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सुभागी (Subhagi) by Munshi Premchand

सुभागी (Subhagi by Premchand) मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी हैं। Read Subhagi Story by Munshi Premchand in Hindi and Download PDF.
सुभागी (Subhagi by Munshi Premchand), मानसरोवर भाग - 1 की कहानी हैं। यहाँ पढ़े Hindi Story मुंशी प्रेमचंद की सुभागी। सुभागी का अर्थ होता है "अच्छी किस्मत वाली"।

सुभागी - मुंशी प्रेमचंद | Subhagi by Munshi Premchand

मानसरोवर भाग - 1

मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।

सुभागी, मानसरोवर भाग - 1 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 1 की अन्य कहानियाँ

और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से जौ-भर भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी कुछ काठ का उल्लू था। सुभागी ग्यारह साल की बालिका होकर भी घर के काम में इतनी चतुर और खेती-बारी के काम में इतनी निपुण थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बालकों से भगवान् को भी तो प्रेम हैं। कोई सुभागी का बखान करे इसलिए अनायास ही उसे, डाँटती रहती थी। बखान से बच्चे बिगड़ जाते हैं, यह भय तो न थी, भय था- नजर का! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्र में विधवा हो गयी।

घर में कुहराम मचा हुआ था। लक्ष्मी पछाड़ खाती थी। तुलसी सिर पीटते थे। उन्हें देख, सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती- क्यों रोती हो अम्माँ, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यो रोती हो? उसकी भोली बाते सुनकर माता का दिल और भी फटा जाता था। वह सोचती थी- ईश्वर, तुम्हारी यही लीला हैं! जो खेल खेलते हो, वह को दुःख देकर ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे, तो उसे पागलखाने में भेजते हैं; मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसका कोई दंड़ नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोये और तुम हँसो। तुम्हें लोग दयालु कहते हैं। यही तुम्हारी दया हैं?

और सुभागी क्या सोच रही थी उसके पास कोठरी-भर रुपये होते तो वह उन्हें?, छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके से बाजार चलीं जाती और अम्माँ के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाती; दादा, जब बाकी माँगने आते, तो चट रुपये निकालकर दे देती अम्माँ-दादा कितने खुश होते!,

जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर दबाव डालने लगे कि लड़की का कहीं घर कर दो। जवान लड़की का यो फिरना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई निन्दा नहीं हैं, तो क्यों सोच-विचार करते हो?

तुलसी ने कहा- ‘भाई, मैं तो तैयार हूँ; लेकिन जब सुभागी भी माने। यह तो किसी तरह राजी नहीं होती।’

हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा- ‘बेटी, हम तेरे ही भले की कहते हैं। माँ-बाप अब बूढे हुए, उनका क्या भरोसा? तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी?’

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा- ‘चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँस लेकिन मेरा मन घर करने को नहीं कहता। मुझे आराम की चिन्ता नहीं हैं। मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह सिर आँखों के बल करूँगी; मगर घर बसाने की मुझसे न कहो। जब मेरी चाल- कुचाल देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर सच्चे बाप की बेटी हूँगी, तो बात की भी पक्की हूँगी । फिर लज्जा रखनेवाले भगवान् हैं, मेरी क्या हस्ती हैं कि अभी कुछ कहूँ ।’

उजड्‌ड राम बोला- ‘तुम अगर सोचती हो कि भैया कमाएँगे और मैं बैठी मौज करूँगी, तो इस भरोसे न रहना। यहाँ किसी ने जन्म-भर का ठेका नहीं लिया हैं!’

