मोटर के छींटे - मुंशी प्रेमचंद | Motor ke Chhinte by Munshi Premchand
मानसरोवर भाग - 2
मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
मोटर के छींटे, मानसरोवर भाग - 2 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 2 की अन्य कहानियाँ
1
क्या नाम कि प्रातःकाल स्थान-पूजा से निपट, तिलक लगा, पीताम्बर पहन, खड़ाऊँ पाँव में डाल, बगल में पत्रा दबा, हाथ में मोटा-सा शत्रु-मरतक-भंजन ले एक जजमान के घर चला। विवाह ती साइत विचारनी थी। कम-से-कम एक कलदार का डौल था। और मेरा जलपान मामूली जलपान नहीं हैं। बाबूओं को तो मुझे निमंत्रित करने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। उनका महीने-भर का नाश्ता मेरा एक दिन का जलपान हैं। इस विषय में तो हम अपने सेठो-साहूकरों के कायल हैं ऐसा खिलाते हैं ऐसा खिलाते हैं और इतने खुले मन से कि चोला आनन्दित हो उठता हैं। जजमान का दिल देखकर ही मैं उनका निमन्त्रण स्वीकार करता हूँ। खिलाते समय किसी ने रोनी सूरत बनायी और मेरी क्षुधा गायब हुई। रोकर किसी ने खिलाया तो क्या? ऐसा भोजन कम-से-कम मुझे तो नहीं पचता। जजमान ऐसा चाहिए कि ललकारता जाय – लो शास्त्री जी, एक बालूशाही और मैं कहता जाऊँ – नहीं जजमान अब नहीं!
रात खूब बर्षा हुई थी, सड़क पर जगह-जगह पानी जमा था। मैं अपने विचारों में मगन चला जाता था कि एक मोटर छप-छप करती हुई निकल गयी। मुँह पर छींटे पड़े। जो देखता हूँ, तो धोती पर मानो किसी ने कीचड़ घोलकर डाल दिया हो। कपड़े भ्रष्ट हुए, वह अलग, देह भ्रष्ट हुई, वह अलग, आर्थिक क्षति जो हुई, वह अलग। अगर मोटर वालो को पकड़ पाता, तो ऐसी मरम्मत करता कि वे भी याद करते। मन मसोसकर रह गया। इस वेश में जजमान के घर तो जा नहीं सकता था, अपना घर भी मील-भर से कम न था। फिर आने-जाने वाले सब मेरी ओर देख-देख कर तालियाँ बजा रहे थे। ऐसी दुर्गति मेरी कभी नहीं हुई थी। अब क्या करोगे मन? घर जाओगे, तो पंडिताइन क्या कहेगी?
मैने चटपट अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लिया। इधर-उधर से दस-बारह पत्थर के टुकड़े बटोरे लिये और दूसरी मोटर की राह देखने लगा। ब्रह्मतेज सिर पर चढ़ बैठा! अभी दस मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक मोटर आती हुई दिखायी दी! ओहो वही मोटर थी। शायद स्वामी को स्टेशन से लेकर लौट रही थी। ज्योंहि समीप आयी, मैने एक पत्थर चलाया, भरपूर जोर लगाकर चलाया। साहब की टोपी