website under maintenance!

नया विवाह (Naya Vivah)

हमारी देह पुरानी हैं, लेकिन इसमें सदैव नया रक्त दौड़ता रहता हैं। नये रक्त के प्रवाह पर ही हमारे जीवन का आधार है। पृथ्वी की इस चिरन्तन व्यवस्था में यह नयापन उसके एक-एक अणु में, एक-एक कण में, तार में बसे हुए स्वरों की भाँति, गूँजता रहता हैं और यह सौ साल की बुढ़िया आज भी नवेली दुल्हन बनी हूई हैं।

जब से लाला डंगामल ने नया विवाह किया हैं, उनका जीवन नये सिरे से जाग उठा हैं। जब पहली स्त्री जीवित थी, तब वे घर में बहुत कम रहते थे। प्रातःकाल से दस ग्यारह बजे तक तो पूजा-पाठ ही करते रहते थे। फिर भोजन करके दूकान चले जाते। वहाँ से एक बजे लौटते और थके-माँदे सो जाते। यदि लीला कभी कहती, जरा और सबेरे आ जाओ, तो बिगड़ जाते और कहते – तुम्हारे लिए क्या दूकान छोड़ दूँ या रोजगार बन्द कर दूँ? यह वह जमाना नही हैं कि एक लोटा जल चढ़ाकर लक्ष्मी प्रसन्न कर ली जायँ। आज उनकी चौखट पर माथा रगड़ना पड़ता हैं; तब भी उनका मुँह सीधा नहीं होता। लीला बेचारी चुप हो जाती।

अभी छः महीने की बात हैं। लीला को ज्वर चढ़ा हुआ था लालाजी दूकान जाने लगे, तब उसने डरते-डरते कहा था- देखो, मेरा जी अच्छा नहीं है। जरा सबेरे आ जाना।

डंगामल ने पगड़ी उतर कर खूँटी पर लटका दी और बोले- अगर मेरे बैठे रहने से तुम्हारा जी अच्छा हो जाय, तो मैं दूकान पर न जाऊँगा।

लीला हताश होकर बोली- मैं दूकान जाने को तो नहीं मना करती। केवल जरा सबेरे आने को कहती हूँ।

‘तो क्या दूकान पर बैठा मौज किया करता हूँ?’

लीला इसका क्या जवाब देती? पति का स्नेह-हीन व्यवहार उसके लिए कोई नयी बात न थी। इधर कई साल से उसे कठोर अनुभव हो रहा था कि उसको इस घर में कद्र नहीं हैं। वह अक्सर इस समस्या पर विचार भी किया करती, पर वह अपना कोई अपराध न पाती। वह पति की सेवा पहले से कहीं ज्यादा करती, उनके कार्य-भार को हल्का करने की बराबर चेष्ठा करती, बराबर प्रसन्नचित रहती; कभी उनकी आज्ञा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती। अगर उसकी जवानी ढल चुकी थी, तो इसमें उसका क्या अपराध था? किसकी जवानी सदैव स्थिर रहती हैं? अगर अब उसका स्वास्थ्य उतना अच्छा न था, तो इसमें उसका क्या दोष? उसे बेकसूर क्यों दंड दिया जाता हैं?

उचित तो यह था कि 25 साल का साहचर्य अब एक गहरी मानसिक और आत्मिक अनुरूपता का रूप धारण कर लेता, जो दोष को भी गुण बना लेता हैं, जो पके फल की तरह ज्यादा रसीला, ज्यादी मीठा, ज्यादा सुन्दर हो जाता हैं। लेकिन लालाजी का वणिक-हृदय हर एक पदार्थ को वाणिज्य की तराजू से तौलता था। बूढ़ी गाय जब न दूध दे सकती हैं न बच्चे, तब उसके लिए गौशाला ही सबसे अच्छी जगह हैं। उनके विचार में लीला के लिए इतना ही काफी था कि मालकिन बनी रहे; आराम से खाय और पड़ी रहे। उसे अख्तियार हैं चाहे जितने जेवर बनवाये, चाहे जितना स्नान व पूजा करे, केवल उनसे दर रहे। मानव-प्रकृति की जटिलता का एक रहस्य यह था कि डंगामल जिस आनन्द से लीला को वंचित रखना चाहते थे, जिसकी उसके लिए कोई जरूरत ही न समझते थे, खुद उसी के लिए सदैव प्रयत्न करते रहते थे। लीला 40 साल की होकर बूढ़ी समझ ली गयी थी किन्तु खुद तैतालीस के होकर अभी जवान थे जवानी के उन्माद, और उल्लास से भरे हुए। लीला से अब उन्हें एक तरह की अरुचि होती थी और वह दुखिया जब अपनी त्रुटियों का अनुभव करके प्रकृति के निर्दय आघातों से बचने के लिए रंग व रोगन की आड़ लेती, तब लालाजी उसके बूढ़े नखरों से और भी घृणा करने लगते। वे कहते – वाह री तृष्णा! सात लड़को की तो माँ हो गयी, बाल खिचड़ी हो गये, चेहरा धुले हुए फलालैन की तरह सिकुड़ गया, मगर आपको अभी महावर, सेंदुर, मेंहदी और उबटन की हवस बाकी ही हैं। औरतों का स्वभाव भी कितना विचित्र हैं! न जाने क्यो बनाव-सिंगार पर इतनी जान देती हैं? पूछो, अब तुम्हें और क्या चाहिए। क्यों नहीं मन को समझा लेती कि जवानी विदा हो गयी हैं और इन उपदानों से वह वापस नहीं बुलायी जा सकती! लेकिन खुद जवानी का स्वप्न देखते रहते थे। उनकी जवानी की तृष्णा अभी शान्त न हुई थी। जाड़ो में रसों और पार्कों का सेवन करते रहते थे। हफ्ते में दो बार खिजाब लगाते और एक डॉक्टर से मंकीग्लैंड के विषय में पत्र-व्यवहार कर रहे थे।

