उन्माद - मुंशी प्रेमचंद | Unmad by Munshi Premchand
मानसरोवर भाग - 2
मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
उन्माद, मानसरोवर भाग - 2 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 2 की अन्य कहानियाँ
1
मनहर ने अनुरक्त होकर कहा- वह सब तुम्हारी कुर्बानियों का फल हैं वागी। नहीं तो आज मैं किसी अँधेरी गली में, किसी अँधरे मकान के अन्दर जिन्दगी के दिन काटता होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे, तुमने मेरा जीवन सुधार दिया- मुझे आदमी बना दिया।
बागेश्वरी ने सिर झुकाये हुए नम्रता से उत्तर दिया- यह तुम्हारी सज्जनता ही मानूँ, मैं बेचारी भला जिन्दगी क्या सुधारूँगी? हाँ तुम्हारे साथ मैं भी एक दिन आदमी बन जाऊँगी। तुमने परिश्रम किया, उसका पुरस्कार पाया। जो अपनी मदद आप करते हैं, उनकी मदद परमात्मा भी करते हैं, अगर मुझ-जैसी गँवारिन किसी और के पाले पड़ती, तो अब तक न-जाने क्या गत होती।
मनहर मानो इस बहस में अपना पक्ष-समर्थन करने के लिए कमर बाँधता हुआ बोला- तुम जैसी गँवारिन पर मैं एक लाख सजी हुई गुड़ियों और रंगीन तितलियों को न्योछावर कर सकता हूँ । तुमने मेहनत करने का वह अवसर और अवकाश दिया, जिनके बिना कोई सफल हो ही नहीं सकता। अगर तुमने अपनी अन्य विलास-प्रिय, रंगीन-मिजाज बहनों की तरह मुझे अपने तकाजों से दबा रखा होता, तो मुझे उन्नति करने का अवसर कहाँ मिलता? तुमने मुझे वह निश्चिन्तता प्रदान की, जो स्कूल के दिनों में भी न मिली थी। अपने और सहकारियों को देखता हूँ, जो मुझे उन पर दया आती हैं। किसी का खर्च पूरा नहीं पड़ता। आधा महीना भी नहीं जाने पाया और हाथ खाली हो जाता हैं। कोई दोस्तों से उधार माँगता हैं, कोई घर वालों के खत लिखता हैं। कोई गहनों की फिक्र में मरा जाता हैं, कोई कपड़ो की। कभी नौकर की टोह में हैरान, कभी वैद्य की टोह में परेशान! किसी को शान्ति नहीं। आये दिन स्त्री-पुरुष में जूते चलते हैं। अपना-जैसा भाग्यवान तो मुझे कोई दीख नहीं पड़ता। मुझे घर के सारे आनन्द प्राप्त हैं और जिम्मेदारी एक भी नहीं। तुमने ही मेरे हौसलों को उभारा, मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता था, तो तुम मुझे तसल्ली देती थी। मुझे मालूम ही नही हुआ कि तुम घर का प्रबन्ध कैसे करती हो। तुमने मोटे-से-मोटा काम अपने हाथों से किया, जिसमें मुझे पुस्तकों के लिए रुपये की कमी न हो। तुम्हीं मेरी देवी हो और तुम्हारी बदौलत ही आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूँगी, वागी, और एक दिन वह आयेगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनन्द उठाओगी।
वागेश्वरी ने गदगद होकर कहा- तुम्हारे ये शब्द मेरे लिए सबसे बडे पुरस्कार हैं मानू ! मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं। मैने जो कुछ तुम्हारी थोड़ी-बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा; मुझे तो आशा भी न थी।
मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावों से उमड़ा हुआ था। वह जों बहुत ही अल्पभाषी, कुछ रूखा आदमी था और शायद वागेश्वरी के मन मे उनकी शुष्कता पर दुःख भी हुआ हो; पर इस समय सफलता के नशे ने उसकी वाणी में पर-से लगा दिये थे। बोला- जिस समय मेरे विवाह की बातचीत हो रही थी, मैं बहुत शंकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था, हो चुका । अब मुझे सारी उम्र देवीजी की नाजबरदारी में गुजरेगी। बड़े-बड़े अंगरेज विद्वानो की पुस्तकें पढ़ने से मुझे भी विवाह से घृणा हो गयी थी। मैं इसे उम्र कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुद्धि की उन्नति का द्वार बन्द कर देती हैं। मगर दो ही चार मास के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुई। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे विभूति हैं, जो मनुष्य को उज्जवल और पूर्ण बना देती हैं, जो आत्मोन्नति का मूल-मन्त्र हैं। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास हैं।
वागेश्वरी यह नम्रता और सहन न कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठ कर चली गयी।
मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुए तीन साल गुजरे थे। मनहर उस समय एक दफतर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भाँति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। धीरे-धीरे उसे जासूसी का शौक हआ। इस विषय में उसने बहुत-सा साहित्य जमा किया और बड़े मनोयोग से उनका अध्ययन किया। इसके बाद उसने उस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। रचना में उसने ऐसी विलक्षण विवेचना-शक्ति का परिचय दिया, शैली भी इतनी रोचक थी, कि जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रंथ था।
देश में धूम मच गयी। यहाँ तक कि इटली और जर्मनी-जैसे देशों से उसके पास प्रशंसा-पत्र आये और इस विषय की पत्रिकाओं में अच्छी-अच्छी आलोचनाएँ निकलीं। अन्त में सरकार ने भी अपनी गुणग्राहकता का परिचय दिया- उसे इंगलैंड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिए वृत्ति प्रदान की। और यह सब कुछ वागेश्वरी की सत्प्रेरणा का शुभ-फल था।
मनहर की इच्छा थी कि वागेश्वरी भी साथ चले; पर वागेश्वरी उनके पाँव की बेड़ी न बनना चाहती थी। उसने घर रहकर सास-ससुर की सेवा करना ही उचित समझा।
