शिकार - मुंशी प्रेमचंद | Shikar by Munshi Premchand
मानसरोवर भाग - 1
मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
शिकार, मानसरोवर भाग - 1 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 1 की अन्य कहानियाँ
फटे वस्त्रों वाली मुनिया ने रानी वसुधा के चाँद-से मुखड़े की ओर सम्मान-भरी आँखों से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा- हम गरीबों का इस तरह कैसे निबाह हो सकता हैं महारानी! मेरी तो अपने आदमी से एक दिन न पटे। मैं उसे घर में बैठने न दूँ । ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाऊँ कि छठी का दूध याद आ जाय।
रानी वसुधा ने गम्भीर विनोद के भाव से कहा- क्यों, वह कहेगा नहीं, तू मेरे बीच में बोलनेवाली कौन हैं? मेरी जो इच्छा होगी, वह करूँगा। तू अपना रोटी-कपड़ा मुझसे लिया कर। तुझे मेरी दूसरी बातों से क्या मतलब? मैं तेरा गुलाम नही हूँ।
मुनिया तीन ही दिन से यहाँ लड़कों को खिलाने के लिए नौकर हुई थी। पहले दो-चार घरों मे चौका-बरतन कर चुकी थी; पर रानियों से अदब के साथ बात करना कभी न सीख पायी थी। उसका सूखा हुआ साँवला चेहरा उत्तेजित हो उठा। कर्कश स्वर में बोली- जिस दिन ऐसी बातें मुँह से निकालेगा, मूँछें उखाड़ लूँगी! सरकार! वह मेरा गुलाम नही हैं, तो क्या मैं उसकी लौडी हूँ ? अगर वह मेरा गुलाम हैं, तो मैं उसकी लौडी हूँ। मैं आप नहीं खाती, उसे खिला देती हूँ , क्योंकि वह मर्द का बच्चा हैं। पल्लेदारी में उसे बुहत कसाला करना पड़ता हैं। आप चाहे फटे पहनें, पर उसे फटे- पुराने नहीं पहनने देती। जब मैं उसके लिए इतना करती हूँ , तो मजाल हैं कि वह मुझे आँखें दिखाये। अपने घर को आदमी इसीलिए तो छाता- छोपता हैं कि उससे बरखा- बूँदी में बचाब हो। अगर यह डर रहे कि घर न जाने कब गिर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन रहेगा? उससे तो रूख की छाँह ही कहीं अच्छी। कल न जाने कहाँ बैठा बैठा गाता-बजाता रहा। दस बजे रात को घर आया। मैं रात-भर उससे बोली नहीं। लगा पैरों पड़ने, घिघियाने, तब मुझे दया आयी। इसी से वह कभी-कभी बहक जाता हैं; पर अब मैं पक्की हो गयी हूँ, फिर किसी दिन झगड़ा किया तो या वही रहेगा, या मैं ही रहूँगी। क्यों किसी की धौंस सहूँ सरकार! जो बैठकर खाये, वह धौंस सहे! यहाँ तो बराबर की कमाई करती हूँ।
वसुधा ने उसी गम्भीर भाव से फिर पूछा- अगर वह तुझे बिठाकर खिलाता, तब तो उसकी धौंस सहती?
