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गिला (Gila) by Munshi Premchand

गिला (Gila by Premchand) मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी हैं। Read Gila Story by Munshi Premchand in Hindi and Download PDF.
गिला (Gila by Munshi Premchand), मानसरोवर भाग - 1 की कहानी हैं। यहाँ पढ़े Hindi Story मुंशी प्रेमचंद की गिला। गिला का अर्थ होता है "अफ़सोस" या "पछताना"।

गिला - मुंशी प्रेमचंद | Gila by Munshi Premchand

मानसरोवर भाग - 1

मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।

गिला, मानसरोवर भाग - 1 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 1 की अन्य कहानियाँ

जीवन का बड़ा भाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब हुआ। मेरे पति संसार की दृष्टि में बड़े सज्जन, बड़े शिष्ट, बड़े उदार, बड़े सौम्य होंगे, लेकिन जिस पर गुजरती हैं, वही जानता हैं। संसार को तो उन लोगों की प्रशंसा करने में आनन्द आता हैं, जो अपने घर को भाड़ में झोंक रहे हों गैरों के पीछे अपना सर्वनाश किये डालते हों। जो प्राणी घरवालों के लिए मरता हैं, उसकी प्रशंसा संसारवाले नहीं करते। वह तो उनकी दृष्टि में स्वार्थी हैं, कृपण हैं, संकीर्ण हृदय हैं, आचार-भ्रष्ट हैं। इसी तरह जो लोग बाहरवालों के लिए मरते हैं, उनकी प्रशंसा घरवाले क्यों करने लगे! अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मुझे जलाया करते हैं। मैं परदा नहीं करती, लेकिन सौदे-सुलफ के लिए बाजार जाना बुरा मालूम होता हैं। और इनका यह हाल हैं कि चीज मँगवाओ, तो ऐसी दूकान से लायेंगे, जहाँ कोई ग्राहक भूलकर भी न जाता हो। ऐसी दूकानों पर न तो चीज अच्छी मिलती हैं, न तौल ठीक होती हैं, न दाम ही उचित होते हैं। यह दोष न होते, तो दूकान बदनाम ही क्यों होती, पर इन्हें ऐसी ही गयी-बीती दूकानों से चीजें लाने का मरज़ हैं। बार-बार कह दिया, साहब किसी चलती हुई दूकान से सौदे लाया करो। वहाँ माल अधिक खपता हैं, इसलिए ताजा माल आता हैं, पर इनकी तो टुटपूँजियों से बनती हैं, और वे इन्हें उलटे छूरे से मुँडते हैं। गेहूँ लायेंगे, तो सारे बाजार से खराब, घुना हुआ, चावल ऐसा मोटा कि बैल भी न पूछे, दाल में कराई और कंकड़ भरे हुए मनों लकड़ी जला डालो, क्या मजाल कि गले। घी लायेंगे, तो आधों-आध तेल या सोलहों आने कोकोजेम और दरअसल घी भी एक छटाँक कम! तेल लायेंगे तो मिलावट, बालों में डालो तो चिपट जायें, पर दाम दे आयेंगे शुद्ध आँवले के तेल का! किसी चलती हुई नामी दूकान पर जाते इन्हें जैसे डर लगता हैं। शायद ऊँची दूकान और फीका पकवान के कायल हैं। मेरा अनुमान तो यह हैं कि नीची पर ही सड़े पकवान मिलते हैं।

एक दिन की बात हो, तो बर्दाश्त कर ली जाय, रोज-रोज का टंटा नहीं सहा जाता। मैं पूछती हूँ, आखिर आप टुटपूँजियों की दूकान पर जाते क्यों हो? क्या उनके पालन-पोषण का ठेका तुम्हीं ने लिया हैं? आप फरमाते हैं देखकर सब-के-सब बुलाने लगते हैं! वाह, मुझे क्या कहना हैं! कितनी दूर की बात हैं? जरा इन्हें बुला लिया और खुशामद के दो-चार शब्द सुना दिये, थोड़ी स्तुति कर दी, बस, आपका मिजाज आसमान पर जा पहुँचा। फिर इन्हें सुधि नही रहती कि यह कुड़ा-करकट बाँध रहा हैं कि क्या। पूछती हूँ, तुम उस रास्ते से जाते ही क्यों हो? क्यों किसी दूसरे रास्ते से नहीं जाते? ऐसे उठाईगीरों को मुँह ही क्यों लगाते हो? इसका जवाब नही। एक चुप सौ बाधाओं को हराती हैं।