उन्माद - मुंशी प्रेमचंद | Unmad by Munshi Premchand |
2
मनहर के लिए इंगलैंड एक दूसरी ही दुनिया थी, जहाँ उन्नति के मुख्य साधनों में एक रूपवती पत्नी का होना भी था। अगर पत्नी रूपवती हैं, चपल हैं, चतुर हैं, अब वह उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता हैं। मनोयोग और तपस्या के बूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्षण के तेज पर। उस संसार में रूप और लावण्य-व्रत के बंधनों से मुक्त, एक अबाध सम्पत्ति थी! जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया; उसकी मानो तकदीर खुल गयी। यदि कोई सुन्दरी तुम्हारी सहधर्मिणी नहीं हैं, तो तुम्हारा सारा उद्योग, सारी कार्यपटुता निष्फल हैं, कोई तुम्हारा पुरसाँहल न होगा; अतएव वहाँ लोग रूप को व्यापारिक दृष्टि से देखते थे।
साल ही भर के अंग्रेजी-समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रांति पैदा कर दी। उसके मिजाज में संसारिकता का इतना प्राधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिए वहाँ स्थान ही न रहा। वागेश्वरी उसके विद्याभ्यास में सहायक होती थी; पर उसे अधिकार और पद की ऊँचाईयों पर न पहुँता सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्त्व भी अब मनहर की निगाहों में कम होता जा रहा था। वागेश्वरी अब उसे व्यर्थ-सी वस्तु मालूम होती थी, क्योंकि उसकी भौतिक दृष्टि में हर एक वस्तु का मूल्य उससे होने वाले लाभ पर ही अवलंबित था। अपना पूर्व-जीवन अब उसे हास्यपद जान पड़ता था। चंचल, हँसमुख, विनोदिनी अंग्रेज-युवतियों के सामने वागेश्वरी एक हलकी, तुच्छ-सी जान पड़ती थी- इस विद्युत-प्रकाश में वह दीपक अब मलिन पड़ गया था। यहाँ तक कि शनैःशनै उसका मलिन प्रकाश भी लुप्त हो गया।
मनहर ने अपने भविष्य का निश्चय कर लिया। यह भी एक रमणी की रूप नौका द्वार ही अपने लक्य पर पह पहुँचेगा। इसके सिवा और कोई उपाय न था।
रात के नौ बजे थे। मनहर लंदन के एक फैशनेबुल रेस्ट्राँ में बना-ठना बैठा था। उसका रंग-रूप और ठाट-बाट देखकर सहसा यह कोई नहीं कह सकता था कि अंग्रेज नहीं हैं। लंदन में भी उसके सौभाग्य ने उसका साथ दिया था। उसने चोरी के कई गहरे मुआमलों का पता लगा दिया था, इसलिए धन और यश दोंनो ही मिल रहा था। वह अब यहाँ के भारतीय समाज का एक प्रमुख अंग बन गया था, जिसके आतिथ्य औऱ सौजन्य की सभी सराहना करते थे। उसका लबोलहजा भी अंग्रेजो से मिलता-जुलता था। उसके सामने मेज की दूसरी ओर एक रमणी बैठी हुई उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी। उसके अंग-अंग से यौवन टपका पड़ता था। भारत के अदभूत वृत्तांत सुन-सुनकर उसकी आँखे खुशी से चमक रही थीं। मनहर चिड़िया के सामने दाने बिखेर रहा था।
मनहर – विचित्र देश हैं जेनी, अत्यन्त विचित्र। पाँच-पाँच साल के दूल्हे तुम्हें भारत के सिवा और कहीं देखने को न मिलेंगे। लाल रंग का कामदार कपड़े, सिर पर चमकता हुआ लम्बा टोप, चेहरे पर फूलों का झालरदार बुर्का, घोड़े पर सवार चले जा रहे हैं। दो आदमी दोनो तरफ से छतरियाँ लगाये हुए हैं। हाथों में मेंहदी लगी हुई?
जेनी- मेंहदी क्यों लगाते हैं?
मनहर- जिसमें हाथ लाल हो जायँ। पैरों में भी रंग भरा जाता हैं। उँगलियों के नाखून लाल रंग दिये जाते हैं। वह दृश्य देखते ही बनता हैं।
जेनी- यह तो दिल में सनसनी पैदा करने वाला दृश्य होगा। दुलहिन भी इसी तरह सजायी जाती होगी?
मनहर- इससे कई गुना अधिक। सिर से पाँव तक सोने-चाँदी के जेवरों से लदी हुई। ऐसा कोई अंग नहीं जिसमें दो-दो, चार-चार गहने न हों।
जेनी- तुम्हारी शादी भी उसी तरह हुई होगी। तुम्हें तो बड़ा आनन्द आया होगा?
मनहर- हाँ, वही आनन्द आया था, जो तुम्हें मेरी-गो राउंडर पर चढ़ने में आता हैं। अच्छी-अच्छी चीजें खाने को मिलती हैं; अच्छे-अच्छे कपड़े मिलते हैं। खूब नाच- तमाशे देखता था और शहनाइयों का गाना सुनता था। मजा तो तब आता है, जब दुलहिन अपने घर से विदा होती हैं। सारे घर में कुहराम मच जाता हैं। दुलहिन हर एक से लिपट-लिपट कर रोती हैं; जैसे मातम कर रही हैं।
जेनी- दुलहिन रोती क्यों हैं?
मनहर- रोने का रिवाज चला आता हैं। हाँलाकि सभी जानते हैं कि वह हमेशा के लिए नहीं जा रहीं हैं, फिर भी सारा घर इस तरह फूट-फूटकर रोता हैं, मानो कालेपानी भेजी जा रही हैं।
जेनी- मैं तो इस तमाशे पर खूब हँसूँ ।
मनहर- हँसने की बात ही हैं।
जेनी- तुम्हारी बीबी भी रोयी होगी?
3
मनहर- अजी, कुछ न पूछो, पछाड़े खा रही थी, मानो मैं उसका गला घोट दूँगा। मेरी पालकी से निकलकर भागी जाती थी; पर मैने जोर से पकड़ कर अपनी बगल में बैठा लिया। तब मुझे दाँत काटने लगी।
मिस जेनी ने जोर से कहकहा मारा औऱ हँसी के साथ लोट गयी। बोली- हॉरिबिल! हॉरिबिल! क्या अब भी दाँत काटती हैं?
मनहर- वह अब इस संसार में नही हैं, जेनी! मैं उससे खूब काम लेता था। मैं सोता था, तो वह मेरे बदन में चम्पी लगाती थी, मेरे सिर पर तेल डालती थी, पंखा झलती थी।
जेनी- मुझे तो विश्वास नही आता। बिल्कुल मूर्ख थी!
मनहर- कुछ न पूछो। दिन को किसी के सामने मुझसे बोलती भी न थी; मगर मैं उसका पीछा करता रहता था।
जेनी- ओ! नॉटी बॉय! तुम बड़े शरीर हो; थीं तो रूपवती?