रामू की दुल्हन रामू से भी दो अँगुल ऊँची थी। मटककर बोली- हमने किसी का कर्ज थोड़े ही खाया हैं कि जन्म-भर बैठे भरा करें। यहाँ तो खाने को भी महीन चाहिए, पहनने को भी महीन चाहिए, यह हमारे बूते की बात नहीं हैं।

सुभागी - मुंशी प्रेमचंद | Subhagi by Munshi Premchand
सुभागी - मुंशी प्रेमचंद | Subhagi by Munshi Premchand

सुभागी ने गर्व से भरे हुए स्वर में कहा- भाभी, मैंने तो तुम्हारा आसरा भी नहीं किया और भगवान ने चाहा तो कभी करूँगी भी नहीं। तुम अपनी देखो, मेरी चिन्ता न करो।

रामू की दुल्हन को जब मालूम हो गया कि सुभागी घर न करेगी, तो और भी उसके सिर हो गयी। हमेशा एक-न-एक खुचड़ लगाए रहती। उसे रुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह बेचारी पहर रात से उठकर कूटने-पीसने में लग जाती, चौका-बरतन करती, गोबर पाथती, फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात में कभी माँ के सिर में तेल डालती, कभी उसकी देह दबाती। तुलसी चिलम के भक्त थे। उन्हें बार-बार चिलम पिलाती। जहाँ तक बस चलता, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती यह तो जवान आदमी हैं यह न काम करेंगे तो गृहस्थी कैसे चलेगी।

मगर रामू को यह बुरा लगता। अम्माँ और दादा को तिनका कर नहीं उठाने देती और मुझे पीसना चाहती हैं। यहाँ तक कि एक दिन वह जामे से बाहर हो गया। सुभागी से बोला- अगर उन लोगों का बड़ा मोह है, तो क्यों नही अलग लेकर रहती हो। तब सेवा करो तो मालूम हो कि सेवा कड़वी लगती हैं कि मीठी। दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान हैं। बहादुर वह हैं, जो अपने बल पर काम करे।

सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मगर उसके माँ- बाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले- क्या हैं रामू, उस गरीबन से क्यों लड़ते हो?

रामू पास आकर बोला- तुम बीच में क्यों कूद पड़े, मैं तो उसको कहता था।

तुलसी- जब तक मैं जीता हूँ , तुम उसे कुछ नही कह सकते। मेरे पीछे जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया।

रामू- आपको बेटी बहुत प्यारी हैं, तो उसे गले बाँधकर रखिए। मुझसे तो सहा नही जाता।

तुलसी- अच्छी बात हैं। अगर तुम्हारी यही मरजी हैं, तो यहीं होगा। मैं कल गाँव के आदमियों को बुलाकर बँटवारा कर दूगा। तुम चाहे छूट जावो, सुभागी नही छूट सकती।

रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आयी, जब रामू के जन्मोत्सव में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था, और सुभागी पैदा हुई, तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी न खर्च की। पुत्र को रत्न समझा था पुत्री को पूर्व जन्म के पापों का दंड। वह रत्न कितना कठोर निकला और वह दंड कितना मगलमय।

दूसरे दिन महतो में गाँव के आदमियों का जमा करके कहा- पंचो, अब रामू को और मेरा एक में निबाह नही होता। मै चाहता हूँ कि तुम लोग इन्साफ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की किचकिच अच्छी नही हैं।

गाँव के मुख्तार बाबू सजनसिंह बड़े सज्जन पुरुष थे। उन्होंने रामू को बुलाकर कहा- क्यों जी, तुम अपने माँ-बाप से अलग रहना चाहते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती कि औरत के कहने से माँ-बाप को अलग किये देते हो? राम! राम!

रामू ने ठिठाई के साथ कहा- जब एक में न गुजर हो, तो अलग हो जाता ही अच्छा हैं।

सजनसिंह तुमको एक में क्या कष्ट होता हैं?