लीला ने उन्हें असमंजस में देखकर कातर-स्वर में पूछा- कुछ बतला सकते हो, कै बजे आओगे?

लालाजी ने शान्त भाव से पूछा- तुम्हारा जी आज कैसा हैं?

लीला क्या जवाब दे? अगर कहती है कि बहुत खराब हैं, तो शायद वे महाशय वहीं बैठ जाय और उसे जली-कटी सुनाकर अपने दिल का बुखार निकाले। अगर कहती हैं कि अच्छी हूँ, तो शायद निश्चिन्त होकर दो बजे तक कहीं खबर ले। इस दुविधा में डरते-डरते बोली- अब तक तो हल्की थी, लेकिन अब कुछ भारी हो रही हैं। तुम जाओ, दूकान पर लोग तुम्हारी राह देखते होंगे। हाँ, ईश्वर के लिए एक-दो न बजा देना। लड़के सो जाते हैं, मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगती, जी घबराता हैं।

सेठजी ने अपने स्वर में स्नेह की चाशनी देकर कहा- बारह बजे तक आ जरूर जाऊँगा।

लीला का मुख धूमिल हो गया। उसने कहा- दस बजे तक नहीं आ सकते?

‘साढ़े ग्यारह से पहले किसी तरह नहीं।’

‘नहीं, साढ़े दस’

‘अच्छा, ग्यारह बजे।’

लाला वादा करके चले गये, लेकिन दस बजे रात को एक मित्र ने मुजरा सुनने के लिए बुला भेजा। इस निमन्त्रण को कैसे इनकार कर देते। जब एक आदमी आपको खातिर से बुलाता है, तब यह कहाँ की भलमनसाहत हैं कि आप उसका निमन्त्रण अस्वीकार कर दें?

लालाजी मुजरा सुनने चले गये दो बजे लौटे। चुपके से आकर नौकर को जगाया और अपने कमरे में आकर लेट रहे। लीला उनकी राह देखती, प्रतिक्षण विकल- वेदना का अनुभव करती हुई न-जाने कब सो गयी थी।

अन्त को इस बीमारी ने अभागिनी लीला की जान ही लेकर छोड़ा। लालाजी को उसके मरने का बड़ा दुःख हुआ। मित्रों ने समवेदना के तार भेजें। एक दैनिक पत्र ने शोक प्रकट करते हुए लीला की मानसिक और धार्मिक सदगुणों को खूब बढ़ाकर वर्णन किया। लालाजी ने इस सभी मित्रों को हार्दिक धन्यवाद दिया और लीला के नाम से बालिका-विद्यालय में पाँच वजीफे प्रदान किये तथा मृतक-भोज तो जितने समारोह से किया गया, वह नगर के इतिहास में बहुत दिनों तक याद रहेगा।

लेकिन एक महीना भी न गुजरने पाया था कि लालाजी के मित्रों ने चारा डालना शुरू कर दिया और उसका यह असर हुआ कि छः महीने की विधुरता के तप के बाद उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। आखिर बेचारे क्या करते? जीवन में एक सहचरी की आवश्यकता तो थी ही और इस उम्र में तो एक तरह से अनिवार्य हो गयी थी।

जब से नयी पत्नी आयी, लीलाजी के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया।

दूकान से अब इतना प्रेम नही था। लगातार हफ्तों न जाने में भी उनके कारबार में कोई हर्ज नहीं होता था। जीवन के उपभोग की जो शक्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी, अब वह छीटें पाकर सजीव हो गयी थी, सूखा पेड़ हरा हो गया था, उसमें नयी-नयी कोपलें फूटने लगी। मोटर नयी आ गयी थी, कमरे नये फर्नीचर से सजा दिये गये थे, नौकरों की भी संख्या बढ़ गयी थी, रेडियो आ पहुँचा था और प्रतिदिन नये-नये उपहार आते रहते थे। लालाजी की बूढ़ी जवानी जवानों की जवानी से भी प्रखर हो गयी थी, उसी तरह जैसे बिजली का प्रकाश चन्द्रमा से ज्यादा स्वच्छ और मनोरंजक होता हैं। लालाजी को उनके मित्र इस रूपान्तर पर बधाइयाँ देते, जब वे गर्व के साथ कहते – भाई, हम तो हमेशा जवान रहे और हमेशा जवान रहेंगे। बुढ़ापा यहाँ आये तो उसके मुँह में कालिख लगाकर गधे पर उलटा सवार कराके शहर से निकाल दे। जवानी का उम्र से उतना ही सम्बन्ध है; जितना धर्म का आचार से, रुपये का ईमानदारी से, रूप का श्रृंगार से। आजकल के जवानों को आप जवान कहते हैं? उनकी एक हजार जवानियों को अपने एक घंटे से भी न बदलूँगा। मालूम होता हैं उनकी जिन्दगी में कोई उत्साह ही नहीं, कोई शौक नहीं। जीवन क्या है, गले में पड़ा हुआ एक ढोल है।