मनहर- हाँ, उसका मुँह तुम्हारे तलवों जैसा था।?
जेनी- नॉनसेंस! तुम ऐसी औरत के पीछे कभी न दौड़ते।
मनहर- उस वक़्त मैं भी मूर्ख था, जेनी।
जेनी- ऐसी मूर्ख लड़की से तुमने विवाह क्यों किया?
मनहर- विवाह न करता तो माँ-बाप जहर खा लेते।
जेनी- वह तुम्हें प्यार कैसे करने लगी?
मनहर- और करती क्या? मेरे सिवा दूसरा थी ही कौन ? घर से बाहर न निकलने पाती थी, मगर प्यार हममें से किसी को न था। वह मेरी आत्मा और हृदय को सन्तुष्ट न कर सकती थी, जेनी! मुझे उन दिनों की याद आती हैं, तो ऐसा मालूम होता हैं कि कोई भयंकर स्वप्न था। उफ! अगर वह स्त्री आज जीवित होती, तो मैं किसी अँधेरे दफतर में बैठा कलम घिसता होता। इस देश में आकर मुझे ययार्थ ज्ञान हुआ कि संसार में स्त्री का क्या स्थान हैं, उसका क्या दायित्व हैं और जीवन उसके कारण कितना आनन्दप्रद हो जाता हैं। और जिस दिन तुम्हारे दर्शन हुए, वह तो मेरी जिन्दगी का सबसे मुबारक दिन था। याद हैं तुम्हें वह दिन? तुम्हारी वह सूरत मेरी आँखों में अब भी फिर रही हैं।
जेनी- अब मै चली जाऊँगी। तुम मेरी खुशामद करने लगे।
भारत के मजदूरदल सचिव थे लार्ड बारबर, और उनके प्राईवेट सेक्रेटरी थे मि. कावर्ड। लार्ड बारबर भारत के सच्चे मित्र समझे जाते थे। जब कंजरवेटिव और लिबरल दलों का अधिकार था, तो लार्ड बारबर भारत की बड़ी जोरो से बकालत करते थे। वह इन मन्त्रियों पर ऐसे-ऐसे कटाक्ष करते थे कि उन बेचारों को कोई जवाब न सूझता। एक बार वह हिन्दुस्तान आये थे और यहाँ की कॉग्रेस में शरीक भी हुए थे। उस समय उनकी उदार वक्तृताओ ने समस्त देश में आशा और उत्साह की एक लहर दौड़ा दी थी। कॉग्रेस के जलसे के बाद वह जिस शहर में गये, जनता ने उनके रास्ते में आँखें बिछायी, उनकी गाड़ियाँ खींची, उनपर फूल बरसाये। चारों ओर से यही आवाज आती थी- यह हैं भारत का उद्धार करने वाला। लोगो को विश्वास हो गया कि भारत के सौभाग्य से अगर कभी लार्ड बारबर को अधिकार प्राप्त हुआ, तो वह दिन भारत के इतिहास में मुबारक होगा।
लेकिन अधिकार पाते ही लार्ड बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया। उनके सारे सदभाव, उनकी उदारता, न्यायपरायणता, सहानुभूति ये सभी अधिकार के भँवर में पड़ गये। और अब लार्ड बारबर और उनके पूर्वाधिकार के व्यवहार में लेशमात्र भी अन्तर न था। वह भी वही कर रहे थे, जो उनके पहले के लोग कर चुके थे। वही दमन था, वही जातिगत अभिमान, वही कट्टरता, वही संकीर्णता। देवता के अधिकार के सिहासन पर पाँव रखते ही अपना देवत्व खो बैठा था। अपने दो साल के अधिकार-काम में उन्होंने सैकड़ो ही अफसर नियुक्त किये थे; पर उनमें एक भी हिन्दुस्तानी न था। भारतवासी निराश हो-होकर उन्हें ‘डाइहार्ड‘, ‘धन का उपासक‘ और ‘साम्राज्यवाद का पुजारी‘ कहने लगे थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि जो कुछ करते थे मि. कावर्ड करते थे। हक यह था कि लार्ड बारबर की नीयत के इतने शेर थे, जितने दिल के कमजोर । हालाँकि परिणाम दोनो दशाओं में एक-सा था।
यह मि. कावर्ड एक ही महापुरुष थे। उनकी उम्र चालीस से अधिक गुजर चुकी थी; पर अभी तक विवाह न किया था। शायद उनका ख्याल था कि राजनीति के क्षेत्र में रहकर वैवाहिक जीवन का आनन्द नहीं उठा सकते । वास्तव में नवीनता के मधुप थे। उन्हें नित्य नये विनोद और आकर्षण, नित्य नये विलास और उल्लास की टोह रहती थी। दूसरों के लगाये हुए बाग की सैर करके चित्त को प्रसन्न कर लेना इससे कहीं सरल था कि अपना बाग आप लगायें और उसकी रक्षा और सजावट में अपना सिर खपायें। उनको व्यावहारिक और व्यापारिक दृष्टि में यह लटका उससें कही आसान था।
4
दोपहर का समय था। मि. कावर्ड नाश्ता करके सिंगार पी रहे थे कि मिस जेनी रोज के आने की खबर हुई। उन्होंने तुरन्त आईने के सामने खड़े होकर अपनी सूरत देखी, बिखरे हुए बालों को सँवारा, बहुमूल्य इत्र मला और मुख से स्वागत की सहास छवि दरशाते हुए कमरे से निकलकर मिस रोज से हाथ मिलाया।
जेनी ने कमरे में कदम रखते ही कहा- अब मैं समझ गयी कि क्यों कोई सुन्दरी तुम्हारी बात नहीं पूछती। आप अपने वादों को पूरा करना नहीं जानते।
मि. कावर्ड ने जेनी के लिए एक कुर्सी खीचते हुए कहा- मुझे बहुत खेद हैं मिस रोज, कि मैं कल अपना वादा पूरा न कर सका। प्राइवेट सेक्रेटरियों का जीवन कुत्तों के जीवन से भी हेय हैं। बार-बार चाहता था कि दफतर से उठूँ ; पर एक-न- एक कॉल ऐसा आ जाता था कि फिर रुक जाना पड़ता था। मै तुमसे क्षमा माँगता हूँ ।
जेनी- मै तुम्हे तलाश करती रही। जब तुम न मिले, तो मेरा जी खट्टा हो गया। मैं और किसी के साथ नहीं नाची! अगर तुम्हें नही जाना था, तो मुझे निमन्त्रण पत्र क्यों दिलाया था।
कावर्ड ने जेनी को सिगार भेंट करते हुए कहा- तुम मुझे लज्जित कर रही हो, जैनी! मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती थी कि तुम्हारे साथ नाचता? एक पुराना बैचलर होने पर भी मैं उस आनन्द की कल्पना कर सकता हूँ । बस, समझ लो कि तड़प-तड़प कर रह जाता था।
जेनी ने कठोर मुस्कान के साथ कहा- तुम इसी योग्य हो कि बैचलर बने रहो। यही तुम्हारी सजा हैं।
कावर्ड ने अनुरक्त होकर उत्तर दिया- तुम बड़ी कठोर हो, जेनी! तुम्हीं क्या रमणियाँ सभी कठोर होती हैं। मैं कितनी परवशता दिखाऊँ, तुम्हें विश्वास न आयेगा। मुझे यह अरमान ही रह गया कि कोई सुन्दरी मेरे अनुराग और लगन का आदर करती।
जेनी- तुमसे अनुराग हो भी तो? रमणियाँ ऐसे बहानेबाजों को मुँह नहीं लगाती।
कावर्ड- फिर बहानेबाज कहा – मजबूर क्यों नहीं कहती?