रामू- एक बात हो तो बताऊँ।

सजनसिंह कुछ तो बताओ।

रामू- साहब एक में मेरा इनके साथ निबाह न होगा। बस मैं और कुछ नहीं जानता।

यह कहता हुआ रामू वहाँ से चलता बना।

तुलसी- देख लिया आप लोगों ने इसका मिजाज! आप चाहे चार हिस्सों में तीन हिस्से उसे दे दें, पर अब मैं इस दुष्ट के साथ न रहूँगा। भगवान् ने बेटी को दुःख दे दिया, नही, मुझे खेती-बारी लेकर क्या करना था। जहाँ रहता, वहीं कमाता खाता! भगवान् ऐसा बेटा सातवें बैरी को भी न दे। ‘लड़के से लड़की भली, जो कुलवन्ती होय।’

सहसा सुभागी आकर बोली- दादा, यह सब बाँट-बखरा मेरे ही कारण तो हो रहा हैं, मुझे क्यों नही अलग कर देते? मैं मेहनत- मजूरी करके अपना पेट पाल लूँगी। अपने से जो कुछ बन पड़ेगा तुम्हारी सेवा करती रहूँगी, पर रहूँगी अलग। यों घर, का बारा-बाँट होना मुझसे नही देखा जाता। मैं अपने माथे पर यह कलंक नही लेना चाहती।

तुलसी ने कहा- बेटी, हम तुझे न छोड़ेगो, चाहे संसार छूट जाय! रामू का मैं मुँह नहीं देखना चाहता, उसके साथ तो रहना दूर रहा।

रामू की दुल्हन बोली- तुम किसी का मुँह नहीं देखना चाहते तो हम भी तुम्हारी, पूजा करने को व्याकुल नही हैं।

महतो दाँत पीसते हुए उठे कि बहू को मारे मगर लोगों ने पकड़ लिया।

बँटबारा होते ही महतो और लक्ष्मी को मानो पेंशन मिल गयी। पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी कुछ -न-कुछ कहते ही रहते थे; पर अब उन्हें पूरा विश्राम था। पहले दोनों दूध -धी को तरसते थे। अब सुभागी ने कुछ पैसे बचाकर एक भैस ले ली। बूढ़े आदमियों की जान तो उनका भोजन हैं। अच्छा भोजन न मिले, तो वे किसके आधार पर रहें। चौधरी ने बहुत विरोध किया। कहने, घर का काम यों ही क्या कम हैं कि तू नया झंझट पाल रही हैं। सुभागी उन्हें बहलाने के लिए कहती- दादा, मुझे दूध के बिना खाना नहीं अच्छा लगता।

लक्ष्मी ने हँसकर कहा- बेटी, तू झूठ कब से बोलने लगी? कभी दूध हाथ से तो छूती नहीं, खाने की कौन कहे। सारा दूध हम लोगो के पेट मे ठूँस देती हैं।

गाँव में जहाँ देखो, सबके मुँह से सुभागी की तारीफ। लड़की नही, देवी हैं, दो मरदों का काम करती हैं, उस पर भी माँ-बाप की सेवा भी किये जाती हैं। सजनसिंह तो कहते यह उस जन्म की देवी हैं।

मगर शायद महतो को यह सुख बहूत दिन तक भोगना न लिखा था।

सात-आठ दिन से महतो को जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। देह पर कपड़ो का तार भी नही रहने देते। लक्ष्मी पास बैठी रो रही हैं। सुभागी पानी लिये खड़ी हैं। अभी एक क्षण पहले महतो ने पानी माँगा था; पर जब तक वह पानी लाये, उनका जी डूब गया और हाथ-पाँव ठंड़े हो गये। सुभागी उनकी यह दशा देखते ही रामू के घर गयी और बोली- भैया, चलो देखो, आज दादा न जाने कैसे हुए जाते हैं। सात दिन से ज्वर नहीं उतरा।

रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा- तो क्या मैं डॉक्टर-हकीम हूँ कि देखने चलूँ? जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उसके गले की हार बनी हुई थी। अब जब मरने लगे तो मुझे बुलाने आयी हो!