यही शब्द घटा-बढ़ाकर वे आशा के हृदय-पटल पर अंकित करते रहते थे। उससे बारबर सिनेमा, थियेटर और दरिया की सैर के लिए आग्रह करते रहते। लेकिन आशा को न जाने क्यों इन बातों में जरा भी रुचि न थी। वह जाती तो थी, मगर बहुत टाल-टूट के बाद। एक दिन लालाजी ने आकर कहा- चलो, आज बजरे पर, दरिया की सैर करे।

वर्षा के दिन थे, दरिया चढ़ा हुआ था, मेघ-मालाएँ अन्तर्राष्ट्रीय सेनाओं की भाँति रंग-विरंगी वर्दियाँ पहने आकाश में कवायद कर रही थीं। सड़क पर लोग मलार और बारहमासा गाते चलते थे। बागों में झूले पड़ गये थे।

आशा ने बेदिली से कहा- मेरा जी तो नहीं चाहता।

लालाजी ने मृदु प्रेरणा के साथ कहा- तुम्हारा मन कैसा हैं जो आमोद-प्रमोद की ओर आकर्षित नहीं होता चलो जरा दरिया की सैर देखो। सच कहता हूँ, बजरे पर बड़ी बहार रहेगी।

‘आप जायँ। मुझे और कई काम करने हैं।’

‘काम करने के लिए आदमी हैं। तुम क्यों काम करोगी?’

‘ महाराज अच्छे सालन नहीं पकाता। आप खाने बैठेगे तो यो ही उठ जायँगे।’

लीला अपने अवकाश का बड़ा भाग लालाजी के लिए तरह-तरह का भोजन पकाने में लगाती थी। उसने किसी से सुन रखा था कि एक विशेष अवस्था के बाद पुरुष के जीवन का सबसे बड़ा सुख रसना का स्वाद ही रह जाता हैं।

लालाजी की आत्मा खिल उठी। उन्होंने सोचा कि आशा को उनसे कितना प्रेम हैं कि दरिया की सैर को उनकी सेवा के लिए छोड़ रही हैं। एक लीला थी कि ‘मान- न-मान’ चलने को तैयार रहती थी। पीछा छुड़ाना पड़ता था, ख्वामख्वाह सिर पर सवार हो जाती थी और सारा मजा किरकिरा कर देती थी।

स्नेह-भरे उलहने से बोले- तुम्हारा मन भी विचित्र हैं। अगर एक दिन सालन फीका ही रहा, ऐसा क्या तूफान आ जायगा? तुम तो मुझे बिलकुल निकम्मा बनाये देती हो। अगर तुम न चलोगी, तो मै भी न जाऊँगा।

आशा ने जैसे गले से फन्दा छुड़ाते हुए कहा- आप भी तो मुझे इधर-उधर घुमा- घुमाकर मेरा मिजाज बिगाड़ देते हैं। यह आदत पड़ जायगी, तो घर का धन्धा कौन करेगा?

‘मुझे घर के धन्धे की रत्ती-भर भी परवा नहीं- बाल की नोक बराबर भी नही? मै चाहता हूँ कि तुम्हारा मिजाज बिगड़े और तुम इस गृहस्थी की चक्की से दूर रहो और तुम मुझे बार-बार आप क्यों कहती हो? मैं चाहता हूँ, तुम मुझे तुम कहो, तू कहो, गालियाँ दो, धौल जमाओ। तुम तो मुझे आप कहकर जैसे देवता के सिंहासन पर बैठा देती हो। मैं अपने घर का देवता नही, चंचल बालक बनना चाहता हूँ’

आशा ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा- भला, मैं आपको ‘तुम’ कहूँगी। तुम बराबर वाले को कहा जाता हैं कि बड़ो को?

मुनीम ने एक लाख के घाटे की खबर सुनायी होती, तो भी शायद लालाजी को इतना दुःख न होता जितना आशा के इन कठोर शब्दो से हुआ। उनका सारा उत्साह, सारा उल्लास जैसे ठंड़ा पड़ गया। सिर पर बाँकी रखी हुई फूलदार टोपी, गले में पड़ी हुई जोगियें रंग की चुनी हुई रेशमी चादर, वह तंजेब का बेलदार कुर्ता, जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे यह सारा ठाठ कैसे उन्हें हास्यजनक जान पड़ने लगा, जैस वह सारा नशा किसी मन्त्र से उतर गया हो।

निराश होकर बोले- तो तुम्हें चलना हैं या नहीं।

‘मेरी जी नहीं चाहता।’

‘तो मैं भी न जाऊँगा?’