एक बार एक गहना बनवाने को दिया। मैं तो महाशय को जानती थी। इनसे पूछना व्यर्थ समझा। अपने पहचान के एक सुनार को बुला रही थी। संयोग से आप भी विराजमान थे। बोले- यह सम्प्रदाय विश्वास के योग्य नहीं, धोखा खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ, मेरे साथ का पढ़ा हैं। बरसों साथ-साथ खेले थे। वह मेरे साथ चालबाजी नही कर सकता। मैं भी समझी, जब इनका मित्र हैं और वह भी बचपन का, तो कहाँ तक दोस्ती का हक न निभायेगा? सोने का एक आभूषण और सौ रुपये इनके हवाले किये। इन भले मानस ने वह आभूषण और सौ रुपये न जाने किस बेईमान को दे दिये कि बरसों के झंझट के बाद जब चीज बनकर आयी, तो आठ आने ताँबा और इतनी भद्दी कि देखकर घिन लगती थी। बरसों की अभिलाषा धूल में मिल गयी। रो-पीटकर बैठ रहीं। ऐसे-ऐसे वफादार तो इनके मित्र हैं, जिन्हें मित्र ही गर्दन पर छूरी फेरने में भी संकोच नहीं। इनकी दोस्ती भी उन्हीं लोगों से हैं, जो जमाने भर के जट्टू, गिरहकट, लँगोटी में फाग खेलनेवाले, फाकेमस्त हैं, जिनका उद्दम ही इन जैसे आँख के अंधों से दोस्ती गाँठना हैं। नित्य ही एक-न-एक महाशय उधार माँगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं और बिना लिये गला नहीं छोड़ते। मगर ऐसा कभी न हुआ कि किसी ने रुपये चुकाये हों। आदमी एक बार खोकर सीखता हैं, दो बार खोकर सीखता हैं, किन्तु यह भलेमानस हजार बार खोकर भी नहीं सीखते! जब कहती हूँ, रुपये तो दे आये, अब माँग क्यों नहीं लाते! क्या मर गये तुम्हारे वह दोस्त? आप तो बस, बगलें झाँककर रह जाते हैं। आप से मित्रों को सूखा जवाब नहीं दिया जाता। खैरस सूखा जवाब न दो। मैं भी नही कहती कि दोस्तों से बुमुरौवती करो, मगर चिकनी- चुपड़ी बातें तो बना सकते हो, बहाने तो कर सकते हों। किसी मित्र ने रुपये माँगे और आपके सिर पर बोझ पड़ा। बेचारे कैसे इन्कार करें? आखिर लोग जान जायेंगे कि नहीं, कि यह महाशय भी खुक्कल ही हैं। इनकी हविस यह हैं कि दुनिया इन्हें सम्पन्न समझती रहें, चाहे मेरे गहने ही क्यों न गिरवी रखने पड़े। सच कहती हूँ, कभी-कभी तो एक-एक पैसे की तंगी हो जाती हैं और इन भले आदमी को रुपये जैसे घर में काटते हैं। जब तक रुपये के वारे-न्यारे न कर लें, इन्हें चैन नहीं। इनकी करतूत कहाँ तक गाऊँ। मेरी तो नाक में दम आ गया। एक-न-एक मेहमान रोज यमराज की भाँति सिर पर सवार रहते हैं। न जाने कहाँ के बेफिक्रे इनके मित्र हैं। कोई कहीं से आ मरता हैं, कोई कहीं से। घर क्या हैं, अपाहिजों का अड्डा हैं। जरा-सा तो घर, मुश्किलसे दो पलंग, ओढ़ना-बिछौना भी फालतू नहीं, मगर आप है कि मित्रों को निमंत्रण देने को तैयार ! आप तो अतिथि के साथ लेटेंगे, इसलिए चारपाई भी चाहिए, ओढ़ना-बिछौना भी चाहिए, नहीं तो घर का परदा खुल जाय। जाता हैं मेरे और बच्चों के सिर। गरमियों में तो खैर कोई मुजायका नहीं, लेकिन जाड़ो में तो ईश्वर ही याद आते हैं। गरमियों में भी खुली छत पर तो मेहमानों का अधिकार हो जाता हैं, अब बच्चों को लिए पिंज़डे में पड़ी फड़फड़ाया करूँ। इन्हें इतनी भी समझ नहीं कि जब घर की यह दशा हैं, तो क्यों ऐसे मेहमान बनाएँ, जिनके पास कपड़े-लत्ते तक नहीं हैं। ईश्वर की दया से इनके सभी मित्र इसी श्रेणी के हैं। एक भी ऐसा माई का लाल नहीं, जो समय पड़ने पर धेले से भी इनकी मदद कर सके। दो बार महाशय को इनका कटु अनुभव – अत्यंत कटु अनुभव हो चुका हैं, मगर जड़ भरत ने जैसे आँखें न खोलने की कसम खा ली हैं। ऐसे ही दरिद्र भट्टाचार्यों से इनकी पटती हैं। शहर में इतने लक्ष्मी के पुत्र हैं, पर आपका किसी से परिचय नहीं। उनके पास जाते इनकी आत्मा दुखती हैं। दोस्ती गाठेंगे ऐसों से, जिनके घर में खाने का ठिकाना नहीं।