उसी वक़्त उसकी दुल्हन अन्दर से निकल आयी और सुभागी से पूछा- दादा को क्या हुआ दीदी?

सुभागी के पहले रामू बोल उठा- हुआ क्या हैं, अभी कोई मरे थोड़े ही जाते हैं।

सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा सीधे सजनसिंह के पास गयी। उसके जाने के बाद रामू हँसकर स्त्री से बोला- त्रियाचरित्र इसी को कहते हैं।

स्त्री- इसमें त्रियाचरित्र की कौन-सी बात हैं? चले क्यों नहीं जाते

रामू- मैं नही जाने का। जैसे उसे लेकर अलग हुए थे, वैसे उसे लेकर रहे। मर भी जाएँ तो न जाऊँ।

स्त्री-(हँसकर) मर जायेंगे तो आग देने तो जाओगे, तब कहाँ भागोगे?

रामू- कभी नही। सब-कुछ उनकी प्यारी सुभागी कर लेगी।

स्त्री- तुम्हारे रहते वह क्यों करने लगी।

रामू- जैसे मेरे रहते उसे लेकर अलग हुए, और कैसे।

स्त्री- नहीं जी, यह अच्छी बात नही हैं। चलो, देख आयें। कुछ भी हो, बाप ही तो हैं। फिर गाँव में कौन-सा मुँह दिखाओगे?

रामू- चुप रहो, मझे उपदेश मत दो।

उधर बाबू साहब ने ज्यों ही महतो का हालत सुनी, तुरन्त सुभागी के साथ चले आये। यहाँ पहुँते तो महतो की दशा और भी खराब हो चुकी थी। नाड़ी देखी, तो बहुत धीमी थी। समझ गये कि जिन्दगी के दिन पूरे हो गये। मौत का आतंक छाया हुआ था। सजल नेत्र होकर बोले- महतो भाई, कैसा जी हैं?

महतो जैसे नींद से जागकर बोले- बहुत अच्छा हैं भैया! अब तो चलने की बेला हैं। सुभागी के पिता अब तुम्हीं हो। उसे तुम्हीं को सौपे जाता हूँ ।

सजनसिंह रोते हुए बोले- भैया महतो, घबड़ाओ मत! भगवान् ने चाहा तो तुम अच्छे हो जाओगे। सुभागी को तो मैंने हमेशा अपनी बेटी समझा हैं और जब तक जिऊँगा, ऐसा ही समझता रहूँगा। तुम निश्चिंत रहो मेरे होते सुभागी या लक्ष्मी को कोई तिरछी आँख से न देखेगा। और इच्छा हो, तो वह भी कह दो। महतो ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा- और कुछ नहीं कहूँगा भैया! भगवान् तुम्हें सदा सुखी रखे।

सजनसिंह रामू को बुलाकर लाता हूँ। उससे जो भूल -चूक हुई हो, क्षमा कर दो।

महतो- नहीं भैया। उस पापी हत्यारे का मुँह मैं नहीं देखना चाहता। इसके बाद गोदान की तैयारियाँ होने लगी।

रामू को गाँव-भर में समझाया पर वह अन्तेष्टि करने पर राजी न हुआ। कहा-जिस पिता ने मरते समय भी मेरा मुँह देखना स्वीकार किया, न वह मेरा पिता हैं, न मैं उसका पुत्र ।

लक्ष्मी ने दाह-क्रिया की। इन थोड़े से दिनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा कर लिये थे कि जब तेरहवीं का सामान आने लगा, तो गाँववालों की आँखे खुल गयी। बरतन, कपड़े, घी, शक्कर, सभी सामान इफरात से जमा हो गये। रामू देख- देखकर जलता था और सुभागी उसे जलाने के लिए सबको यह सामान दिखाती थी।

लक्ष्मी ने कहा- बेटी घर देखकर खर्च करो। अब कोई कमानेवाला नहीं बैठा हैं। आप ही कुआ खोदना और पानी पीना हैं।