मैं आपको कब मना करती हूँ?’

‘फिर ‘ आप’ कहा?’

आशा ने जैसे भीतर से जोर लगा कर कहा ‘तुम’ और उसका मुखमंडल लज्जा से आरक्त हो गया।

‘हाँ, इसी तरह ‘तुम’ कहा कहो। तो तुम नहीं चल रही हो? अगर मैं कहूँ, तुम्हें चलना पड़ेगा?’

‘तब चलूँगी। आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म हैं।’

लालाजी आज्ञा न दे सके। आज्ञा और धर्म जैसे शब्द उनके कानों में चुभने-से लगे। खिसियाते हुए बाहर को चल पड़े; उस वक़्त आशा को उनपर दया आ गयी। बोली- तो कब तक लौटोगे?

‘मै नहीं जा रहा हूँ ।’

‘अच्छा, तो मै भी चलती हूँ ।’

जैसे कोई जिद्दी लड़का रोने के बाद अपनी इच्छित वस्तु पाकर उसे पैरो से ठुकरा देता हैं, उसी तरह लालाजी ने मुँह बनाकर कहा- तुम्हारा जी नहीं चलता, तो न चलो। मैं आग्रह नहीं करता।

‘आप नहीं, तुम बुरा मान जाओगे।’

आशा गयी लेकिन उमँग से नही। जिस मालूमी वेश में थी उसी तरह चल खड़ी हूई। न कोई सजीली साड़ी, न जड़ाऊ गहने, न कोई सिंगार, जैसे कोई विधवा हो।

ऐसी ही बातों पर लालाजी मन में झुझला उठते थे। ब्याह किया था, जीवन का आनन्द उठाने के लिए, झिलमिलाते हुए दीपक में तेल डालकर उसे और चटक करने के लिए। अगर दीपक का प्रकाश तेज न हुआ, तो तेल डालने से लाभ? न- जाने इसका मन क्यों इतना शुष्क और नीरस हैं, जैसे कोई ऊसर का पेड़ हो, कितना ही पानी डालो, उससे हरी पत्तियों के दर्शन न होगे। जड़ाऊ गहनों से भरी पेटारियाँ खुली हुई हैं, कहाँ-कहाँ से मँगवाये – दिल्ली से, कलकते से, फ्रांस से। कैसी-कैसी बहुमूल्य साडियाँ रखी हुई हैं। एक नहीं, सैकड़ो। पर केवल सन्दूक में कीड़ो का भोजन बनने के लिए। दरिद्र घर की लड़कियों में यही ऐब होता हैं। उनकी दृष्टि सदैव संकीर्ण रही हैं। न खा सकें, न पहने सकें, न दे सकें। उन्हें तो खजाना भी मिल जाय, तो यही सोचती रहेगी कि खर्च कैसे करें।

दरिया की सैर तो हुई, पर विशेष आनन्द न आया कई महीनों

तक आशा की मनोवृत्तियाँ जगाने का असफल प्रयत्न करके लालाजी ने समझ लिया कि इनकी पैदाइश ही मुहर्रमी हैं। लेकिन फिर भी निराश न हुए। ऐसे व्यापार में एक बड़ी रकम लगाने के बाद वे उसेमें अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की वणिक-प्रवृति को कैसे त्याग देते? विनोद की नयी-नयी योजनाएँ पैदा की जाती- ग्रामोफोन अगर बिगड़ गया हैं, गाता नहीं, या साफ आवाज नहीं निकलती तो उसकी मरम्मत करानी पडेगी। उसे उठाकर रख देना तो मूर्खता हैं।

इधर बूढ़ा महाराज एकाएक बीमार होकर घर चला गया था, और उसकी जगह उसका सत्रह-अठारह साल का जवान लड़का आ गया – कुछ आवाज गँवार था, बिलकुल झंगड़, उजड्ड। कोई बात ही न समझता था। जितने फुलके बनाता उतनी तरह के। हाँ, एक बात समान होती। सब बीच में मोटे होते, किनारे पतले। दाल कभी तो इतनी पलती जैसे चाय, कभी इतनी गाढी जैसे दही। नमक कभी इतना तेज की नींबू का शाकीन। आशा मुँह-हाथ धोकर चौके में पहुँच जाती और इस अपोरशंख को भोजन पकाना सिखाती। एक दिन उसने कहा- तुम कितने नालायक आदमी हो जुगल। आखिर इतनी उम्र तक तुम घास खोदते रहे या भाड़ झोकते रहे कि फुलके तक नही बना सकते? जुगल आँखों में आँसू भर कर कहता- बहूजी, अभी मेरी उम्र ही क्या हैं? सत्रहवाँ ही तो पूरा हुआ हैं।

आशा को उसकी बात पर हँसी आ गयी। उसने कहा- तो रोटियाँ पकाना क्या दस-पाँच साल में आता हैं।

‘आप एक महीना सिखा दे बहूजी, फिर देखिए, मै आपको कैसे फुलके खिलाता हूँ कि जी खुश हो जाय। जिस दिन मुझे फुलके बनाने आ जायँगे, मै आपसे कोई इनाम लूँगा। सालन तो अब मैं कुछ-कुछ बनाने लगा हूँ, क्यो न?’