मुनिया जैसे लड़ने पर उतारू हो गयी। बोली- बैठाकर कोई क्या खिलायेगा, सरकार? मर्द बाहर काम करता हैं, तो हम भी घर में काम करती हैं, कि घर के काम में कुछ लगता ही नहीं? बाहर के काम से तो रात को छुट्टी मिल जाती हैं। घर के काम से तो रात को भी छुट्टी नही मिलती। पुरुष यह चाहे कि मुझे घर में बैठाकर आप सैर-सपाटा करे, तो मुझसे तो न सहा जाय। यह कहती हुई मुनिया राजकुमार को लिये हुए बाहर चली गयी।
वसुधा ने थकी हुई, रुआँसी आखों से खिड़की की ओर देखा। बाहर हरा-भरा बाग था, जिसके रंग-बिरंगें फूल यहाँ से साफ नजर आ रहे थे और पीछे एक विशाल मन्दिर आकाश में अपना सुनहला मस्तक उठाए, सूर्य से आँखें मिला रहा था। स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्राभूषण पहने पूजन करने आ रही थीं। मन्दिर के दायिनी तरफ तालाब में कमल प्रभात के सुनहले आनन्द से मुस्करा रहे थे और कार्तिक की शीतल रवि-छवि जीवन-ज्योति लुटाती फिरती थी, पर प्रकृति की वह सुरम्य शोभा वसुधा को कोई हर्ष न प्रदान कर सकी। उसे जान पड़ा, प्रकृति उसकी दशा पर व्यंग्य से मुस्करा रही हैं। उसी सरोवर के तट पर केवट का एक टूटा-फूटा झोंपड़ा किसी अभागिन वृद्धा की भाँति रो रहा था। वसुधा की आँखें सजल हो गयीं। पुष्प और उद्यान के मध्य में खड़ा यह सूना झोंपड़ा उसके विलास औऱ ऐश्वर्य से घिरे हुए मन का सजीव चित्र था। उसके जी में आया, जाकर झोंपड़े के गले लिपट जाऊँ और खूब सोऊँ।
वसुधा को इस घर में आये पाँच वर्ष हो गये। पहले उसने अपने भाग्य को सराहा था। माता-पिता के छोटे-से कच्चे आनन्दहीन घर को छोड़कर वह एक विशाल महल में आयी थी, जहाँ सम्पत्ति उसके पैरों को घूमती हुई जान पड़ती थी। उस समय सम्पत्ति ही उसकी आँखों में सब कुछ थीं। पति-प्रेम गौण-सी वस्तु थी; पर उसका लोभी मन सम्पत्ति पर सन्तुष्ट न रह सका; पति-प्रेम के लिए हाथ फैलाने लगा। कुछ दिनों में उसे मालूम हुआ, मुझे प्रेम-रत्न भी मिल गया; पर थोड़े ही दिनों में यह भ्रम जाता रहा। कुँवर गजराजसिंह रूपवान थे, उदार थे, बलवान थे, शिक्षित थे, विनोदप्रिय थे, और प्रेम का अभिनय करना जानते थे; पर उनके जीवन में प्रेम से कम्पित होनेवाला तार न था। वसुधा का खिला हुआ यौवन और देवताओं को लुभानेवाला रंग-रूप केवल विनोद का सामान था। घुड़दौड़ और शिकार, सट्टे और मकार जैसे सनसनी पैदा करने वाले मनोरंजन में प्रेम दबकर पीला और निर्जीव हो गया था और प्रेम से वंचित होकर वसुधा की प्रेम-तृष्णा अब अपने भाग्य को रोया करती थी। दो पुत्र-रत्न पाकर भी वह सुखी न थी। कुँवर साहब, एक महीने से ज्यादा हुआ, शिकार खेलने गये और अभी तक लौटकर नही आये। और ऐसा पहला ही अवसर न था। हाँ, अब उनकी अवधि बढ़ गयी थी। पहले वह एक सप्ताह में लौट आते थे, फिर दो सप्ताह का नम्बर चला और अब कई बार से एक-एक महीने खबर लेने लगे। साल में तीन-चार महीने शिकार की भेंट हो जाते थे। शिकार से लौटते तो घुड़दौड़ का राग छिड़ता। कभी मेरठ, कभी पूना, कभी बम्बई, कभी कलकत्ता। घर पर कभी रहते, तो अधिकतर लम्पट रईसजादों के साथ गप्पें उड़ाया करते। पति का यह रंग-ढ़ग देखकर वसुधा मन-ही-मन कुढ़ती और लती जाती थी। कुछ दिनों से हल्का-हल्का ज्वर भी रहने लगा था।
वसुधा बड़ी देर तक बैठी उदास आँखों से यह दृश्य देखती रही। फिर टेलिफोन पर आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा- कुँवर साहब का कोई पत्र आया?
फोन ने जवाब दिया- जी हाँ, अभी खत आया हैं। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा हैं।
वसुधा बहुत ने जलकर कहा- मैं यह नही पूछती! कब आने को लिखा हैं?
‘आने के बारे में तो कुछ के नही लिखा।’
‘यहाँ से उनका पड़ाव कितनी दूर हैं?’