जेनी- मैं किसी की मजबूरी को नहीं मानती। मेरे लिए यह हर्ष और गौरव की बात नहीं हो सकती, कि आपको जब अपने सरकारी, अर्ध-सरकारी और गैर- सरकारी कामों से अवकाश मिले, तो आप मेरा मन रखने के लिए एक क्षण के लिए अपने कोमल चरणों को कष्ट न दे। मैं दफ्तर और काम के हीले नहीं सुनना चाहती। इसी कारण तुम अब तक झींख रहे हो।
कावर्ड ने गम्भीर भाव से कहा- तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो, जेनी! मेरे अविवाहित रहने का क्या कारण हैं, यह कल तक मुझे खुद न मालूम था। कल आप-ही-आप मालूम हो गया।
जेनी ने उसका परिहास करते हुए कहा- अच्छा! तो यह रहस्य आपके मालूम हो गया? तब तो आप सचमुच आत्मदर्शी हैं। जरा मैं भी सुनूँ, क्या कारण था?
कावर्ड ने उत्साह के साथ कहा- अब तक कोई सुन्दरी न मिली थी, जो मुझे उन्मत्त कर सकती।
जेनी ने कठोर परिहास के साथ कहा- मेरा ख्याल था कि दुनिया में ऐसी औरत पैदा ही नहीं हुई, जो तुम्हें उन्मत्त कर सकती। तुम उन्मत्त बनाना चाहते हो, उन्मत्त बनना नहीं चाहते।
कावर्ड़- तुम बड़ा अत्याचार करती हो, जेनी।
जेनी- अपने उन्माद का प्रमाण देना चाहते हो
कावर्ड- हृदय से, जेनी! मै इस अवसर की ताक में बैठा हूँ।
उसी जिन शाम को जेनी ने मनहर से कहा- तुम्हारे सौभाग्य पर बधाई! तुम्हें वह जगह मिल गयी।
मनहर ने उछलकर बोला- सच! सेक्रेटरी से कोई बातचीत हुई थी?
जेनी- सेक्रेटरी से कुछ कहने की जरूरत ही न पड़ी। सब कुछ कावर्ड के हाथ में हैं। मैने उसी को चंग पर चढ़ाया। लगा मुझे इश्क जताने। पचास साल की तो उम्र है, चाँद के बाल झड़ गये, गालों में झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, पर अभी तक आपको इश्क का खब्त हैं। आप अपने को एक ही रसिया समझते हैं। उसके बूढ़े चोचले बहुत बुरे मालूम होते थे; मगर तुम्हारे लिए सब कुछ सहना पड़ा । खैर मेहनत सफल हो गयी हैं। कल तुम्हें परवाना मिल जायगा। अब सफर की तैयारी करनी चाहिए।
मनहर ने गदगद् होकर कहा- तुमने मुझ पर बड़ा एहसान किया हैं, जेनी!
मनहर को गुप्तचर विभाग में ऊँचा पद मिला। देश के राष्ट्रीय पत्रों में उसकी तारीफों के पुल बाँधे, उसकी तसवीर छापी और राष्ट्र की ओर से उसे बधाई दी। वह पहला भारतीय था, जिसे वह ऊँचा पद प्रदान किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने सिद्ध कर दिया था कि उसकी न्याय-बुद्धि जातीय अभिमान और द्वेष से उच्चतर हैं।
मनहर और जेनी का विवाह इंगलैंड में ही हो गया। हनीमून का महीना फ्रांस में गुजरा। वहाँ से दोनो हिन्दुस्तान आये। मनहर का दफ्तर बम्बई में था। यहीं दोनो एक होटल में रहने लगे। मनहर को गुप्त अभियोग की खोज के लिए अक्सर दौरे करने पड़ते थे। कभी काश्मीर, कभी मद्रास, कभी रंगून । जेनी इन यात्राओं में बराबर उसके साथ रहती। नित्य नये दृश्य थे, नये विनोद, नये उल्लास। उसकी नवीनता-प्रिय प्रकृति के लिए आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था?