आशा ने हौसला बढाने वाली मुसकराहट के साथ कहा- सालन नहीं, वो बनाना आता हैं। अभी कल ही नमक इतना तेज था कि खाया न गया। मसाले में कचाँध आ रही थी।

‘मै जब सालन बना रहा था, तब आप यहाँ कब थी?’

‘अच्छा तो मैं यहाँ बैठी रहूँ तब तुम्हारा सालन बढिया पकेगा ?’

‘आप बैठी रहती हैं, तब मेरी अक्ल ठिकाने रहती हैं।’

आशा को जुगल की इन भोली बातों पर खूब हँसी आ रही थी। हँसी को रोकना चाहती थी, पर वह किसी तरह निकल पड़ती थी जैसे भरी बोतल उँडेल दी गयी हो।

‘और मैं नही रहती तब?’

‘तब तो आपके कमरे के द्वार पर जा बैठता हूँ। यहाँ बैठ कर अपनी तकदीर को रोता हूँ।’

आशा ने हँसी को रोक कर पूछा- क्यों, रोते हो?

‘यह न पूछिए बहुजी, आप इन बातों को नहीं समझेगी।’

आशा ने उसके मुँह की ओर प्रश्न की आँखो से देखा। उसका आशय कुछ तो समझ गयी, पर न समझने का बहाना किया।

‘तुम्हारे दादा आ जायँगे; तब तुम चले जाओगे?’

‘और क्या करूँगा बहूजी। यहाँ कोई काम दिलवा दीजिएगा, तो पड़ा रहूँगा। मुझे मोटर चलाना सिखवा दीजिए। आपको खूब सैर कराया करूँगा। नहीं, नहीं बहूजी आप हट जाइए मै पतीली उतार लूँगा। ऐसी अच्छी साड़ी हैं आपकी कहीं कोई दाग पड़ जाय, तो क्या हो?’

आशा पतीली उतार रही थी। जुगल ने उसके हाथ से सँडसी ले लेनी चाही।

‘दूर रहो। फूहड़ तो तुम हो ही। कहीं पतीली पाँव पर गिरा ली, तो महीनों झींकोगे।’

जुगल के मुख पर उदासी छा गयी।

आशा ने मुसकराकर पूछा- क्यों मुँह क्यो लटक गया सरकार का?

जुगल रुआँसा होकर बोला- आप मुझे डाँट देती है, बहूजी, तब मेरा दिल टूट जाता हैं। सरकार कितनी ही घुड़के, मुझे बिलकुल ही दु:ख नहीं होता। आपकी नजर कड़ी देखकर मेरा खून सर्द हो जाता हैं।

आशा ने दिलासा दिया- मैंने तुम्हें डाँटा तो नहीं, केवल यहीं तो कहा कि कहीं पतीली तुम्हारे पाँव पर गिर पड़े तो क्या हो?

‘हाथ ही तो आपका भी हैं। कहीं आपके ही हाथ से छूट पड़े तो?’

लाला डंगामल ने रसोई-घर के द्वार पर आकर कहा- आशा, जरा यहाँ आना। देखो, तुम्हारे लिए कितने सुन्दर गमले लाया हूँ। तुम्हारे कमरे के सामने रखे जायँगे। तुम यहाँ धुएँ-धक्कड़ में क्यों हलाकान होती हो? इस लड़के से कह दो कि जल्दी महाराज को बुलाये। नहीं तो मैं दूसरा आदमी रख लूँगा। महाराजों की कमी नहीं हैं। आखिर कब तक कोई रिआयत करे, गधे को जरा भी तमीज नहीं आयी। सुनता है जुगल, लिख दे आज अपने बाप को।

चूल्हें पर तवा रखा हुआ था। आशा रोटियाँ बेलने में लगी थी। जुगल तवे के लिए रोटियों का इन्तजार कर रहा था। ऐसी हालत में भला आशा कैसे गमले देखने जाती?

उसने कहा- जुगल रोटियाँ टेढ़ी-़मेढ़ी बेल डालेगा।

लालाजी ने कुछ चिढकर कहा- अगर रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेलेगा तो निकल दिया जायगा!

आशा अनसुनी करके बोली- दस-पाँच दिन में सीख जायगा, निकालने की क्या जरूरत हैं?