‘यहाँ से! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों मे शिकार हो रहा हैं।‘
‘मेरे लिए दो मोटरों का इंतजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।’
फोन ने कई मिनट के बाद जवाब दिया- एक मोटर तो वे साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बँगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक मैनेजर की सवारी में हैं। चौथी की मरम्मत हो रही हैं।
वसुधा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। बोली- किसके हुक्म से बैंक मैनेजर और हाकिम जिला को मोटरें भेजी गई? आप दोनों मँगवा लीजिए। मैं आज जरूर जाऊँगी।
‘उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रहीं हैं, इसलिए मैने भेज दीं। अब आप हुक्म दे रही हैं, तो मँगवा लूँगी।’
वसुधा नें फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी आवेश में आकर अपना भाग्य-निर्णय करने का निश्चय कर लिया था। परितयक्ता की भाँति पड़ी रहकर वह जीवन समाप्त न करना चाहती थी। वह कुँवर साहब से कहेगी, अगर आप यह समझते हैं कि मैं आपकी सम्पत्ति कौ लौड़ी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। आपकी सम्पत्ति आपको मुबारक! मेरा अधिकार आपकी सम्पत्ति पर नहीं, आपके ऊपर हैं। अगर आप मुझसे जौ-भर हटना चाहते हैं, तो मै आपसे हाथ-भर हट जाऊँगी । इस तरह की कितनी ही विराग-भरी बातें उसके मन में लों की भाँति उठ रही थीं।
डॉक्टर साहब मने द्वार पर पुकारा- मैं अन्दर आऊँ?
वसुधा ने नम्रता से कहा- आज क्षमा कीजिए, मैं जरा पीलीभीत जा रही हूँ।
डॉक्टर ने आश्चर्य से कहा- अप पीलीभीत जा रही हैं। आपका ज्वर बढ़ जायेगा। इस दशा में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा ।
वसुधा ने विरक्त स्वर में कहा- बढ़ जायेगा, बढ़ जाय; मुझसे इसकी चिन्ता नही हैं।
वृद्ध डॉक्टर परदा उठाकर अन्दर आ गया और वसुधा की ओर ताकता हुआ बोला- लाइए, मैं टेम्परेचर ले लूँ । अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको हरगिज न जाने दूँगा।
‘टेम्परेटर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया हैं।’
‘स्वास्थ्य पर ध्यान रखना आपका पहला कर्तव्य हैं।’
वसुधा ने मुस्कराकर कहा- आप निश्चिन्त रहिए, मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रहीं हूँ। फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे?
डॉक्टर ने दो-एक बार और आग्रह किया, फिर विस्मय से सिर हिलाता चला गया।
रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता तय करना पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब बराबर मोटर पर ही जाते थे। वसुधा ने भी उसी मार्ग से जाने का निश्चय किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरे आयी। वसुधा ने ड्राइवरों पर गुस्सा उतारा- अब मेरे हुक्म के बगैर कहीं मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी तलब से काट लूँगी अच्छी दिल्लगी हैं! घर की रोयें; बन की खायें! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी की खुशामद करने के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे। यह नहीं कि हलवाई की दूकान देखी और दादे का फातिहा पढ़ने बैठ गये।
शिकार - मुंशी प्रेमचंद | Shikar by Munshi Premchand |
वह चली, तो दोनों बच्चे कुनकुमाये; मगर जब मालूम हुआ कि अम्माँ बड़ी दूर कौवा को मारने जा रही हैं तो उनका यात्रा-प्रेम ठंड़ा पड़ा। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था। उसने जलन से सोचा- मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, क्या मैंने ही इनका ठेका लिया हैं! वह तो वहाँ जाकर चैन करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ, लेकिन चलते समय माता का हृदय पुलक उठा। दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घंटे-भर में लौट आने का वचन देकर वह सजल नेत्रों के साथ घर से निकली। मार्ग में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रहीं। रास्तें में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बालक मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार कर लूँ । मोटर जितने वेग से जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष -समूहों के साथ पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ । जब उन्हें मेरी रत्ती भर परवाह नहीं हैं तो मैं ही क्यों उनकी फिक्र में प्राण दूँ ? जी चाहे आयें, या न आये; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को वह न रोक सकी। सारी देह थककर चूर -चूर हो रही थी, ज्वर भी हो आया था, सिर पीड़ा से फटा पड़ता था; पर वह संकल्प से सारी बाधाओं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी! यहाँ तक कि जब वह दस रात को जंगल के उस डाक-बँगले में पहुँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न थी, जोर का ज्वार चढ़ा हुआ था।
शोफर की आवाज सुनते ही कुँवर साहब निकल आये और पूछा- तुम यहाँ कैसे आये जी? सब कुशल तो हैं?
शोफर ने करीब आकर कहा- रानी साहब आयी हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। बेहोश पड़ी हुई हैं।
कुँवर साहब ने वहीं खड़े, कठोर स्वर में पूछा- तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये? क्या तुम्हें मालूम नही था, कि यहाँ कोई वैद्य-हकीम नही हैं?
शोफर ने सिटपिटाकर जवाब दिया- हुजूर वह किसी तरह मानती ही न थीं, तो मैं क्या करता?