एक बार हमारा कहार छोड़कर चला गया और कई दिन कोई दूसरा कहार न मिला। किसी चतुर और कुशल कहार की तलाश में थी, किन्तु आपको जल्द-से- जल्द कोई आदमी रख लेने की धुन सवार हो गयी। घर के सारे काम पूर्ववत् चल रहे थे, पर आपको मालूम हो रहा था कि गाड़ी रुकी हैं। मेरा जूठे बरतन माँजना और अपना साग-भाजी के लिए बाजार जाना इनके लिए असह्य हो उठा। एक दिन जाने कहाँ से एक बागडू को पकड़ लाये। उसकी सूरत कहे देती थी कोई जाँगलू हैं! मगर आपने उसका ऐसा बखान किया कि क्या कहूँ ! बड़ा होशियार हैं, बड़ी आज्ञाकारी, परले-सिरे का मेहनती, गजब की सलीकेदार और बहुत ही ईमानदार। खैर मैने रख लिया। मैं बार-बार क्यों इनकी बातों में आ जाती हूँ, इसका मुझे स्वयं आश्चर्य हैं। यह आदमी केवल रूप से आदमी था। आदमियत के और कोई लक्षण उसने न थे। किसी काम की तमीज नही। बेईमान न था, पर गधा था अव्वल दरजे का। बेईमान होता, तो कम-से-कम तस्कीन तो होती कि खुद खा जाता हैं। अभागा दुकानदारों के हाथों लुट जाता था। दस तक की गिनती उसे न आती थी। एक रुपया देकर बाजार भेजूँ, तो संध्या तक हिसाब न समझा सके। क्रोंध पी-पीकर रह जाती थी। रक्त खौलने लगता था कि दुष्ट के कान उखाड़ लूँ, मगर इन महाशय को उसे कभी कुछ कहते नहीं देखा, डाँटना तो दूर की बात हैं। मैं तो बच्चों का खून पी जाती, लेकिन इन्हें जरा भी गम नहीं। जब मेरे डाँटने पर धोती छाँटने जाता भी, तो आप उसे समीप न आने देते। बस, उनके दोषों को गुण बनाकर दिखाया करते थे। मूर्ख को झाडू लगाने के तमीज न थी। मरदाना कमरा ही तो सारे घर में ढंग का कमरा है। उसमें झाडू लगाता, तो इधर की चीज उधर, ऊपर चीज नीचे, मानो कमरे में भूकम्प आ गया हो! और गर्द का यह हाल कि साँस लेना कठिन, पर आप शान्तिपूर्वक कमरे में बैठे हैं, जैसे कोई बात ही नहीं। एक दिन मैने उसे खूब डाँटा- कल से ठीक-ठीक झाडू न लगाया, तो कान पकड़कर निकाल दूँगी। सबेरे सोकर उठी तो देखती हूँ, कमरे में झाडू लगी हुई हैं और हरके चीज करीने से रखी हुई हैं। गर्द-गुबार का नाम नहीं। मै चकित होकर देखने लगी। आप हँसकर बोले- देखती क्या हो! आज घूरे ने बड़े सबेरे उठकर झाडू लगायी हैं। मैने समझा दिया। तुम ढंग से बताती नहीं, उलटे डाँटने लगती हो।

मैंने समझा, खैर, दुष्ट ने कम-से-कम एक काम तो सलीके से कियाष अब रोज कमरा साफ- सुथरा मिलता। घूरे मेरी दृष्टि में विश्वासी बनने लगा। संयोग की बात! एक दिन जरा मामूल से उठ बैठी और कमरे में आयी, तो क्या देखती हूँ कि घूरे द्वार पर खड़ा हैं और आप तन-मन से कमरे में झाडू लगा रहे हैं। मेरी आँखों में खून उतर आया। उनके हाथ से झाडू छिनकर घूरे के सिर पर जमा दी। हरामखोर को उसी दम निकाल बाहर किया। आप फरमाने लगे- उसका महीना तो चुका दो! वाह री समझ! एक तो काम न करे, उस पर आँखे दिखाये। उस पर पूरी मजूरी भी चुका दूँ। मैने एक कौड़ी भी न दी। एक कुरता दिया था, वह भी छीन लिया। इस पर जड़ भरत महोदय मुझसे कई दिन रूठे रहे। घर छोड़कर भागे जाते थे। बड़ी मुश्किलों से रुके। ऐसे-ऐसे भोंदू भी संसार में पड़े हुए हैं। मैं न होती, तो शायद अब तक इन्हें किसी न बाजार में बेच लिया होता।