‘तुम आकर बतला दो, गमले कहाँ रखे जायँ’

‘कहती तो हूँ रोटियाँ बेलकर आती हूँ’

‘नहीं मै कहता हूँ तुम रोटियाँ मत बेलो।’

‘आप तो ख्वामख्वाह जिद करते हैं।’

लालाजी सन्नाटे में आ गये। आशा ने कभी इतनी रुखाई से उन्हें जवान न दिया था और यह केवल रुखाई न थी, इसमें कटुता भी थी। लज्जित होकर चले गये। उन्हें ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन गमलों को तोड़ कर फेंक दें और सारे पौधों को चूल्हें में डाल दे।

जुगल ने सहमे हुए स्वर में कहा- आप चली जायँ बहूजी, सरकार बिगड़ जायँगे।

‘बको मत; जल्दी-जल्दी फुलके, सेंको नहीं तो निकाल दिये जाओगे। और अज मुझसे रुपये लेकर अपने लिए कपड़े बनवा लो। भिखमंगों की-सी सूरत बनाये घूमते है। और बाल क्यों इतने बढ़ा रखे हैं? तुम्हें नाई भी नहीं जुड़ता?

जुगल ने दूर की बात सोची। बोला- कपड़े बनवा लूँ, तो दादा को हिसाब क्या दूँगा?

‘अरे पागल! मैं हिसाब में नही देने कहती। मुझसे ले जाना।’

जुगल काहिलपन की हँसी हँसा।

‘आप बनवायेंगी, तो अच्छे कपड़े लूँगा। खद्दर के मलमल का कुर्ता, खद्दर की धोती, रेशमी चादर, अच्छा-सा चप्पल।’

आशा ने मीठी मुसकान से कहा- और अगर अपने दाम से बनवाने पड़े।

‘तब कपड़े ही क्यों बनवाऊँगा?’

‘बड़े चालाक हो तुम।’

जुगल ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया – आदमी अपने घर में सूखी रोटियाँ खाकर सो रहता हैं, लेकिन दावत में तो अच्छे-अच्छे पकवान ही खाता हैं। वहाँ भी यदि सूखी रोटियाँ मिले, तो वह दावत में जाय ही नहीं।

‘यह सब नहीं जानती। एक गाढे का कुर्ता बनवा लो और एक टोपी ले लो, हजामत के लिए दो आने ऊपर से ले लो।’

जुगल ने मान करके कहा- रहने दीजिए। मैं नहीं लेता। अच्छे कपड़े पहन कर निकलूँगा, तब तो आपकी याद आवेगी। सड़ियल कपड़े पहने कर तो और जी जलेगा।

‘तुम स्वार्थी हो मुफ्त के कपड़े लोगे और साथ ही बढिया भी।’

‘जब यहाँ से जाने लगूँ, तब आप मुझे अपना एक चित्र दीजिएगा।’

‘मेरा चित्र लेकर क्या करोगे?’

‘अपनी कोठरी में लगाऊँगा और नित्य देखा करूँगा। बस, वही साड़ी पहन कर खिचवाना जो कल पहनी थी और वही मोतियों की माला भी हो। मुझे नंगी-नंगी सूरत अच्छी नहीं लगती। आपके पास तो बहुत गहने होंगे। आप पहनती क्यों नहीं!’

‘तो तुम्हें गहने अच्छे लगते हैं?’

‘बहुत।’

लालाजी ने फिर आकर जलते हुए मन से कहा- अभी तक तुम्हारी रोटियाँ नहीं पकीं जुगल? अगर कल से तूने अपने-आप अच्छी रोटियाँ न पकायी तो मैं तुझे निकाल दूँगा।

आशा ने तुरन्त हाथ-मुँह धोया और बड़े प्रसन्न मन से लालाजी के साथ गमले देखने चली। इस समय उसकी छवि में प्रफुल्लता का रौनक था बातों में भी जैसे शक्कर घुली हुई थी। लालाजी का सारा खिसियानापन मिट गया था।

उसने गमलों को क्षुब्ध आँखों से देखा। उसने कहा- मैं इनमें से कोई गमला न जाने दूँगी। सब मेरे कमरे के सामने रखवाना सब! कितने सुन्दर पौधे हैं वाह!

इनके हिन्दी नाम भी मुझे बतला देना।

लालाजी ने छेड़ा- सब गमले क्या करोगी दस-पाँच पसन्द कर लो। शेष मैं बाहर रखना दूँगा।

‘जी नहीं। मैं एक भी न छोडूँगी। सब यहीं रखे जायँगे।’

‘बड़ी लालचिन हो तुम।’

‘लालचिन ही सही। मै आपको एक भी न दूँगी।’

‘दो-चार तो दे दो? इतनी मेहनत से लाया हूँ।’

‘ जी नहीं इनमें से एक भी न मिलेगा।’

दूसरे दिन आशा ने अपने को आभूषण से खूब सजाया और फीरोजी साड़ी पहनकर निकली, तब लालाजी की आँखों में ज्योति आ गयी। समझे, अवश्य ही अब उनके प्रेम का जादू ‘कुछ-कुछ’ चल रहा हैं। नहीं तो उनके बार-बार के आग्रह करने पर भी बार-बार याचना करने पर भी उसने कोई आभूषण न पहना था। कभी-कभी मोतियों का हार गले में डाल लेती थी, वह भी ऊपरी मन से। आज वह आभूषणों से अलंकृत होकर फूली नहीं समाती, इतराती जाती है, मानो कहती हो देखो मैं कितनी सुन्दर हूँ।

पहले जो बन्द कली थी, वह आज खिल गयी थी।

लालाजी पर घड़ो का नशा चढा हुआ था। वे चाहते थे उनके मित्र और बन्धु-वर्ग आकर इस सोने की रानी के दर्शनों से अपनी आँखें ठंढ़ी करें। देखें कि वह कितनी सुखी, संतुष्ट और प्रसन्न हैं। जिन विद्रोहियों ने विवाह के समय तरह-तरह की शंकाएँ की थी वे आँखें खोलकर देखे कि डंगामल कितना सुखी हैं। विश्वास, अनुराग और अनुभव ने चमत्कार किया हैं?