सुभागी बोली- बाबूजी का काम तो धूम -धाम से ही होगा अम्माँ, चाहे घर रहे या जाय। बाबूजी फिर थोड़े ही आयेगे। मैं भैया को दिखा देना चाहती हूँ कि अबला क्या कर सकती हैं! वह समझते होंगे, इन दोनो के किये कुछ न होगा। उनका घमंड़ तोड़ दूँगी।

लक्ष्मी चुप हो गयी। तेरहवीं के दिन आठ गाँव के ब्राह्मणों का भोज हुआ। चारो तरफ वाह-वाह मच गयी।

पिछने पहर का समय था; लोग भोजन करके चले गये थे। लक्ष्मी थककर सो गयी थी। केवल सुभागी बची हुई चीजें उठा-उठाकर रही थी कि ठाकुर सजनसिंह ने आकर कहा- अब तुम भी आराम करो बेटी। सवेरे यह सब ठीक कर लेना।

सुभागी ने कहा- अभी थकी नहीं हूँ दादा! आपने जोड़ लिया, कुल कितने रुपये उठे?

सजनसिंह यह पूछकर क्या करोगी बेटी?

‘कुछ नहीं, यों ही पूछती थी। ’

‘‘कोई तीन सौ रुपये उठे होंगे।’

सुभागी ने सकुचात हुए कहा- मै इन रुपयों की देनदार हूँ।

‘ तुमसे तो मैं माँगता नहीं। महतो मेरे मित्र और भाई थे। उनके साथ कुछ मेरा तो भी धर्म हैं।’

‘आपकी यही दया क्या कम हैं कि आपने मेरे ऊपर इतना विश्वास किया, मुझे कौन 300 रुपये दे देता।’

सजनसिंह सोचने लगा, इस अबला की धर्म-बुद्धि का कहीं वारपार भी हैं या नहीं।

लक्ष्मी उन स्त्रियों में थी, जिनके लिए पति-वियोग जीवन-स्रोत का बन्द हो जाना हैं। पचास वर्ष के चिर सहवास के बाद अब यह एकान्त जीवन उसके लिए पहाड़ हो गया। उसे अब ज्ञात हुआ कि मेरी बुद्धि, मेरा बल, मेरी स्मृति, मानो सबसे मैं वंचित हो गयी।

उसने कितनी बार ईश्वर से विनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना; मगर उसने यह विनती स्वीकार न की। मौत पर अपना काबू नहीं, तो जीवन पर भी काबू नहीं हैं?

वह लक्ष्मी, जो गाँव में अपनी बुद्धि के लिए मशहुर थी, जो दूसरों को सीख दिया करती थी, अब बौरही हो गयी हैं। सीधी-सी बात करते नहीं बनती।

लक्ष्मी का दाना-पानी उसी दिन से छूट गया। सुभागी के आग्रह पर चौके मे जाती ; मगर कौर कंठ के नीचे न उतरता। पचास वर्ष हुए, एक दिन भी ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाये उसने खुद खाया हो। अब उस नियम को कैसे तोडे?

आखिर उसे खाँसी आने लगी। दुर्बलता ने जल्द ही खाट पर डाल दिया। सुभागी अब क्या करे! ठाकुर साहब के रुपये चुकाने के लिए दिलोजान से काम करने की जरूरत थी। यहाँ माँ बीमार पड़ गयी। अगर बाहर जाय, तो माँ अकेली रहती हैं। उसके पास बैठे, तो बाहर का काम कौन करे? माँ की दशा देखकर सुभागी समझ गयी कि इनका परवाना भी आ पहुँचा। महतों को भी तो यही ज्वर था!