कुँवर साहब ने डाँटा- चुप रहो जी, बातें न बनाओ! तुमने समझा होगा, शिकार का बहार देखेंगे और पड़े-पड़े सोयेंगे। तुमने वापस चलने को कहा ही न होगा।
शोफर- वह मुझे डाँटती थी हुजूर!
‘तुमने कहा था?’
‘मैने कहा तो नही हुजूर?’
‘बस तो चुप रहो। मैं तुमको खूब पहचानता हूँ। तुम्हें मोटर लेकर इसी वक़्त लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ हैं?’
शोफर ने दबी हुई आवाज में कहा- एक मोटर पर बिस्तर और कपड़े हैं। एक पर खुद रानी साहब हैं।
‘यानी और कोई साथ नहीं हैं?’
‘ हुजूर! मैं तो हुक्म का ताबेदार हूँ ।’
‘बस, चुप रहो!’
यों झल्लाते हुए कुँवर साहब वसुधा के पास गये और आहिस्ता से पुकारा। जब कोई जवाब न मिला, तो उन्होंने धीरे से उसके माथे पर हाथ रखा। सिर गर्म तवा हो रहा था। उस ताप ने मानो उनकी सारी क्रोध-ज्वाला को खींच लिया। लपककर बँगले में आये, सोये हुए आदमियों को जगाया, पलंग बिछवाया, अचेत वसुधा को गोद में उठाकर कमरे में लाये और लिटा दिया। फिर सिरहाने खड़े होकर उसे व्यथित नेत्रों से देखने लगे। उस धूल से भरे मुख-मंडल और बिखरे हुए रज- रंजित केशों उन्होंने आज उन्होंने आग्रहमय प्रेम की झलक देखी। अब तक उन्होंने वसुधा को विलासिनी के रूप में देखा था, जिसे उनके प्रेम की परवाह न थी, जो अपने बनाव-सिंगार ही में मग्न थी, आज धूल के पाउडर और पोमेड में वह उसके नारीत्व का दर्शन कर रहे थे। उसमें कितना आग्रह था। कितनी लालसा थी, अपनी उड़ान के आनन्द में डूबी हुई, अब वह पिंजरे के द्वार पर आकर पंख फड़फड़ा रही थी। पिंजरे का द्वार खुलकर क्या उसका स्वागत करेगा?
रसोइए ने पूछा- क्या सरकार अकेले आयी हैं?
कुँवर साहब ने कोमल कंठ से कहाँ- हाँ जी, और क्या। इतने आदमी हैं, किसी को साथ न लिया। आराम से रेलगाड़ी से आ सकती थीं। यहाँ से मोटर भेज दी जाती। मन ही तो हैं। कितने जोर का बुखार हैं कि हाथ नहीं रखा जाता। जरा-सा पानी गर्म करो औऱ देखो, कुछ खाने को बना लो।
रसोइए ने ठकुरसोहती की- सौ कोस की दौड़ बहुत हैं सरकार! सारा दिन बैठे-बैठे बीत गया।
कुँवर साहब नें वसुधा के सिर के नीचे तकिया सीधा करके कहा- कचूमर तो हम लोगों को निकल जाता हैं। दो दिन तक कमर नहीं सीधी होती, फिर इनकी क्या बात हैं। ऐसी बेहूदा सड़क दुनिया में न होगी।
यह कहते हुए उन्होंने एक शीशी से तेल निकला और वसुधा के सिर में मलने लगे।
वसुधा का ज्वर इक्कीस दिन तक न उतरा। घर के डॉक्टर आये। दोनों बालक, मुनिया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जंगल में मंगल हो गया।
वसुधा खाट पर पड़े-पड़े, कुँवर साहब की शुश्रुषा में आलौकिक आनन्द और सन्तोष किया करती। वह दोपहर दिन चढ़े तक सोने के आदी थे, कितने सवेरे उठते, उसके पथ्य और आराम की जरा-जरा-सी बातों का कितना खयाल रखते। जरा देर के लिए स्नान और भोजन करने जाते, और फिर आकर बैठ जाते। एक तपस्या-सी कर रहे थे। उनका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता था, चेहरे पर वह स्वास्थ्य की लाली न थी। कुछ व्यस्त-से रहते थे।
एक दिन वसुधा ने कहा- आजकल तुम शिकार खेलेने क्यों नहीं जाते? मैं तो शिकार खेलने आयी थी; मगर न जाने किस बुरी साइत से चली कि तुम्हें इतनी तपस्या करनी पड़ गयी। अब मैं बिल्कुल अच्छी हूँ। जरा आयीने में अपनी सूरत तो देखो!