उन्होंने प्रस्ताव किया- चलो, कहीं घूम आयें। बड़ी मजेदार हवा चल रही हैं।

आशा इस वक़्त कैसे कैसे जा सकती थी? अभी उसे रसोई में जाना था, वहाँ से कहीं बारह-एक बजे फुर्सत मिलेगी। घर के दूसरे धन्धे सिर पर ‘सवार हो जायँगे। सैर- सपाटे के पीछे क्या घर चौपट कर दे?

सेठजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा- नहीं, आज मैं तुम्हें रसोई में न जाने दूँगा।

‘महाराज के किये कुछ न होगा’

‘तो आज उसकी शामत भी आ जायगी।’

आशा के मुख पर से वह प्रफुल्लता जाती रहीं। मन भी उदास हो गया। एक सोफा पर लेट कर बोली- आज न-जाने क्यों कलेजे में मीठा-मीठा दर्द हो रहा हैं। ऐसा दर्द कभी नहीं होता था।

सेठजी घबरा उठे।

‘यह दर्द कब से हो रहा हैं?’

हो तो रहा हैं रात से ही लेकिन अभी कुछ कम हो गया था। अब फिर होने लगा हैं। रह-रह कर जैसे चुभन हो जाती हैं।’

सेठजी एक बात सोचकर दिल-ही-दिल में फूल उठे। अब वे गोलियाँ रंग ला रही हैं। राजबैद्यजी ने कहा भी था कि जरा सोच-समझ कर इनका सेवन कीजिएगा। क्यों न हो! खानदानी वैद्य हैं। इनके बाप बनारस के महाराजा के चिकित्सक थे। पुराने और परीक्षित नुस्खे हैं इनके पास। उन्होंने कहा- तो रात से ही यह दर्द हो रहा तुमने मुझसे कहा नहीं तो बैद्यजी से कोई दवा मँगवाता।

‘मैने समझा था, आप-ही-आप अच्छा हो जायगा, मगर अब बढ़ रहा हैं।’

‘कहाँ दर्द हो रहा हैं? जरा देखू! कुछ सूजन तो नहीं हैं?’

सेठजी ने आशा के आँचल की तरफ हाथ बढ़ाया। आशा ने शर्माकर सिर झुका लिया। उसने कहा- यह तुम्हारी शरारत मुझे अच्छी नही लगती। मैं अपनी जान से मरती हूँ तुम्हें हँसी सूझती हैं। जाकर कोई दवा ला दो।

सेठजी अपने पुंसत्व का यह डिप्लोमा पाकर उससे कहीं ज्यादा प्रसन्न हए, जितना रायबहादुरी पाकर होते। इस विजय का डंका पीटे बिना उन्हें कैसे चैन आ सकता था? जो लोग उनके विवाह के विषय में द्वेषमय टिप्पणियाँ कर रहे, थे उन्हें नीचा दिखाने का कितना अच्छा अवसर हाथ आया हैं और इतनी जल्दी।

पहले पंड़ित भोलानाथ के पास गये और भाग्य ठोंक कर बोले- भई मैं तो बड़ी विपत्ति में फँस गया। कल से कलेजे में दर्द हो रहा हैं। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। कहती हैं; ऐसा दर्द पहले कभी नहीं हुआ।

भोलानाथ ने कुछ बहुत हमदर्दी न दिखायी।

सेठजी यहाँ से उठ कर अपने दूसरे मित्र लाला फागमल के पास पहुँचे, और उनसे भी लगभग इन्हीं शब्दों में यह शोक-सम्वाद कहा।

फागमल बड़ा शोहदा था। मुसकरा कर बोला- मुझे तो आपकी शरारत मालूम होती हैं।

सेठजी की बाँछे खिल गयी। उन्होंने कहा- मैं अपनी दु:ख सुना रहा हूँ और तुम्हें दिल्लगी सूझती हैं, जरा भी आदमीयत तुममें नहीं हैं।

‘मै दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ । इसमे दिल्लगी की क्या बात हैं? वे हैं कमसिन, कोमलांगी, आप ठहरे पुराने लठैत, दंगल के पहलवान! बस! अगर यह बात न निकले तो मूँछे मुड़ा लूँ।’