एक दिन मेहतर ने उतारे कपड़ों का सवाल किया। इस बेकारी के जमाने में फालतू कपड़े तो शायद पुलिसवालों या रईसों के घर में हो, मेरे घर में तो जरूरी कपड़े भी काफी नहीं। आपका वस्त्रालय एक बकची में आ जाएगा, जो डाक पारसल से कहीं भेजा जा सकता हैं। फिर इस साल जाड़ों के कपड़े बनवाने की नौबत न आयी। पैसे नजर नही आते, कपड़े कहाँ से बनें? मैने मेहतर को साफ जवाब दे दिया। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, इसका अनुभव मुझे कम न था। गरीबों पर क्या बीत रही हैं? इसका मुझे ज्ञान था लेकिन मेरे या आपके पास खेद के सिवा इसका और क्या इलाज हैं? जब तक समाज का यह संगठन रहेगा, ऐसी शिकायतें पैदा होती रहेगी। जब एक-एक अमीर और रईस के पास एक-एक मालगाड़ी कपड़ों से भरी हुई हैं, तब फिर निर्धनों को क्यों न नग्नता का कष्ट उठाना पड़े? खैर, मैने तो मेहतर को जवाब दे दिया, आपने क्या किया कि अपना कोट उठाकर उसकी भेंट कर दिया। मेरी देह में आग लग गयी। मैं इतनी दानशीन नहीं हूँ कि दूसरों को खिलाकर आप सो रहूँ। देवता के पास यहीं एक कोट था। आपको इसकी जरा भी चिन्ता न हुई कि पहनेंगे क्या? यश के लोभ ने जैसे बुद्धि ही हर ली। मेहतर ने सलाम किया, दुआयें दी और अपनी राह ली। आप कई दिन सर्दी से ठिठुरते रहे। प्रातःकाल घूमने जाया करते थे, वह बन्द हो गया। ईश्वर ने उन्हें हृदय भी एक विचित्र प्रकार का दिया हैं। फटे- पुराने कपड़े पहनते आपको जरा भी संकोच नहीं होता। मैं तो मारे लाज के गड़ जाती हूँ , पर आपको जरा भी फिक्र नहीं। कोई हँसता हैं, तो हँसे, आपकी बला से। अन्त में जब मुझ से देखा न गया, तो एक कोट बनवा दिया। जी तो जलता था कि खूब सर्दी खाने दूँ, पर डरी कि कहीं बीमार पड़ जायँ, तो और बुरा हो। आखिर काम तो इन्हीं को करना हैं।

महाशय दिल में समझते होंगे, मैं कितना विनीत, कितना परोपकारी हूँ । शायद इन्हें इन बातों का गर्व हो। मैं इन्हें परोपकारी नही समझती, न विनीत ही समझती हूँ । यह जड़ता हैं, सीधी-सादी निरीहता। जिस मेहतर को आपने अपना कोट दिया, उसे मैने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमते देखा हैं और आपको दिखा भी दिया हैं। तो फिर दूसरों की विवेकहीनता की पुरौती हम क्यों करें? अगर आप विनीत और परोपकारी होते, तो घरवालों के प्रति भी तो आपके मन में कुछ उदारता होती, या सारी उदारता बाहरवालों क लिए सुरक्षित हैं? घरवालों को उसका अल्पांश भी न मिलना चाहिए? मेरी इतनी अवस्था बीत गयी, पर इस भले आदमी ने कभी अपने हाथ से मुझे एक उपहार भी न दिया। बेशक मैं जो चीज बाजार से मंगवाऊँ, उसे लाने में इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं, बिल्कुल उज्र नही, मगर रुपये मैं दे दूँ , यह शर्त हैं। इन्हें खुद कभी यह उमंग नही होती। यह मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते। मै जो कुछ मँगवा दूँ, उसी पर सन्तुष्ट हो जाते हैं, मगर आखिर आदमी कभी-कभी शौक की चीजें चाहता ही हैं। अन्य पुरुषों को देखती हूँ, स्त्री के लिए तरह के गहने, भाँति- भाँति के कपड़े, शौंक-सिंगार की वस्तुएँ लाते रहते हैं। यहाँ व्यवहार का निषेध हैं। बच्चों के लिए भी मिठाइयाँ, खिलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये हो। शपथ-सी खा ली हैं। इसलिए मैं इन्हें कृपण कहूँगी, अरसिक कहूँगी, हृदय- शून्य कहूँगी, उदार नही कह सकती। दूसरों के साथ इनका जो सेवा-भाव हैं, उसका कारण हैं, इनका यश-लोभ और व्यावहारिक अज्ञानता। आपके विनय का यह हाल हैं, कि जिस दफ्तर में आप नौकर हैं, उसके किसी अधिकारी से आपका मेल-जोल नहीं। अफसरो को सलाम करना तो आपकी नीति के विरूद्ध हैं, नजर या डाली तो दूर की बात हैं। और-तो-और, कभी किसी अफसर के घर नहीं जाते। इसका खामियाजा आप न उठायें, तो कौन उठाये? औरों को रिआयती छुट्टियाँ मिलती हैं, आपको कोई पूछता भी नहीं, हाजिरी में पाँच मिनट की देर हो जाय, तो जवाब पूछा जाता हैं। बेचारे जी तोड़कर काम करते हैं, कोई बड़ा कठिन काम आ जाता हैं, तो इन्हीं के सिर मढ़ा जाता हैं, इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं। दफ्तर में इन्हें ‘घिस्सू, पिस्सू’ आदि उपाधियाँ मिली हैं, मगर पड़ाव कितना ही बड़ा मारे, इनके भाग्य में वही सूखी घास लिखी हैं। यह विनय नहीं हैं! स्वाधीन मनोव भी नहीं हैं, मैं तो इसे समय-चातुरी का अभाव कहती हूँ, व्यावहारिक ज्ञान की क्षति कहती हूँ । आखिर कोई अफसर आपसे प्रसन्न क्यो हो? इसलिए कि आप बड़े मेहनती हैं? दुनिया का काम मुरौवत और रवादारी से चलता हैं। अगर हम किसी से खिंचे रहें, तो कोई कारण नहीं कि वह हमसे खिंचा रहे। कफर, जब मन में क्षोभ होता हैं, तो वह दफ्तरी व्यवहारों में भी प्रकट हो गी जाता हैं। जो मातहत अफसर को प्रसन्न रखने की चेष्टा करता हैं, जिसकी जात से अफसर को कोई क्यक्तिगत उपकार होता हैं, जिस पर वह विश्वास कर सकता हैं, उसका लिहाज वह स्वभावतः करता हैं। ऐसे सिरागियों से क्यों किसी को सहानुभूति होने लगी? अफसर भी तो मनुष्य हैं। उनके हृदय में जो सम्मान और विशिष्टता की कामना हैं, वह कहाँ से पूरी हो? जब अधीनस्थ कर्मचारी ही उससे फिरंट रहें, तो क्या उसके अफसर उसे सलाम करने आयेंगे? आपने जहाँ नौकरी की, वहाँ से निकाले गये या कार्याधिक्य के कारण छोड़ बैठे।