गाँव में और किस फुरसत थी कि दौड-धूप करता। सजनसिंह दोनों वक़्त आते, लक्ष्मी को देखते, दवा पिलाते, सुभागी को समझाते और चले जाते; मगर लक्ष्मी का दशा बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक की पन्द्रहवें दिन वह भी संसार से सिधार गयी। अन्तिम समय रामू आया और उसके पैर छूना चाहता था; पर लक्ष्मी ने उसे ऐसी झिझकी दी कि वह उसके समीप न जा सका। सुभागी को उसने आशीर्वाद दिया- तुम्हारी जैसी बेटी पाकर तर गयी। मेरा क्रिया-कर्म तुम्हीं करना। मेरी भगवान् से यही अरजी हैं कि उस जन्म में भी तुम मेरी कोख पवित्र करो।

माता के देहान्त के बाद सुभागी के जीवन का केवल एक लक्ष्य रह गया- सजनसिंह के रुपये चुकाना। 300 रुपये पिता के क्रिया-कर्म में लगे थे। लगभग 200 रुपये माता के काम में लगे। 500 रुपये का ऋण था और उसकी जान! मगर वह हिम्मत न हारती थी। तीन साल तक सुभागी ने रात-को-रात और दिन-को- दिन न समझा। उसकी कार्य-शक्ति और पौरुष देखकर लोग दाँतो तले उँगली दबात थे। दिन-भर खेती-बारी का काम करने के बाद वह रात को चार-चार पसेरी आटा पीस डालती। तीसवे दिन 15 रुपये लेकर वह सजनसिंह के पास पहुँच जाती। इनमें कभी नागा न पड़ता। यह मानो प्रकृति का अटल नियम था।

अब चारों ओर से सगाई के पैगाम आने लगे। सभी उसके लिए मुँह फैलाये हुए थे। जिसके घर सुभागी जायेगी, उसके भाग्य फिर जायेंगे। सुभागी यही जवाब देती- अभी वह दिन नहीं आया।

जिस दिन सुभागी ने आखिरी किश्त चुकायी, उस दिन उसकी खुशी का ठिकाना न था। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा हो गया।

वह चलने लगी तो सजनसिंह ने कहा- बेटी, तुमसे मेरी एक प्रार्थना हैं, कहो कहूँ, कहो न कहूँ, मगर वचन दो कि मानोगी।

सुभागी ने कृतज्ञ भाव से देखकर कहा दादा, आपकी बात न मानूँगी तो किसकी बात मानूँगी? मेरा रोयाँ-रोयाँ आपका गुलाम हैं।

सजनसिंह अगर तुम्हारे मन में यह भाव हैं, तो मैं न कहूँगा। अब तक तुमसे इसलिए नही कहा कि तुम अपने को देनदार समझ रही थी। अब रुपये चुक गये। मेरा तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नही हैं, रत्ती भर भी नही। बोलो कहूँ?

सुभागी- आपकी जो आज्ञा हो।

सजनसिंह देखो इनकार न करना नहीं मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखाऊँगा

सुभागी- क्या आज्ञा हैं?

सजनसिंह मेरी इच्छा है कि तुम मेरी बहू बनकर मेरे घर को पवित्र करो। मैं जाँत-पाँत का कायल हूँ , मगर तुमने मेरे सारे बन्धन तोड़ दिए। मेरा लड़का तुम्हारे नाम का पुजारी हैं। तुमने उसे बारहा देखा। बोलो, मंजूर करती हो?

सुभागी- दादा, इतना सम्मान पाकर पागल हो जाऊँगी ।

सजनसिंह तुम्हारा सम्मान भगवान् कर रहे हैं। तुम साक्षात् भगवती का अवतार हो।

सुभागी- मैं तो आपको अपना पिता समझती हूँ। आप जो कुछ करेंगे, मेरे भले के लिए करेंगें! आपके हुक्म को कैसे इनकार कर सकती हूँ।

सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा- बेटी, तुम्हारा सुहाग अमर हो। तुमने मेरी बात रख ली। मुझ -सा भाग्यशाली संसार में औऱ कौन होगा।

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