कुँवर साहब को इतने दिनों शिकार का कभी ध्यान ही न आया था। इसकी चर्चा ही न थी। शिकारियों का आना-जाना, मिलना-जुलना बन्द था। एक बार साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था। कुँवर साहब नें उसकी ओर कुछ ऐसी कड़वी आँखों से देखा कि वह सूख-सा गया। वसुधा के पास बैठने, उससे बातें करने, उसका मन बहलाने, दवा और पथ्य बनाने में उन्हें आनन्द मिलता था। उनका भोग-विलास, जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुधा की एक हथेली पर अँगुलियों से रेखा खींचने में मग्न थे। शिकार की बात किसी औऱ के मुँह से सुनी होती, तो फिर उन्हीं आग्नेय नेत्रों से देखते। वसुधा के मुँह से यह चर्चा सुनकर उन्हें दु:ख हुआ। वह उन्हें इतना शिकार का आसक्त समझती हैं! अमर्ष भरे स्वर से बोले- हाँ, शिकार खेलने का इससे अच्छा और कौन अवसर मिलेगा।
वसुधा ने आग्रह किया- मैं तो अब अच्छी हूँ, सच! देखो (आयीने की ओर दिखाकर) मेरे चहेरे पर पीलापन नहीं रहा। तुम अलबत्ता बीमार-से होते जा रहे हैं। जरा मन बहल जायेगा। बीमार के पास बैठने से आदमी सचमुच बीमार हो जाता हैं।
वसुधा ने तो साधारण-सी बात कही थी; पर कुवर साहब क हृदय पर वह चिनगारी के समान लगी। इधर वह अपने शिकार से खब्त पर कई बार पछता चुके थे। अगर वह शिकार के पीछे यों न पड़ते, तो वसुधा यहाँ क्यों आती और क्यों बीमार पड़ती? मन-ही-मन इसका बड़ा दु:ख था। इस वक़्त कुछ न बोले। शायद कुछ बोला ही न गया। फिर वसुधा की हथेली पर रेखाएँ बनाने लगे। वसुधा ने उसी सरल भाव से कहा अब की तुमने क्या-क्या तोहफे जमा किये, जरा मँगाओ, देखूँ। उनमें से जा सबसे अच्छा होगा, उसे मैं ले लूँगी। अबकी मैं भी त तुम्हारे साथ शिकार खेलने चलूँगी। बोलो, मुझे ले चलोगे न? मैं मानूँगी नहीं। बहाने मत करने लगना।
अपने शिकारी तोहफ़े दिखाने का कुँवर साहव को मरज था। सैकड़ो ही खालें जमा कर रखी थी। उनके कई कमरों में फर्श, गद्दे, कोच, कुर्सियाँ, मोढ़े सब खालों ही के थे। ओढ़ना और बिछौना भी खालों ही का था। बाघम्बरों के कई सूट बनवा रखे थे। शिकार में वहीं सूट पहनते थे। अबकी भी बह त से सींग, सिर, पंजे, खालें जमा कर रखी थी। वसुधा का इन चीजों से अवश्य मनोरंजन होगा। यह न समझे कि वसुधा ने सिंहद्वार से प्रवेश न पाकर चोर दरवाजे से घुसने का प्रयत्न किया हैं। जाकर वह चीजें उठवा लाये; लेकिन आदमियों को परदे की आड़ में खड़ा करके पहले अकेले ही उसके पास गये! डरते थे, कहीं मेरी उत्सुकता वसुधा को बुरी न लगे।
वसुधा ने उत्सुक होकर पूछा- चीजें लाये?
‘लाया हूँ, मगर कहीं डॉक्टर साहब न आ जाये।’
‘डॉक्टर नें पढ़ने-लिखने को मना किया था।’
तोहफे लाये गये। कुँवर साहब एक-एक चीज निकालकर दिखाने लगे। वसुधा के चेहरे पर हर्ष की ऐसी लाली हफ्तों से न दिखी थी, जैसे कोई बालक तमाशा देखकर मग्न हो रहा हैं बीमारी के बाद हम बच्चों की तरह जिद्दी, उतने ही आतुर, उतने ही सरल हो जाते हैं। जिन किताबों में कभी मन न लगा हो, वह बीमारी के बाद पढ़ी जाती हैं। वसुधा जैसे उल्लास की गोद में खेलने लगी। शेरों की खालें थी, बाघों की, मृगों की, शूकरों की। वसुधा हर खाल को नयी उमंग से देखती, जैसे बायस्कोप के एक चित्र के बाद दूसरा आ रहा हो, कुँवर साहब एक- एक तोहफ़े का इतिहास सुनाने लगे। यह जानवर कैसे मारा गया, उसके मारने में क्या-क्या बाधाएँ पड़ी, क्या-क्या उपाय करने पड़े, पहले कहाँ गोली लगी आदि। वसुधा हरेक कथा आँखें फाड़-फाड़कर सुन रही थी। इतनी सजीवता, स्फूर्ति आनन्द उसे आज तक किसी कविता, संगीत या आमोद में भी न मिला था। सबसे सुन्दर एक सिंह की खाल थी। यहीं उसने छाँटी!