5
मनहर का रहन-सहन तो अंग्रेजी था ही, घरवालों से भी सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। वागेश्वरी के पत्रो का उत्तर देना तो दूर रहा, उन्हें खोलकर पढ़ता भी न था।
भारत में उसे हमेशा यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाय। जेनी से वह अपनी यथार्थ स्थिति को छिपाये रखना चाहता था। उसने घरवालों को आने की सूचना तक न दी। यहाँ तक की वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम ही मिलता था। उसके मित्र अधिकांश पुलिस और फौज के अफसर थे। वहीं उसके मेहमान होते। वाकचतुर जेनी सम्मोहन कला में सिद्धहस्त थी। पुरुषों के प्रेम से खेलना उसकी सबसे अमोदमय क्रीड़ा थी। जलाती थी, रिझाती भी थी, और मनहर भी उसकी कपट-लीला का शिकार बनता रहता था। उसे हमेशा भूल-भुलैया में रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार, कभी इतना दूर कि योजन का अन्तर – कभी निष्ठुर और कभी कठोर, कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता था और कभी हैरान रह जाता था।
इस तरह दो वर्ष बीत गये और मनहर तथा जेनी कोण की दो भुजाओं की भाँति एक दूसरे से दूर होते गये। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्त्तव्य हैं। यह चाहे उसकी संकीर्णता हो या कुल-मर्यादा का असर कि वह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी स्वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सम्पर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलम्बित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो जायगा; हालाँकि उसे मालूम होना चाहिए था कि टेढी बुनियाद पर बना हुआ भवन जल्द या देर में अवश्य भूमिस्थ होकर रहेगा। और ऊँचाई के साथ इसकी शंका और भी बढती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार बिल्कुल परिस्थिति के अनुकूल था। उसने मनहर को विनोदमय तथा विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर वह अब तक स्थिर थी। इस व्यक्ति को वह मन में पति का स्थान न दे सकती थी, पाषाण-प्रतिमा को अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था, इसलिए वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्त्तव्य को स्वीकार न करती थी। अगर मनहर अपनी गाढी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था, तो उस पर कोई एहसान न करता था। मनहर उसका बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और फल को भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।
मनोमालिन्य बढ़ता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसों में जाना छोड़ दिया; पर जेनी पूर्ववत् सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावतें करती और दावतों में शरीक होती। मनहर के साथ न जाने से लेशमात्र भी दुःख या निराशा न होती थी; बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और भी प्रसन्न होती। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे मे डूबोने का उद्योग करता। पीना तो उसने इंगलैंड में ही शुरू कर दिया था, पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ़ गयी थी। वहाँ स्फूर्ति और आनन्द के लिए पीता था, यहाँ स्फूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिए। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था, शराब मुझे पिये जा रही हैं; पर उसके जीवन का यही एक अवलम्ब रह गया था।
गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जाँच करने के लिए लखनऊ में डेरा डाले हुए था। मुआमला संगीन था। उसे सिर उठाने की फुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी कुछ खराब हो चला था, मगर जेनी अपने सैर-सपाटें मे मग्न थी। आखिर एक दिन उसने कहा, मैं नैनीताल जा रही हूँ। यहाँ की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।
मनहर ने लाल-लाल आँखे निकाल कर कहा- नैनीताल में क्या काम हैं?
वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा पर तुली हुई थी। बोली- यहाँ कोई सोसाइटी नहीं। सारा लखनऊ पहाड़ो पर चला गया हैं।
मनहर ने जैसे म्यान से तलवार निकलकर कर कहा- जब तक मैं यहाँ हूँ, तुम्हें कहीं जाने का अधिकार नहीं हैं। तुम्हारी शादी मेरे साथ हुई हैं, सोसाइटी के साथ नहीं। फिर तुम साफ देख रही हो कि मैं बीमार हूँ, तिस पर भी तुम अपनी विलास प्रवृत्ति को रोक नहीं सकती। मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी, जेनी! मैं तुमको शरीफ समझता था। मुझे स्वप्न में भी यह गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऐसी बेवफाई करोगी।
जेनी ने अविचलित भाव से कहा- तो क्या तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी हिन्दुस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौड़ी बन कर रहूँगी और तुम्हारे सहलाऊँगी ? मैं तुम्हे इतना नादान नहीं समझती। अगर तुम्हें हमारी अंग्रेजी सभ्यता का इतनी मोटी-सी बात मालूम नहीं, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पाबन्द नहीं। तुमने मुझसे विवाह किया था कि मेरी सहायता से तुम्हें सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऐसा करते हैं और तुमने भी वही किया। मैं इसके लिए तुम्हें बुरा नहीं कहती लेकिन जब तुम्हारा उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिए तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा क्यों रखते हो? तुम हिन्दुस्तानी हो, अंगरेज नहीं हो सकते। मैं अंगरेज हूँ और हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती; इसलिए हम में से किसी को यह अधिकार नहीं हैं कि वह दूसरे को अपनी मर्जी का गुलाम बनाने की चेष्ठा करे।
मनहर हतबुद्धि-सा बैठा सुनता रहा। एक-एक शब्द विष की घूँट की भाँति उसके कंठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था। पद-लालसा के उस प्रचंड आवेग में, विलास तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऐसा तत्व भी हैं, जिसके सामने पद और विलास काँच के खिलौनों से अधिक मूल्य नहीं रखते । यह विस्मृत सत्य इस समय अपने दारुण-विलाप से उसकी मदमग्न चेतना को तड़पाने लगा।
शाम को जेनी नैनीताल चली गयी। मनहर ने उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा।
6
तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जीवन के पाँच-छः वर्षो में उसने जितने रत्न संचित किये थे, जिसपर वह गर्व करता था; जिन्हें पाकर वह अपने को धन्य मानता था, अब परीक्षा की कसौटी पर आकर नकली पत्थर सिद्ध हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकान्त-रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी हुई झोपड़ी को छोड़कर वह जिस-जिस सुनहले कलशवाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका-मात्र थी और अब उसे फिर उसी टूटी झोपड़ी की याद आयी, जहाँ शान्ति, प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काट खाने लगा। उस सरल शीतल स्नेह के सामने ये सारी विभूतियाँ तुच्छ-सी जँचने लगी। तीसरे दिन वह भीषण संकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे। एक तो अपने पद से इस्तीफा था, दस दूसरा जेनी से अन्तिम विदा की सूचना। इस्तीफे में उसने लिखा- मेरा स्वास्थ्य नष्ट हो गया हैं और मै इस भार को नहीं सँभाल सकता। जेनी के पत्र में उसने लिखा- हम और तुम दोनों ने भूल की और हमें जल्द-से-जल्द उस भूल का सुधार लेना चाहिए। मैं तुम्हें सारे बन्धनों से मुक्त करता हूँ । तुम भी मुझे मुक्त कर दो। मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं हैं। अपराध न तुम्हारा हैं, न मेरा। समझ का फेर तुम्हें भी था और मुझे भी। मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया हैं औऱ अब तुम्हारा मुझ पर कोई एहसान नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ हैं, वह तुम्हारा हैं, वह सब मैं छोड़े जा रहा हूँ । मैं तो निमित्त-मात्र था, स्वामिनी तुम थी। उस सभ्यता को दूर से ही सलाम हैं, जो विनोद और विलास के सामने किसी बन्धन को स्वीकार नहीं करती।
उसने खुद जाकर दोनो पत्रों की रजिस्ट्री करायी और उत्तर का इन्तजार किया बिना ही वहाँ से चलने को तैयार हो गया।
जेनी ने जब मनहर का पत्र पाकर पढ़ा, तो मुस्कायी। उसे मनहर की इच्छा पर शासन का ऐसा अभ्यास पड़ गया था कि इस पत्र से उसे जरा भी घबराहट न हुई। उसे विश्वास था कि दो-चार दिन चिकनी-चुपड़ी बातें करके वह उसे फिर वशीभूत कर लेगी। अगर मनहर की इच्छा केवल धमकी देनी न होती, उसके दिल पर चोट लगी होती, तो वह अब तक यहाँ न होता। कब का यह स्थान छोड़ चुका होता। उसका यहाँ रहना ही बता रहा हैं कि वह केवल बन्दरघुड़की दे रहा हैं।
जेनी ने स्थिरचित होकर कपड़े बदले औऱ तब इस तरह मनहर के कमरे में आयी, मानो कोई अभिनय करने स्टेज पर आयी हो।
मनहर उसे देखते ही जोर से ठट्ठा मार कर हँसा। जेनी सहम कर पीछे हट गयी। इस हँसी कमें क्रोध या प्रतिकार न था। उसमें उन्माद भरा हुआ था। मनहर के सामने मेज पर बोतल और गिलास रखा हुआ था। एक दिन में उसने न-जाने कितनी शराब पी ली थी। उसकी आँखों में जैसे रक्त उबला पड़ता था।
जेनी ने समीप जाकर उसके कन्धे पर हाथ रखा और बोली- क्या रात-भर पीते ही रहोगे? चलों आराम से लेटो, रात ज्यादा हो गयी हैं। घंटो से बैठी तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ। तुम इतने निष्ठुर ते कभी न थे।
मनहर खोया हुआ-सा बोला- तुम कब आ गयी वागी? देखो, मैं कब से तुम्हे पुकार रहा हूँ। चलो, आज सैर कर आयें। उसी नदी के किनारे तुम अपना वही प्यारा गीत सुनाना, जिसे सुनकर मैं पागल हो जाता हूँ। क्या कहती हो, मैं बेमुरौवत हूँ ? यह तुम्हारा अन्याय है, वागी! मैं कसम खाकर कहता हूँ, ऐसा एक दिन भी नहीं गुजरा, जब तुम्हारी याद ने मुझे रुलाया हो।
जेनी ने उसका कन्धा हिलाकर कहा- तुम यह क्या ऊल-जुलूल बक रहे हो? वागी यहाँ कहाँ हैं?
मनहर ने उसकी ओर अपरिचित भाव से देखकर कुछ कहा, फिर जोर से हँसकर बोला- मैं यह न मानूँगा, वागी! तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। वहाँ मैं लिए फूलों की एक माला बनाऊँगा…।
जेनी ने समझा, यह शराब बहुत पी गये हैं। बक-झक कर रहे हैं। इनसे इस वक़्त कुछ बाते करना व्यर्थ हैं। चुपके से कमरे से बाहर चली गयी। उसे जरा-सी शंका हुई थी। यहाँ उसका मूलोच्छेद हो गया। जिस आदमी का अपनी वाणी पर अधिकार नहीं, वह इच्छा पर क्या अधिकार रख सकता हैं?
उस घड़ी से मनहर घर वालों की रट-सी लग गयी। कभी वागेश्वरी को पुकारता, कभी अम्माँ को, कभी दादा को। उसका आत्मा अतीत मे विचरती रहती, उस अतीत में जब जेनी ने काली छाया की भाँति प्रवेश न किया था और वागेश्वरी अपने सरल व्रत से उसके जीवन में प्रकाश फैलाती रहती थी।
दूसरे दिन जेनी ने जाकर कहा- तुम इतनी शराब क्यो पीते हो? देखते नहीं, तुम्हारी क्या दशा हो रही हैं?
मनहर ने उसकी ओर आश्चर्य से देखकर कहा- तुम कौन हो?
जेनी- क्यों मुझे नहीं पहचानते हो ?इतनी जल्दी भूल गये?
मनहर- मैने तुम्हें कभी नही देखा! मैं तुम्हें नहीं पहचानता।
जेनी ने और अधिक बातचीत न थी। उसने मनहर के कमरे से शराब की बोतलें उठवा ली और नौकरों की ताकीद कर दी कि उसे एक घूँट भी शराब न दी जाय। उसे अब कुछ-कुछ सन्देह होने लगा था, क्योंकि मनहर की दशा उससे कहीं शंकाजनक थी, जितनी वह समझती थी। मनहर का जीवित और स्वस्थ रहना उसके आवश्यक था। इसी घोड़े पर बैठकर वह शिकार खेलती थी। घोड़े के बगैर शिकार का आनन्द कहाँ?
मगर एक सप्ताह हो जाने पर भी मनहर की मानसिक दशा में कोई अन्तर न हुआ। न मित्रों को पहचानता था, न नौकरों को। पिछले तीन बरसों का जीवन एक स्वप्न की भाँति मिट गया था।
7
सातवें दिन जेनी सिविल सर्जन को लेकर आयी, तो मनहर का कहीं पता न था।
पाँच साल के बाद वागेश्वरी का लुटा हुआ सुहाग फिर चेता। माँ-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अंधे हो चुके थे। वागेश्वरी निराशा में भी आस बाँधे बैठी हुई थी। उसका मायका सम्पन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर धैर्य और व्रत की देवी घर से न टली।
जब मनहर भारत आया, तो वागेश्वरी ने सुना कि वह विलायत से एक मेम लाया हैं। फिर भी उसे आशा थी कि वह आयेगा; लेकिन उसकी आशा पूरी न हुई। फिर उसने सुना, वह ईसाई हो गया है आचार-विचार त्याग दिया हैं, तब उसने माथा ठोक लिया।
घर की अवस्था दिन-दिन बिगड़ने लगी। वर्षा बन्द हो गयी और सागर सूखने लगा। घर बिका, कुछ जमीन थी, वह बिकी, फिर गहनों की बारी आयी, यहाँ तक कि अब केवल आकाशी वृत्ति थी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठंड़ा पडा रहा।
एक दिन संध्या समय वह कुएँ पर पानी भरने गयी थी कि एक थका हुआ जीर्ण, विपत्ति का मारा जैसा आदमी आकर कुएँ की जगत पर बैठ गया। वागेश्वरी ने देखा, तो मनहर! उसने तुरन्त घूँघट बढ़ा लिया। आँखो पर विश्वास न हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय से हृदय में फुरेरियाँ उड़ने लगी। रस्सी और कलसा कुएँ पर छोड़कर लपकी हुई घर आयी और सास से बोली- अम्माँजी, जरा कुएँ पर जाकर देखों, कौन आया हैं। सास ने कहा- तू पानी लाने गयी थी, या तमाशा देखने? घर में एक बूँद पानी नही हैं। कौन आया है कुएँ पर?