आपको कुटुम्ब-सेवा का दावा हैं। आपके कई भाई-भतीजे होते हैं, वह कभी इनकी बात भी नहीं पूछते, आप बराबर उनका मुँह ताकते रहते हैं।

इनके एक भाई साहब आजकल तहसीलदार हैं। घर की मिल्कियत उन्हीं की निगरानी में हैं। वह ठाठ से रहते हैं। मोटर रख ली है, कई नौकर-चाकर हैं, मगर यहाँ भूल से भी पत्र नहीं लिखते। एक बार हमें रुपये की बड़ी तंगी हुई। मैने कहा, अपने भ्राताजी से क्यों नहीं माँग लेते? कहने लगे, उन्हें क्यों चिन्ता में डालूँ । उनका भी तो अपना खर्च हैं। कौन सी बचत हो जाती होगी। जब बहुत मजबूर किया, तो आपने पत्र लिखा। मालूम नहीं, पत्र में क्या लिखा, पत्र लिखा या मुझे चकमा दे दिया, पर रुपये न आने थे, न आये। कई दिनों के बाद मैने पूछा- कुछ जवाब आया श्रीमान के भाई साहब के दरबार से? आपने रुष्ट होकर कहा- अभी केवल एक सप्ताह तो खत पहुँचे हुए, क्या जवाब आ सकता हैं? एक सप्ताह और गुजरा, मगर जवाब नदारद। अब आपका यह हाल हैं कि मुझे कुछ बातचीत करने का अवसर ही नही देते। इतने प्रसन्न-चित्त नजर आते हैं कि क्या कहूँ । बाहर से आते है तो खुश -खुश। कोई-न-कोई शिगूफा लिये। मेरी खुशामद भी खूब हो रही हैं, मेरे मैकेवालों की प्रशंसा भी हो रही हैं, मेरे गृह -प्रबन्ध का बखान भी असाधारण रीति से किया जा रहा हैं। मैं इन महाशय की चाल समझ रही थी। यह सारी दिलजोई केवल इसलिए थी कि श्रीमान् के भाई साहब के विषय में कुछ पूछ न बैठूँ। सारे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आचारिक प्रश्नों की मुझसे व्याख्या की जाती थी, इतने विस्तार और गवेष्णा के साथ कि विशेषज्ञ भी लोहा मान जायँ। केवल इसलिए कि मुझे प्रसंग उठाने का अवसर न मिले। लेकिन मैं भला कब चुकनेवाली थी? जब पूरे दो सप्ताह गुजर गये और बीमे के रुपये भेजने की मिती मौत की तरह सिर पर सवार हो गयी, तो मैने पूछा- क्या हुआ? तुम्हारे भाई साहब ने श्रीमुख से कुछ फरमाया चा अभी तक पत्र नहीं पहुँचा? आखिर घर की जायदाद में हमारा भी कुछ हिस्सा हैं या नही? या हम किसी लौड़ी-दासी की सन्तान हैं? पाँच सौ रुपये साल का नफा तो दस साल पहले था। अब तो एक हजार से कम न होगा, पर हमें कभी एक कानी कौड़ी न मिली। मोटे हिसाब से हमें दो हजार मिलना चाहिए। दो हजार न हो, एक हजार हो, पाँच सौ हो, ढाई सौ हो, कुछ न हो तो बीमा के प्रीमियम भर को तो हो। तहसीलदार साहब का आमदनी हमारी आमदनी से चौगुनी हैं, रिश्वतें भी लेते हैं, तो फिर हमारे रुपये क्यों नहीं देते? आप हें-हें, हाँ-हाँ करने लगे। वह बेचारे घर की मरम्मत करवाते हैं। बंध -बांधवो का स्वागत-सत्कार करते हैं, नातेदारियों में भेट-भाँट भेजते हैं। और कहाँ से लावें, जो हमारे पास भेजे? वाह री बुद्धि! मानो जायदाद इसीलिए होती हैं कि उसकी कमाई उसी में खर्च हो जाय। इस भले आदमी को बहाने गढने भी नहीं आते। मुझसे पूछते, मैं एक नही हजार बता देती, एक-से-एक बढ़कर- कह देते, घर में आग लग गयी, सब कुछ स्वाहा हो गया, या चोरी हो गयी, तिनका तक नहीं बचा, या दस हजार का अनाज भरा था, उसनें घाटा रहा, या किसी से फौजदारी हो गयी, उसमें दिवाला पिट गया। आपको सूझी भी लचर-सी बात। तकदीर ठोककर बैठ रहीं। फिर भी आप भाई-भतीजों की तारीफों के पुल बाँधते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती हैं। ऐसे कौरवों से ईश्वर बचाये।