सेठजी की आँखे जगमगा उठी। मन में यौवन की भावना प्रबल हो उठी और उसके साथ ही मुख पर भी यौवन की झलक आ गयी। छाती जैसे कुछ फैल गयी। चलते समय उनके पग कुछ अधिक मजबूती से जमीन पर पड़ने लगे और सिर की टोपी भी न जाने कैसे बाँकी हो गयी। आकृति से बाँकपन का शान बरसने लगी।

जुगल ने आशा को सिर से पाँव तक जगमगाते देखकर कहा- बस बहूजी आप इसी तरह पहने-ओढ़े रहा करें। आज मैं आपको चूल्हे के पास न आने दूँगा।

आशा ने नयन-बाण कर कहा- क्यों आज यह नया हुक्म क्यों पहले तो तुमने कभी मना नहीं किया।

‘आज की बात दूसरी हैं।’

‘जरा सुनूँ, क्या बात हैं?’

‘मैं डरता हूँ, आप कहीं नाराज न हो जायें?’

‘नहीं-नहीं, कहो, मैं नाराज न होऊँगी।’

‘आज आप बहुत सुन्दर लग रही हैं।’

लाला डंगामल ने असंख्य बार आशा के रूप और यौवन की प्रशंसा की थी; मगर उनकी प्रशंसा में उसे बनावट की गन्ध आती था। वह शब्द उनके मुख से निकलकर कुछ ऐसे लगते थे, जैसे कोई पंगु दौड़ने की चेष्ठा कर रहा हो। जुगल के इन सीधे शब्दों में एक उन्माद था, नशा था, एक चोट थी? आशा की सारी देह प्रकम्पित हो गयी।

‘तुम मुझे नजर लगा दोगे जुगल, इस तरह क्यों घूरते हो’

‘जब यहाँ से चला जाऊँगा, तब आपकी बहुत याद आयेगी।’

‘रसोई पका कर तुम सारे दिन क्या किया करते हो? दिखायी नहीं देते!’

‘सरकार रहते हैं, इसीलिए नहीं आता। फिर अब तो मुझे जवाब मिल रहा हैं। देखिए, भगवान् कहाँ ले जाते हैं।’

आशा की मुख-मुद्रा कठोर हो गयी। उसने कहा- कौन तुम्हें जवाब देता हैं?

‘सरकार ही तो कहते हैं, तुझे निकाल दूँगा।’

‘अपना काम किये जाओ कोई नहीं निकालेगा। अब तो तुम फुलके भी अच्छे बनाने लगे।’

‘सरकार हैं बड़े गुस्सेवर’

‘दो-चार दिन में उनका मिजाज ठीक किये देती हूँ।’

‘आपके साथ चलते हैं तो आपके बाप लगते हैं।’

‘तुम बड़े मुँहफट हो। खबरदार, जबान-सँभाल कर बातें किया करो।’

किन्तु अप्रसन्नता का यह झीना आवरण उनके मनोरहस्य को न छिपा सका। वह प्रकाश की भाँति उसके अन्दर से निकला पड़ता था।

जुगल ने फिर उसी निर्भीकता से कहा- मेरा मुँह कोई बन्द कर ले यहाँ यों सभी यही कहते हैं, मेरा ब्याह कोई 50 साल की बुढ़िया से कर दे, तो मैं घर छोड़कर भाग जाऊँ। या तो खुद जहर खा लूँ या उसे जहर देकर मार डालूँ। फाँसी ही तो होगी?

आशा उस कृमित्र क्रोध को कायम न रख सकी। जुगल ने उसकी हृदयवीणा के तारों पर मिजराब की ऐसी चोट मारी थी कि उसके बहुत जब्त करने पर भी मन की व्यथा बाहर निकल आयी। उसने कहा- भाग्य भी तो कोई वस्तु हैं।

‘ऐसा भाग्य जाय भाड़ में।’

‘तुम्हारा ब्याह किसी बुढ़िया से ही करूँगी, देख लेना।’

‘तो मै भी जहर खा लूँगा। देख लीजिएगा।’

‘क्यों बुढ़िया तुम्हे जवान स्त्री से ज्यादा प्यार करेगी, ज्यादा सेवा करेगी। तुम्हें सीधे रास्ते पर रखेगी।’

‘यह सब माँ का काम हैं। बीवी जिस काम के लिए हैं, उसी काम के लिए हैं।’

‘आखिर बीवी किस काम के लिए हैं?’

मोटर की आवाज आयी। न-जाने कैसे आशा के सिर का अंचल खिसककर कंधे पर आ गया। उसने जल्दी से अंचल खींच कर सिर पर कर लिया और यह कहती हुई अपने कमरे की ओर लपकी कि लाला भोजन करके चले जायँ, तब आना।

About the Author

English Short Stories and Classic Books

Post a Comment

Cookie Consent
We serve cookies on this site to analyze traffic, remember your preferences, and optimize your experience.
Oops!
It seems there is something wrong with your internet connection. Please connect to the internet and start browsing again.
AdBlock Detected!
We have detected that you are using adblocking plugin in your browser.
The revenue we earn by the advertisements is used to manage this website, we request you to whitelist our website in your adblocking plugin.
Site is Blocked
Sorry! This site is not available in your country.