कुँवर साहब की यह सबसे बहुमूल्य वस्तु थी। इसे अपने कमरे में लटकाने को रखे हुए थे। बोले- तुम बाघम्बरों में से कोई ले लो। यह तो कोई अच्छी चीज नहीं हैंय
वसुधा ने खाल को अपनी ओर खींचकर कहा- रहने दीजिए अपनी सलाह। मैं खराब ही लूँगी।
कुँवर साहब नें जैसे अपनी आँखों से आँसू पोंछकर कहा- तुम वही ले लो, मैं तो तुम्हारे खयाल से कह रहा था। मैं फिर वैसे ही मार लूँगा।
‘तो तुम मुझे चकमा क्यों देते थे?’
‘चकमा कौन देता था?’
‘अच्छा खाओ मेरे सिर की कसम, कि यह सबसे न्दर खाल नहीं हैं?’
कुँवर साहब ने हार ही हँसी हँसकर कहा- कसम क्यों खाएँ, इस एक खाल के लिए? ऐसी-ऐसी एक लाख खालें हो, तो तुम्हारे ऊपर नयोछावर कर दूँ।
जब शिकारी सब खाले लेकर चला गया, तो कुँवर साहब ने कहा- मैं इस खाल पर काले ऊन से अपना समर्पण लिखूँगा।
वसुधा ने थकान से पँलग पर लेटते हुए कहा- अब मै भी शिकार खेलने चलूँगी। फिर सोचने लगी, वह भी कोई शेर मारेगी और उसकी खाल पतिदेव को भेंट करेगी। उस पर लाल ऊन से लिखा जायेगा- प्रियतम!
जिस ज्योति के मन्द पड़ जाने से हरेक व्यापार, हरेक व्यंजन पर अंधकार-सा छा गया था, वह ज्योति अब प्रदीप्त होने लगी थी।
शिकारों का वृत्तांत सुनने की वसुधा को चाट-सी पड़ गयी। कुँवर साहब को कई- कई बार अपने अनुभव सुनाने पड़े। उसका सुनने से जी ही न भरता था। अब तक कुँवर साहब का संसार अलग था, जिसके दु:ख-सुख, हानि-लाभ, आशा-निराशा से वसुधा को कोई सरोकार न था। वसुधा को इस संसार के व्यापार से कोई रुचि न थी; बल्कि अरुचि थी। कुँवर साहब इस प्रथक संसार को बातें उससे छिपाते थे; पर अब वसुधा उसके इस संसार मे एक उज्जवल प्रकाश, एक वरदानोंवाली देवी के समान हो गयी। थी।
एक दिन वसुधा ने आग्रह किया- मुझे बंदूक चलाना सिखा दो।
डॉक्टर साहब की अनुमति मिलने मे विलम्ब न हुआ। वसुधा स्वस्थ हो गयी थी। कुँवर साहब ने शुभ मुहुर्त में उसे दीक्षा दी। उस दिन से जब देखो, वृक्षों की छाँह में खड़ी निशाने का अभ्यास कर रही हैं और कुँवर साहब खड़े उसकी परीक्षा ले रहे हैं।
जिस दिन उसने पहली चिड़िया मारी, कुँवर साहब हर्ष से उछल पड़े। नौकरों को इनाम दिये गये; ब्राह्मणों को दान दिया गया। इस आनन्द की शुभ स्मृति में उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गयी।
वसुधा के जीवन में अब एक नया उत्साह, एक नया उल्लास, एक नयी आशा थी। पहले की भाँति उसका वंचित हृदय अशुभ कल्पनाओं से त्रस्त न था। अब उसमें विश्वास था, बल था, अनुराग था।
कई दिनों के बाद वसुधा की साध पूरी हुई। कुँवर साहब उसे साथ लेकर शिकार खेलने पर राजी हुए और शिकार था शेर का और शेर भी वह, जिसने इधर महीने से आसपास के गाँवों में तहलका मचा दिया था।
चारों तरफ अंधकार था, ऐसा सघन कि पृथ्वी उसके भार से कराहती हुई जान पड़ती थी। कुँवर साहब और वसुधा एक ऊँचे मचान पर बंदूकें लिए दम साधे बैठे हुए थे। यह भयंकर जन्तु था। अभी पिछली रात को वह एक सोते हुए आदमी को खेत में मचान पर से खींचकर ले भागा था। उसकी चालाकी पर लोग दाँतों तले अँगुली दबाते थे। मचान इतना ऊँचा था कि शेर उछलकर न पहुँच सकता था। हाँ, उसने देख लिया था कि वह आदमी मचान पर बाहर की तरफ सिर किये सो रहा था। दुष्ट को एक चाल सूझी। वह पास के गाँव में गया और वहाँ से एक लम्बा बाँस उठा लाया। बाँस के एक सिरे को उसने दाँतों से कुचला और जब उसकी कूची-सी बन गयी, तो उसे न जाने अगले