गिला - मुंशी प्रेमचंद | Gila by Munshi Premchand
गिला - मुंशी प्रेमचंद | Gila by Munshi Premchand

ईश्वर की दया से आपके दो बच्चे हैं, दो बच्चियाँ भी हैं। ईश्वर की दया कह या कोप कहूँ ? सब-के -सब इतने ऊधमी हो गये हैं कि खुदा की पनाह, मगर क्या मजाल हैं कि भोंदू किसी को कड़ी आँख से भी देखे! रात के आठ बज गये हैं, युवराज अभी घूमकर नहीं आये। मैं घबरा रही हूँ, आप निश्चिंत बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। झल्लाई हुई जाती हूँ और अखबार छीनकर कहती हूँ, जाकर देखते क्यों नहीं, लौंड़ा कहाँ रह गया? न जाने तुम्हारा तुम्हारा हृदय कितना कठोर हैं! ईश्वर ने तुम्हें सन्तान ही न जाने क्यों दे दी? पिता का पुत्र के साथ कुछ तो धर्म हैं! तब आप भी गर्म हो जाते हैं, अभी तक नही आया? बड़ा शैतान हैं। आज बच्चा आता हैं, तो कान उखाड़ लेता हूँ। मारे हंटरों के खाल उधेड़कर रख दूँगा। यों बिगड़कर तैश के साथ आप उसे खोजने निकलते हैं। संयोग की बात! आप उधर जाते हैं, इधर लड़का आ जाता हैं। मैं पूछती हूँ- तू किधर से आ गया? तुझे ढूँढने गये हुए हैं। देखना, आज कैसी मरम्मत होती हैं। यह आदत छूट जायेगी। दाँत पीस रहे थे। आते ही होंगे। छड़ी भी उनके हाथ में हैं। तुम इतने अपने मन के हो गये हो कि बात नहीं सुनते। आज आटे-दाल का भाव मालूम होगा। लड़का सहम जाता हैं और लैम्प जलाकर पढ़ने बैठ जाता हैं। महाशयजी दो-ढाई घंटे के बाद लौटते हैं, हैरान, परेशान और बदहवास होगा। घर में पाँव रखते ही पूछते हैं- आया कि नहीं?

मैं उनका क्रोध उत्तेजित करने के विचार से कहती हूँ- आकर बैठा तो हैं, जाकर पूछते क्यों नहीं? पूछकर हार गयी, कहाँ गया था, कुछ बोलता ही नहीं।

आप गरजकर कहते हैं- मन्नू, यहाँ आओ।

लड़का थर-थर काँपता हुआ आकर आँगन में खड़ो हो जाता हैं। दोनों बच्चियाँ घर में छिप जाती हैं कि कोई बड़ा भयंकर कांड होने वाला हैं। छोटा बच्चा खिड़की से चूहे हे की तरह झाँक रहा हैं। आप क्रोध से बौखलाए हुए हैं! हाथ में छड़ी हैं ही, मैं भी यह क्रोधोन्मत्त आकृति देखकर पछताने लगती हूँ कि कहाँ से शिकायत की। आप लड़के के पास जाते है, मगर छड़ी जमाने के बदले आहिस्ते से उसे कंधे पर हाथ रखकर बनावटी क्रोध से कहते हैं – तुम कहाँ गये थे जी? मना किया जाता हैं, मानते नहीं हो। खबरदार, जो अब कभी इतनी देर होगी? आदमी शाम को अपने घर चला आता हैं या मटरगश्ती करता हैं?

मैं समझ रही हूँ कि यह भूमिका हैं। विषय अब आयेगा। भूमिका तो बुरी नहीं, लेकिन यहाँ तो मिका पर इति हो जाती हैं। बस आपका क्रोध शांत हुआ। बिल्कुल जैसं क्वार का घटा- घेर-घार हुआ, काले बादल आये, गड़गड़ाहट हुई और गिरी क्या, चार बूँदें। लड़का अपने कमरे में चला जाता हैं और शायद खुशी से नाचने लगता हैं।

मैं पराभूत हो जाती हूँ- तुम तो जैसे डर गये। भला, दो-चार तमाचे तो लगाये होते! इसी तरह लड़के शेर हो जाते हैं।

आप फरमाते हैं- तुमने सुना नहीं, मैने कितने जोर से डाँटा! बच्चू की जान ही निकल गयी होगी। देख लेना, जो फिर कभी देर से आये।

‘तुमने डाँटा तो नहीं, हाँ आँसू पोंछ दिये।’

‘तुमने मेरी डाँट सुनी नहीं?’