‘चलकर, देख लो न!’
‘कोई सिपाही-प्यादा होगा। अब उसके सिवा और कौन आनेवाला हैं। कोई महाजन तो नही हैं?’
‘नहीं अम्माँ, तुम चली क्यों नहीं चलती?’
बूढ़ी माता भाँति-भाँति की शंकाएँ करती हुई कुएँ पर पहुँची, तो मनहर दौड़कर उनके पैरों से लिपट गया। माता ने उसे छाती से लगाकर कहा- तुम्हारी यह दशा हैं मानू? क्या बीमार हैं? असबाब कहाँ हैं?
मनहर ने कहा- पहले कुछ खाने को दो, अम्माँ! बहुत भूखा हूँ। मैं बड़ी दूर से पैदल चला आ रहा हूँ।
गाँव में खबर फैल गयी कि मनहर आया हैं। लोग उसे देखने दौड़े। किस ठाट से आया हैं? बड़े ऊँचे पद पर हैं, हजारों रुपये पाता हैं। अब उसके ठाट का क्या पूछना! मेम भी साथ आयी हैं या नही?
मगर जब आकर देखा, तो आफत का मारा आदमी, फटेहाल, कपड़े तार-तार, बाल बढ़े हुए, जैसे जेल से आया हो।
प्रश्नों की बौछार होने लगी- हमने तो सुना था, तुम किसी ऊँचे पद पर हो।
मनहर ने जैसे किसी भूली बात को याद करने का विफल प्रयास करके कहा- मैं! मै तो किसी ओहदे पर नहीं!
‘वाह! तुम विलायत से मेम नही लाये थे?’
मनहर ने चकित होकर कहा- विलायत। विलायत कौन गया था?
‘अरे! भंग तो नही खा गये हो। तुम विलायत नही गये थे?’
मनहर मूढ़ों की भाँति हँसा- मैं विलायत करने क्या जाता?
‘अजी, तुमको वजीफा नहीं मिला था? यहाँ से तुम विलायत गये थे। तुम्हारे पत्र बराबर आते थे। अब तुम कहते हो, विलायत गयी ही नही। होश में हो, या हम लोगों को उल्लू बना रहा हो?’
मनहर ने उन लोगों की ओर आँखे फाड़कर देखा और बोला- मैं तो कहीं नहीं गया था। आप लोग जाने क्या कह रहे हैं।
अब इसमे सन्देह की गुंजाइश न रही कि वह अपने होश-हवास में नहीं है। उसे विलायत जाने के पहले की सारी बाते याद थीं। गाँव और घर के हरेक आदमी को पहचानता था, सबसे नम्रता और प्रेम से बाते करता था; लेकिन जब इंगलैंड, अंगरेज-बीवी और ऊँचे पद का जिक्र आता तो भौचक्का होकर ताकने लगता। वागेश्वरी को अब उसके प्रेम मे अस्वाभाविक अनुराग दीखता था, जो बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थी कि उसके व्यवहार और आचरण में पहले की-सी बेतकल्लुफी हो। वह प्रेम का स्वाँग नहीं, प्रेम चाहती थी। दस ही पाँच दिनों में उसे ज्ञान हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं, वरन कोई मानसिक विकार हैं। मनहर ने माँ-बाप के इतना अदब पहले कभी न किया था। उसे अब मोटे-से-मोटा काम करने में संकोच न था। वह, जो बाजार से साग-भाजी लाने में अपना अनादर समझता था, अब कुएँ से पानी खींचता, लकड़ियाँ फाड़ता और घर में झाडूँ लगाता था और अपने ही घर में ही नहीं, सारे मुहल्ले में उसकी सेवा और नम्रता का चर्चा होती थी।
एक बार मुहल्ले में चोरी हुई। पुलिस ने बहुत दौड़-धूप की; पर चोरों का पता न चला। मनहर ने चोर का पता ही नही लगा दिया; बल्कि माल भी बरामद करा दिया। इससे आसपास के गाँवों और मुहल्लों में उसका यश फैल गया। कोई चोरी हो जाती थी तो लोग उसके पास दौड़े आते और अधिकांश उद्योग सफल भी होते थे। इस तरह उसकी जीविका की एक व्यवस्था हो गयी। वह अब वागेश्वरी का गुलाम था। उसी की दिलजोई और सेवा में उसके दिन कटते थे। अगर उसमें विकार या बीमारी का कोई लक्षण था, तो इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गयी थी।
वागेश्वरी को उसकी दशा पर दुःख होता था; पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थ्य से अधिक उसे प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूछता था।
छः महीनों को बाद एक दिन जेनी मनहर का पता लगाती हुई आ पहुँची। हाथ में जो कुछ था, वह सब उड़ा चुकने के बाद अब उसे किसी आश्रय की खोज थी। उसके चाहने वालों मे कोई ऐसा न था, जो उसकी आर्थिक सहायता करता। शायद अब जेनी को कुछ ग्लानि भी होती थी। वह अपने किये पर लज्जित थी।
द्वार पर हार्न की आवाज सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा, मानो उसे कभी देखा ही नही।
8
जेनी ने मोटर से उतर कर उससे हाथ मिलाया और अपनी बीती सुनाने लगी- तुम इस तरह मुझसे छिपकर क्यो चले आये? और फिर आकर एक पत्र भी नहीं लिखा। आखिर, मैने तुम्हारे साथ क्या बुराई की थी! फिर मुझमें कोई बुराई देखी थी, तो तुम्हें चाहिए था कि मुझे सावधान कर देते। छिपकर चले आने से क्या फायदा हुआ? ऐसी अच्छी जगह मिल गयी थी, वह भी हाथ से निकल गयी।
मनहर काठ के उल्लू की भाँति खड़ा रहा।
जेनी ने फिर कहा- तुम्हारे चले आने के बाद मेरे ऊपर जो संकट आये, वह सुनाऊँ, तो तुम घबरा जाओगे। मैं इसी चिन्ता और दुःख से बीमार हो गयी। तुम्हारे बगैर मेरी जीवन निरर्थक हो गया हैं। तुम्हारा चित्र देखकर मन को ढाढस देती थी। तुम्हारे पत्रों को आदि से अन्त तक पढ़ना मेरे लिए सबसे मनोरंजक विषय था। तुम मेरे साथ चलो, मैंने एक डॉक्टर से बातचीत की हैं, वह मस्तिष्क के विकारों का डॉक्टर हैं। मुझ आशा है, उसके उपचार से तुम्हें लाभ होगा।
मनहर चुपचाप विरक्त-भाव से खड़ा रहा, मानो वह न कुछ देख रहा हैं, न सुन रहा हैं।
सहसा वागेश्वरी निकल आयी। जेनी को देखते ही वह ताड़ गयी कि यही मेरी यूरोपियन सौत हैं। वह उसे बड़े आदर-सत्कार के साथ भीतर ले गयी। मनहर भी उनके पीछे-पीछे चला गया।
जेनी ने टूटी खाट पर बैठते हुए कहा- इन्होंने मेरा जिक्र तो तुमसे किया ही होगी। मेरी इनसे लंदन में शादी हुई हैं।
वागेश्वरी बोली- यह तो मैं आपको देखते ही समझ गयी थी।
जेनी- इन्होने कभी मेरा जिक्र नहीं किया?