पंजों या दाँतों से उठाकर सोनेवाले आदमी के बालों में फिराने लगा। वह जानता था, बाल बाँस के रेशों में फँस जाएँगे। एक झटके में वह अभागा आदमी नीचे आ रहा। इसी मानुस -भक्षी शेर की घात मे दोनो शिकारी बैठे हुए थे। नीचे कुछ, दूर पर भैंसा बाँध दिया गया था और शेर के आने की राह देखी जा रही थी। कुँवर साहब शान्त थे; पर वसुधा की छाती धड़क रही थी। जरा-सा पत्ता भी खड़कता तो वह चौक पड़ती और बन्दूक सीधी करने के बदले चौंककर कुँवर साहब से चिपट जाती। कुँवर साहब बीच-बीच में उसको हिम्मत बँधाते जाते थे।
‘ज्यों ही भैंसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दूँगा। तुम्हारी गोली की नौबत ही न आने पायेगी।’
वसुधा ने सिहरकर कहा- और जो कहीं निशाना चूक गया तो उछलेगा?
‘तो फिर दूसरी गोली चलेगी। तीनों बन्दूके तो भरी तैयार रखी हैं। तुम्हारा जी घबड़ाता तो नहीं?’
‘बिलकुल नही। मैं तो चाहती हूँ, पहला मेरा निशाना होता।’
पत्ते खड़खड़ा उठे। वसुधा चौंककर पति के कंधों से लिपट गयी। कुँवर साहब ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा- दिल मजबूत करो प्रिये! वसुधा ने लज्जित होकर कहा- नही-नहीं, मैं डरती नही, जरा चौंक पड़ी थी?
सहसा भैसे के पास दो चिनगारियाँ-सी चमक उठीं। कुँवर साहब ने धीरे से वसुधा का हाथ दबाकर शेर के आने की सूचना दी और सतर्क हो गये। जब शेर भैंसे पर आ गया, तो उन्होंने निशाना मारा। खाली गया। दूसरा फैर किया, शेर जख्मी तो हुआ, पर गिरा नहीं। क्रोध से पागल होकर इतने जोर से गरजा की वसुधा का कलेजा दहल उठा। कुँवर साहब तीसरा फैर करने जा रहे थे कि शेर ने मचान पर जस्त मारी। उसके अगले पंजों के धक्के से मचान ऐसा हिला कि कुँवर साहब हाथ में बन्दूक लिए झोंके से नीचे गिर पड़े। कितनी भीषण अवसर था! अगर एक पल का भी विलम्ब होता, तो कुँवर साहब की खैरियत न थी। शेर की जलती हुई आँखें वसुधा के सामने चमक रही थी। उसकी दुर्गन्धमय साँस देह में लग रही हैं। हाथ-पाँव फूले हुए थे। आँखें भीतर को सिकुड़ी जा रही थीं; पर इस खतरे ने जैसे उसकी नाड़ियों में बिजली भर दी। उसने अपनी बन्दूक सँभाली। शेर के और उसके बीच में दो हाथ से ज्यादा अन्तर न था। वह उचककर आना ही चाहता था, वसुधा ने बन्दूक की नली उसकी आँखों में डालकर बन्दूक छोड़ी। धायँ! शेर के पंजे ढीले पड़े। नीचे गिर पड़ा। अब समस्या और भीषण थी। शेर से तीन ही चार कदम पर कुँवर साहब गिरे थे। शायद ज्यादा चोट आयी हो। शेर में अगर अभी दम हैं, तो वह उन पर जरूर वार करेगा। वसुधा के प्राण आँखों में थे और बल कलाईयों में। इस वक़्त कोई इसकी देह में भाला भी चुभा देता, तो उसे खबर न होती। वह अपने होश मे न थी। उसकी मूर्च्छा ही चेतना का काम कर रही थी। उसने बिजली की बत्ती जलायी। देखा, शेर उठने की चेष्टा कर रहा हैं। दूसरी गोली सिर पर मारी और उसके साथ ही रिवाल्वर लिये नीचे कूदी। शेर जोर से गुर्राया, वसुधा ने उसके मुँह के सामने रिवाल्वर खाली कर दिया। कुँवर साहब सँभलकर खड़े हो गये। दौड़कर उसे छाती से चिपटा लिया। अरे! यह क्या! वसुधा बेहोश थी। भय उसके प्राणों को मुट्ठी में लिए उसकी आत्म-रक्षा कर रहा था। भय के शान्त होते ही मूर्च्छा आ गयी।
तीन घंटे के बाद वसुधा की मूर्च्छा टूटी। उसकी चेतना अब भी उसी भयप्रद परिस्थितियों में विचर रही थी। उसने धीरे से डरते-डरते आँखे खोली। कुँवर साहब ने पूछा- कैसा जी हैं प्रिये?