‘क्या कहना हैं, आपकी डाँट का! लोगों के कान बहरे हो गये। लाओ, तुम्हारा गला सहला दूँ।’

आपने एक नया सिद्धान्त निकाला हैं कि दंड देने से लड़के खराब हो जाते हैं। आपके विचार से लड़को का आजाद रहना चाहिए उन पर किसी तरह का बन्धन, शासन या दवाब न होना चाहिए। आपके मत से शासन बालकों के मानसिक विकास में बाधक होता हैं। इसी का यह फल हैं कि लड़के बिना नकेल के ऊँट बने हुए हैं। कोई एक मिनट भी किताब खोलकर नही बैठता। कभी गुल्ली- डंडा हैं, कभी गोलियाँ, कभी कनकौवे। श्रीमान् भी लड़को के साथ खेलते हैं। चालीस की उम्र और लड़कपन इतना। मेरे पिताजी के सामने मजाल थी कि कोई लड़का कनकौआ उड़ा ले या गुल्ली-डंडा खेल सके। खून ही पी जाते। प्रातःकाल से लड़कों को लेकर बैठ जाते थे। स्कूल से ज्यों ही लड़के आते, फिर से ले बैठते थे। बस, संध्या समय आध घंटे की छुट्टी देते थे। रात को फिर जोत देते। यह नहीं कि आप तो अखबार पढ़ा करे और लड़के गली-गली भटकते फिरें। कभी-कभी आप सींग काटकर बछड़े बन जाते हैं। लड़कों के साख ताश खेलने बैठा करते हैं। ऐसे बाप का भला, लड़को पर क्या रौब हो सकता हैं? पिताजी के सामने मेरे भाई सीधे ताक नहीं सकते थे। उनकी आवाज सुनते ही तहलका मच जाता था। उन्होंने घर में कदम रखा और शांति का साम्राज्य हुआ। उनके सम्मुख जाते लड़कों के प्राण सूखते थे। उसी शासन की यह बरकत हैं कि सभी लड़के अच्छे-अच्छे पदों पर पहुँच गये। हाँ, स्वास्थ्य किसी का अच्छा नहीं हैं। तो पिताजी ही का स्वास्थ्य कौन बड़ा अच्छा था! बेचारे हमेशा किसी न किसी औषधि का सेवन करते रहते थे। और क्या कहूँ, एक दिन तो हद ही हो गयी। श्रीमानजी लड़कों को कनकौआ उड़ाने की शिक्षा दे रहे थे – यों घुमाओ, यों गोता दो, यों खींचो, यों ढील दो। ऐसा तन-मन से सिखा रहे थे, मानो गुरु -मंत्र दे रहे हो। उस दिन मैने इनकी ऐसी खबर ली कि याद करते होंगे- तुम कौन होते हो, मेरे बच्चों को बिगाड़नेवाले! तुम्हें घर से कोई मतलब नहीं हैं, न हो, लेकिन मेंर बच्चों को खराब न कीजिए। बुरी-बुरी आदतें न सिखाइए। आप उन्हें सुधार नहीं सकते, तो कम-से-कम बिगाड़िए मत। लगे बगलें झाँकने। मैं चाहती हूँ, एक बार भी गरज पड़े तो चंडी रूप दिखाऊँ, पर यह इतना जल्द दब जाते हैं कि मैं हार जाती हूँ । पिताजी किसी लड़के को मेले-तमाशे न ले जाते थे। लड़का सिर पीटकर मर जाय, मगर जरा भी न पसीजते थे। और इन महात्माजी का यह हाल हैं कि एक-एक से पूछकर मेले ले जाते हैं- चलो, चलो, वहाँ बड़ी बहार हैं, खूब आतिशबाजियाँ छूटेंगी, गुब्बारे उड़ेंगे, विलायती चर्खियाँ भी हैं। उन पर मजे से बैठना। और-तो-और, आप लड़कों को हाकी खेलने से भी नहीं रोकते। यह अंग्रेजी खेल भी कितने जानलेवा हैं- क्रिकेट, फुटबाल, हाकी – एक-से-एक घातक। गेंद लग जाय तो जान लेकर ही छोड़े, पर आपको इन सभी खेलों से प्रेम हैं। कोई लड़का मैच जीतकर आ जाता हैं, तो फूल उठते हैं, मानो किला फतह कर आया हो। आपको इसकी जरा भी परवाह नहीं कि चोट-चपेट आ गयी तो क्या होगा! हाथ-पाँव टूट गये तो बेचारो की जिन्दगी कैसे पार लगेगी!