उड़कर सड़क के उस बाजू पर गिरी। मोटर की चाल धीमी हुई। मैने दूसरा फेर किया। खिड़की के शीशे चूर -चर हो गये और एक टुकड़ा साहब बहादुर के गाल में भी लगा। खून बहने लगा। मोटर रूकी और साहब उतरकर मेरी तरफ आये और घूँसा तानकर बोले- सूअर हम तुमको पुलिस में देगा। इतना सुनना था कि मैंने पोथी-पत्रा जमीन पर फेंका और साहब की कमर पकड़कर अगंजी लगायी, तो कीचड़ में भद-से गिरे। मैंने चट सवारी गाँठी और गरदन पर एक पचीस रद्दे ताबड़तोड़ जमाये कि साहब चौधिया गये। इतने में उनकी पत्नी उतर आयी। ऊँची एड़ी का जूता, रेशमी साड़ी गालों पर पाउडर ओठों पर रंग भवों पर स्याही, मुझे छाते से गोदने लगी। मैने साहब को छोड़ दिया औऱ डंडा सम्भालता हुआ बोला- देवीजी, आप मरदों के बीच में न पड़े, कहीं चोट-चपेट आ जाय, तो मुझे दु:ख होगा।
साहब ने अवसर पाया, तो सम्हलकर उठे और अपने बूटदार पैरों से मुझे एक ठोकर जमायी। मेरे घुटने में बड़ी चोट लगी। मैने बौखलाकर डंडा उठा लिया। और साहब के पाँव में जमा दिया। वह कटे पेड़ की तरह गिरे। मेम साहब छतरी तानकर दौड़ी। मैने धीरे से उनकी छतरी छीनकर फेंक दी। ड्राइवर अभी तक बैठा था। अब वह भी उतरा और छड़ी लेकर मुझ पर पिल पड़ा। मैने एक डंडा उसके भी जमाया, लोट गया। पचासों आदमी तमाशा देखने जमा हो गए। साहब भूमि पर पड़े-पड़े बोले- रेस्केल, हम तुमको पुलिस में देगा।
मोटर के छींटे - मुंशी प्रेमचंद | Motor ke Chhinte by Munshi Premchand |
2
मैने फिर डंडा सँभाला और चाहता था कि खोपड़ी पर जमाऊँ कि साहब ने हाथ जोड़कर कहा- नहीं-नहीं, बाबा, हम पुलिस में नहीं जायगा, माफी दो।
मैने कहा- हाँ, पुलिस का नाम न लेना, नहीं तो यहीं खोपड़ी रंग दूँगा। बहुत होगा छः महीने की सजा हो जायगी, मगर तुम्हारी आदत छुड़ा दूँगा। मोटर चलाते हो, तो छींटे उड़ाते चलते हो, मारे घमंड के अन्धे हो जाते हो। सामने या बगल में कौन जा रहा हैं, इसका कुछ ध्यान नहीं रखते।
एक दर्शक नें आलोचना की- अरे महाराज, मोटरवाले जान-बूझ कर छींटे उड़ाते हैं और जब आदमी लथपथ हो जाता हैं, तो सब उसका तमाशा देखते हैं और खूब हँसते हैं। आपने बड़ा अच्छा किया, कि एक को ठीक कर दिया।
मैने साहब को ललकार कर कहा- सुनता हैं कुछ, जनता क्या कहती हैं। साहब ने उस आदमी की ओर लाल-लाल आँखों से देखकर कहा- तुम झूठ बोलता हैं, बिल्कुल झूठ बोलता हैं।
मैने डाँटा- अभी तुम्हारी हेकड़ी कम नहीं हुई, आऊँ फिर और दूँ एक सोटा कसके?