वसुधा ने उसकी रक्षा के लिए दोनों हाथों का घेरा बनाते हुए कहा- वहाँ से हट जाओ। ऐसा न हो, झपट पड़े।
कुँवर साहब ने हँसकर कहा- शेर कब का ठंड़ा हो गया। वह बरामदे में पड़ा हैं। ऐसे डील-डौल का, और इसना भयंतक शेर मैने नही देखा।
वसुधा- तुम्हें चोट तो नहीं आयी?
कुँवर – बिल्कुल नही। तुम कूद क्यों पड़ी? पैरों में बड़ी चोट आयी होगी। तुम कैसे बचीं, यह आश्चर्य हैं। मैं तो इतनी ऊँचाई से कभी न कूद सकता।
वसुधा ने चकित होकर कहा- मैं! मैं कहाँ कूदी? शेर मचान पर आया, इतना याद हैं। इसके बाद क्या हुए, मुझे कुछ याद नहीं।
कुँवर को भी विस्मय हुआ- वाह! तुमने उस पर दो गोलियाँ चलायीं। जब वह नीचे गिरा, तो तुम भी कूद पड़ी और उसके मुँह में रिवाल्वर की नली ठूँस दी, बस ठंडा हो गया। बड़ा बेहया जानवर था। अगर तुम चूक जाती, तो वह नीचे आते ही मुझ पर जरूर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भी न थी। बन्दूक हाथ से छूटकर दूसरी तरफ गिर गयी थी। अँधेरे में कुछ सुझाई न देता था। तुम्हारे ही प्रसाद से इस वक़्त मैं यहाँ खड़ा हूँ । तुमने मुझे प्राणदान दिया।
दूसरे दिन प्रातःकाल यहाँ से कूच हुआ।
जो घर वसुधा को फाड़े खाता था, उसमें आज जाकर ऐसा आनन्द आया, जैसे किसी बिछुड़े मित्र से मिली हो। हरेक वस्तु उसका स्वागत करती हुई मालूम होती थी। जिन नौकरों और लौंड़ियों से वह महीनों से सीधे मुँह न बोली थी, उनसे वह आज हँस-हँसकर कुशल पूछती और गले मिलती थी, जैसे अपनी पिछली रुखाइयों की पटौती कर रही हो।
संध्या का सूर्य, आकाश के स्वर्ण-सागर में अपनी नौका खेता हुआ चला जा रहा हैं। वसुधा खिड़की के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य देखने लगी। उस दृश्य में आज जीवन था, विकास था, उन्माद था। केवट का वह सूना झोंपड़ा भी आज कितना सुहावना लग रहा था। प्रकृति में मोहनी भरी हुई थी।
मन्दिर के सामने मुनिया राजकुमारों को खिला रही थी। वसुधा के मन में आज कुलदेव के प्रति श्रद्धा जागृत हुई, जो बरसों से पड़ी सो रही थी। उसने पूजा के सामान मँगवाये और पूजा करने चली। आनन्द से भरे भंडार में अब वह दान भी कर सकती थी। जलते हुए हृदय से ज्वाला के सिवा और क्या निकलती!
उसी वक़्त कुँवर साहब आकर बोले- अच्छा, पूजा करने जा रही हो। मैं भी वहाँ जा रहा था। मैंने एक मनौती मान रखी हैं।
वसुधा ने मुस्कराती हुई आँखों से पूछा- कैसी मनौती हैं?
कुँवर साहब ने हँसकर कहा- यह न बताऊँगा।