पिछले साल कन्या का विवाह था। आपकी जिद थी कि दहेज के नाम कानी कौड़ी भी न देंगे, चाहे कन्या आजीवन क्वाँरी रहे। यहाँ भी आपका आदर्शवाद आ कूदा। समाज के नेताओं का छल-प्रपंच आये दिन देखते रहते हैं, फिर भी आपकी आँखे नहीं खुलती। जब तक समाज की यह व्यवस्था कायम हैं औऱ युवती कन्या का अविवाहित रहना निन्दास्पद हैं, तब तक यह प्रथा मिटने की नही। दो-चार ऐसे व्यक्ति भले ही निकल आवे, जो दहेज के लिए हाथ न फैलावें, लेकिन इनका परिस्थिति पर कोई असर नहीं पड़ता और कुप्रथा ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। पैसों की कमी नहीं, दहेज की बुराइयों पर लेक्चर दे सकते हैं, लेकिन मिलते हुए दहेज को छोड़ देनेवाला मैने आज तक न देखा। जब लड़को की तरह लड़कियों को शिक्षा और जीविका को सुविधाएँ निकल आयेंगी, तो यह प्रथा भी विदा हो जायेगी, उसके पहले सम्भव नहीं। मैने जहाँ-जहाँ संदेश भेजा, दहेज का प्रश्न खड़ा हुआ और आपने प्रत्येक अवसर पर टाँग अड़ायी। जब इस तरह पूरा साल गुजर गया और कन्या का सत्रहवाँ लग गया, तो मैने एक जगह बात पक्की कर ली। आपने भी स्वीकार कर लिया, क्योंकि वर-पक्ष ने लेन-देन का प्रश्न उठाया ही नहीं, हालाँकि अन्त:करण में उन लोगों को विश्वास था कि अच्छी रकम मिलेगी औऱ मैने भी तय कर लिया था कि यथाशक्ति कोई बात उठा न रक्खूँगी। विवाह के सकुशल होने में कोई सन्देह न था, लेकिन इन महाशय के आगे मेरी एक न चली- यह प्रथा निंद्य हैं, यह रस्म निरर्थक हैं, यहाँ रुपये की क्या जरूरत? यहाँ गीतो का क्या काम? नाक में दम था। यह क्यों, वह क्यों, यह तो साफ दहेज हैं, तुमने मुँह में कालिख लगा दी। मेरी आबरू मिटा दी। जरा सोचिए, इस परिस्थिति को कि बारात द्वार पर पड़ी हुई हैं और यहाँ बात-बात पर शास्त्रार्थ हो रहा हैं। विवाह का मुहूर्त आधी रात के बाद था। प्रथानुसार मैने व्रत रखा, किन्तु आपकी टेक थी कि व्रत की कोई जरूरत नही। जब लड़के के माता-पिता व्रत नहीं रखते, लड़का तक व्रत नहीं रखता, तो कन्या-पक्षवाले ही व्रत क्यों रखें! मैं और सारा खानदान मना करता रहा; लेकिन आपने नाश्ता किया। खैर! कन्यादान का मुहर्त आया। आप सदैव से इस प्रथा के विरोधी हैं। आज इसे निषिद्ध समझते हैं। कन्या क्या दान की वस्तु हैं? दान रुपये-पैसे, जगह-जमीन का होता हैं। पशु- -दान भी होता हैं, लेकिन लड़की का दान! एक लचर-सी बात हैं। कितना समझती हूँ, पुरानी प्रथा हैं, वेद-काल से होती चली आयी हैं, शास्त्रों में इसकी व्यवस्था हैं। सम्बन्धी समझा रहे हैं, पंडित समझा रहे हैं, पर आप हैं कि कान पर जूँ नही रेंगती। हाथ जोड़ती पैर पड़ती हूँ, गिड़गिड़ाती हूँ, लेकिन आप मंडल के नीचे न गये। और मजा यह हैं कि आपने ही तो यह अनर्थ किया और आप ही मुझसे रूठ गये। विवाह के पश्चात महीनों बोलचाल न रही। झख मार कर मुझी को मनाना पड़ा।

किन्तु सबसे बड़ी विडम्बना यह हैं कि इन सारे दुर्गुणों के होते हुए भी मैं इनसे एक दिन भी थक नहीं रह सकती- एक क्षण का वियोग नहीं रह सकती। इन सारे दोषों पर भी झे इनसे प्रगाढ़ प्रेम है। इनमें यह कौन सा गुण हैं, जिन पर मैं मुग्ध हूँ, मैं खुद नहीं जानती पर इनमें कोई बात ऐसी हैं, जो मुझे इनकी चेली बनाये हुए हैं। यह जरा मामूली सी देर से घर आते हैं, तो प्राण नहों में समा जाते हैं। आज यदि विधाता इनके बदले मुझे कोई विद्या और बुद्धि का पुतला-रूप और धन का देवता भी दे, तो मैं उसकी ओर आँख उठाकर न देखूँ। यह धर्म की बेड़ी हैं, कदापि नहीं। प्रथागत पतिव्रत भी नहीं, बल्कि हम दोनों की प्रकृति में कुछ ऐसी क्षमताएँ, कुछ ऐसी व्यवस्थाएँ उत्पन्न हो गयी हैं मानो किसी मशीन के कल- पुरजे घिस-घिसकर फिट हो गये हों, और एक पुरजे की जगह दूसरा पुरजा काम न दे सके, चाहे वह पहले से कितना ही सुडौल, नया और सुदृढ़ हो। जाने हुए रास्ते से हम निःशंक आँखे बन्द किये चले जाते हैं, उसके ऊँचे -नीचे मोड़ और घुमाव, सब हमारी आँखों मे समाये हैं। अनजान रास्ते पर चलना कितना कष्टप्रद होगा। शायद आज मैं इनके दोषों को गुणों से बदलने पर भी तैयार न हूँगी।


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