वागेश्वरी बोली- कभी नहीं। इन्हें तो कुछ याद नहीं। आपको को यहाँ आने में बड़ा कष्ट हुआ होगा?
जेनी- महीनो के बाद तब इनके घर का पता चला। वहाँ से बिना कुछ कहे-सुने चल दिये
‘आपको कुछ मालूम हैं, इन्हें क्या शिकायत हैं?’
‘शराब बहुत पीने लगे थे। आपने किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया?‘
‘हमने तो किसी को नहीं दिखाया‘
जेनी ने तिरस्कार करके कहा- क्यों? क्या आप इन्हें हमेशा बीनार रखना चाहती हैं?
वागेश्वरी ने बेपरवाही से जवाब दिया- मेरे लिए तो इनका बीमार रहना इनके स्वस्थ रहने से कहीं अच्छा हैं। तब वह अपना आत्मा को भूल गये थे, अब उसे पा गये।
फिर उसने निर्दय कटाक्ष करके कहा- मेरे विचार से तो वह तब बीमार थे, अब स्वस्थ हैं।
जेनी ने चिढकर कहा- नॉनसेंस! इनकी किसी विशेषज्ञ से चिकित्सा करानी होगी। यह जासूसी में बड़े कुशल हैं। इनके सभी अफसर इनसे प्रसन्न हैं। यह चाहें तो अब भी इन्हें वह जगह मिल सकती हैं। अपने विभाग में ऊँचे-से-ऊँचे पद तक पहुँच सकते हैं। मुझे विश्वास हैं कि इनका रोग असाध्य नहीं हैं; हाँ, विचित्र अवश्य हैं। आप क्या इनकी बहन हैं?
वागेश्वरी ने मुसकरा कर कहा- आफ तो गाली दे रही हैं। यह मेरे स्वामी हैं।
जेनी पर जैसे मानो व्रजपात-सा हुआ। उसके मुख पर से नम्रता गया और मन में छिपा हुआ क्रोध जैसे दाँत पीसने लगा। उसकी गरदन की नसें तन गयी, दोनो मुट्ठियाँ बँध गयी। उन्मत्त होकर बोली- बड़ा दगाबाज आदमी हैं। इसने मुझे बड़ा धोखा दिया। मुझसे इसने कहा था, मेरी स्त्री मर गयी हैं। कितना बड़ी घूर्त हैं। यह पागल नही हैं। इसने पागलपन का स्वाँग भरा हैं। मैं अदालत से इसकी सजा कराऊँगी।
क्रोधावेश के कारण वह काँप उठी। फिर रोती हुई बोली- इस दगाबाजी का मैं इसे मजा चखाऊँगी। आह! इसने मेरा घोर अपमान किया हैं ! ऐसा विश्वासघात करनेवाले को जो दंड दिया जाय, वह थोडा हैं! इसने कैसी मीठी-मीठी बाते करके मुझे फाँसा। मैंने ही इसे जगह दिलायी, मेरे ही प्रयत्नों से यह बड़ा आदमी बना। इसके लिए मैने अपना घर छोड़ा, अपना देश छो़ड़ा औऱ इसने मेरे साथ कपट किया।
जेनी सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी। फिर तैश में उठी और मनहर के पास जाकर उसको अपनी ओर खीचती हुई बोली- मैं तुम्हे खराब करके छोडूँगी। तूने मुझे समझा क्या हैं…
मनहर इस तरह शान्त भाव से खड़ा रहा, मानो कोई प्रयोजन नही हैं।
फिर वह सिहनी की भाँति मनहर पर टूट पड़ी और उसे जमीन पर गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। वागेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर अलग कर दिया और बोली- तुम ऐसी डायन न होती, तो उनकी यह दशा क्यों होती?
जेनी ने तैश में आकर जेब से पिस्तौल निकाली और वागेश्वरी की तरफ बढ़ी। सहसा मनहर तडपकर उठा, उसके हाथ से भरा हुआ पिस्तौल छीनकर फेक दिया और वागेश्वरी के सामने खड़ा हो गया। फिर ऐसा मुँह बना लिया, मानो कुछ हुआ ही नही।
उसी वक़्त मनहर की माता दोपहरी की नींद सोकर उठीं और जेनी को देखकर वागेश्वरी की ओर प्रश्न की आँखों से ताका।
वागेश्वरी ने उपहास के भाव से कहा- यह आपकी बहु हैं।
बुढिया तिनककर बोली- कैसी मेरी बहू? यह मेरी बहू बनने जोग है बँदरिया? लड़के पर न जाने क्या कर-करा दिया, अब छाती पर मूँग दलने आयी हैं?
जेनी एक क्षण तक खून-भरी आँखों से मनहर की ओर देखती रही । फिर बिजली की भाँति कौधकर उसने आँगन में पड़ा हुआ पिस्तौल उठा लिया और वागेश्वरी पर छोड़ना चाहती थी कि मनहर सामने आ गया। उसके हाथ से पिस्तौल छील लिया और अपनी छाती में गोली मार ली।