साहब ने घिघियाकर कहा- अरे नहीं बाबा, सच बोलता हैं, सच बोलता हैं। अब तो खुश हुआ।
दूसरा दर्शक बोला- अभी जो चाहे कह दें, लेकिन ज्योंही गाड़ी पर बैठे, फिर वही हरकत शुरू कर देंगे। गाड़ी पर बैठते ही सब अपने को नवाब का नाती समझने लगते हैं।
दूसरे महाशय बोले- इससे कहिए थूककर चाटे।
तीसरे सज्जन ने कहा- नहीं, कान पकड़कर उठाइए-बैठाइए।
चौथा बोला- अरे, ड्राइवर को भी। ये सब बदमाश होते हैं। मालदार आदमी घमंड करे, तो एक बात हैं, तुम किस बात पर अकड़ते हो। चक्कर हाथ में लिया और आँखों पर परदा पड़ा।
मैने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। ड्राइवर और मालिक दोनों ही का कान पकड़कर उठाना-बैठाना चाहिए और मेम साहब गिने। सुना मेम साहब, तुमको गिनना होगा। पूरी सौ बैठकें। एक भी नहीं, ज्यादा जितनी चाहें, हो जायँ।
दो आदमियों ने साहब का हाथ पकड़कर उठाया, दो ने ड्राइवर-महोदय का। ड्राइवर बेचारे की टाँग में चोट थी, फिर भी बैठके लगा। साहब की अकड़ अभी काफी थी। आप लेट गये और ऊल-जलूल बकने लगे। मैं उस समय रुद्र बना हुआ था। दिन में ठान लिया था कि इससे बिना सौ बैठकें लगवाये न छोडूँगा। चार आदमियों को हुक्म दिया कि गा़ड़ी को ढकेलकर सड़क ले नीचे गिरा दो।
हुक्म की देरी थी। चार की जगह पचास आदमी लिपट गये और गाड़ी को ढकेलने लगे। वह सड़क बहुत ऊँची थी। दोनों तरफ की जमीन नीची। गाड़ी नीचे गिरती तो टूट -टाटकर ढेर हो जाती। गाड़ी सड़क के किनारे तक पहुँच चुकी थी, कि साहब काँखकर उठ खड़े हुए और बोले- बाबा, गा़ड़ी को मत तोड़ो, हम उठे-बैठेगा।
मैने आदमियों को अलग हट जाने का हुक्म दिया; मगर सबों को एक दिल्लगी मिल गयी थी। किसी ने मेरी तरफ ध्यान न दिया। लेकिन जब मैं डंडा लेकर उनकी ओर दौड़ा तब सब गाड़ी छोड़कर भागे और साहब ने आँखे बन्द करके बैठके लगानी शुरू की।
मैने दस बैठकों के बाद मेम साहब से पूछा- कितनी बैठकें हुई?
मेम साहब ने कहा- हम नही गिनता।
‘तो इस तरह साहब दिन-भर काँखते रहेंगे और मैं न छोडूँगा। अगर उनको कुशल से घर ले जाना चाहती हो, तो बैठकें गिन दो। मैं उनको रिहा कर दूँगा।’
साहब ने देखा कि बिना दंड भोगे जान न बचेगी. तो बैठकें लगाने लगे। एक, दो, तीन, चार, पाँच….
3
सहसा एक दूसरी मोटर आती दिखायी दी। साहब ने देखा और नाक रगड़कर बोले- पंडितजी, आप मेरा बाप हैं। मुझ पर दया करो, अब हम कभी मोटर पर न बैठेगे। मुझे भी दया आ गयी। बोला- मोटर पर बैठने से नहीं रोकता, इतना ही कहता हूँ कि मोटर पर बैठ कर भी आदमियों को आदमी समझो।
दूसरी गाड़ी तेज चली आती थी। मैने इशारा किया। सब आदमियों ने दो-दो पत्थर उठा लिये। उस गाड़ी का मालिक स्वयं ड्राइव कर रहा था। गाड़ी धीमी करके धीरे से सरक जाना चाहता था कि मैने बढ़कर उसके दोनों कान पकड़े और खूब जोर से हिलाकर और दोनों गालों पर एक-एक पड़ाका देकर बोला- गाड़ी से छींटा न उड़ाया करो, समझे। चुपके से चले जाओ।
यह महाशय तो झक-झक तो करते रहे; मगर एक सौ आदमियों को पत्थर लिये खड़ा देखा, तो बिना कान-पूँछ डुलाये चलते हुए।
उनके जाने के एक मिनट बाद दूसरी गाड़ी आयी। मैने 50 आदमियों को राह रोक लेने का हुक्म दिया। गाड़ी रूक गयी। मैने उन्हें भी चार पड़ाके देकर विदा किया; मगर बेचारे भले आदमी थे। मजे से चाटें खाकर चलते हुए।
सहसा एक आदमी ने कहा- पुलिस आ रही हैं।
और सब-के-सब हुर्र हो गये। मैं भी सड़क के नीचे उतर गया और एक गली में घुस कर गायब हो गया।