहीं जाता कि आपका जिक्र न करती हो। आपके प्रेम को वह अपनी जिन्दगी की सबसे प्यारी चीज समझती हैं। आप शायद समझते हों कि उन दिनों की याद करके उसे दु:ख होता होगा। बिल्कुल नहीं, वही उसके जीवन की सबसे मधुर स्मृतियाँ हैं। वह कहती हैं, मैने अपने कृष्णा को तुममें पाया हैं। मेरे लिए इतनी ही काफी हैं।