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मुफ़्त का यश (Muft ka Yash)

उन दिनों संयोग से हाकिम-जिला एक रसिक सज्जन थे। इतिहास और पुराने सिक्कों की खोज में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली थी। ईश्वर जाने दफ्तर के सूखे कामों से उन्हें ऐतिहासिक छान-बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। वहाँ तो जब किसी अफसर से पूछिए, तो वह यही कहता है – ‘मारे काम के मरा जाता हूँ, सिर उठाने की फुरसत नही मिलती।’ शायद शिकार और सैर भी उनके काम में शामिल है ? उन सज्जन की कीर्तियाँ मैने देखी थी और मन में उनका आदर करता था; लेकिन उनकी अफसरी किसी प्रकार की घनिष्ठता में बाधक थी। मुझे यह संकोच था कि अगर मेरी ओर से पहल हुई तो लोग यहीं कहेंगे कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है और मैं किसी दशा में भी यह इलजाम अपने सिर नही लेना चाहता। मैं तो हुक्काम की दावतों और सार्वजनिक उत्सवों में नेवता देने का भी विरोधी हूँ और जब कभी सुनता हूँ कि किसी अफसर को किसी आम जलसे का सभापति बनाया गया या किसी स्कूल, औषधालय या विधवाश्रम किसी गवर्नर के नाम से खोला गया, तो अपने देश-बन्धुओं की दास-मनोवृत्ति पर घंटो अफसोस करता हूँ; मगर जब एक दिन हाकिम-जिला ने खुद मेरे नाम एक रुक्का भेजा कि मै आपसे मिलना चाहता हूँ; क्या आप मेरे बँगले पर आने का कष्ट करेगे, तो मै दुविधे में पड़ गया। क्या जवाब दूँ ? अपने दो-एक मित्रों से सलाह ली। उन्होंने कहा – ‘साफ लिख दीजिए, मुझे फुरसत नही। वह हाकिम-जिला होगें, तो अपने घर के होंगे, कोई सरकारी वा जाब्ते का काम होता, तो आपका जाना अनिवार्य था; लेकिन निजी मुलाकात के लिए जाना आपकी शान के खिलाफ है। आखिर वह खुद आपके मकान पर क्यों नही आये ? इससे क्या उनकी शान में बट्टा लगा जाता था? इसीलिए तो खुद नही आये कि वह हाकिम-जिला है। इन अहमक हिन्दुतानियों को कब समझ आयेगी कि दफ्तर के बाहर वे भी वैसे ही साधारण मनुष्य है, जैसे हम या आप। शायद ये लोग अपनी घरवालियों से भी अफसरी जताते होंगे। अपना पद उन्हें कभी नही भूलता ।’

एक मित्र ने, जो लतीफों के चलते-फिरते तिजोरी है, हिन्दुस्तानी अफसरों के विषय में कई मनोरंजक घटनाएँ सुनायीं। एक अफसर साहब ससुराल गये। शायद स्त्री को विदा कराना था। जैसा आम रिवाज हैं, ससुर जी ने पहले ही वादे पर लड़की को विदा करना उचित न समझा। कहने लगे- बेटा, इतने दिनों के बाद आयी हैं, अभी विदा कर दूँ? भला, छः महीनें तो रहने दो। उधर धर्मपत्नीजी ने भी नाइन से सन्देश कहला भेजा- अभी मैं नही जाना चाहती। आखिर माता-पिता से भी तो मेरा कोई नाता हैं। कुछ तुम्हारें हाथ बिक थोड़े ही गयी हूँ? दामाद साहब अफसर थे, जामे से बाहर हो गये। तुरन्त घोड़े पर बैठे और सदर की राह ली। दूसरे ही दिन ससुरजी पर सम्मन जारी कर दिया। बेचारा बूढ़ा आदमी तुरन्त लड़की को साथ लेकर दामाद की सेवा में जा पहुँचा। तब जाके उसकी जान बची। ये लोग ऐसे मिथ्याभिमानी होते हैं और फिर तुम्हें हाकीम-जिला से लेना ही क्या हैं? अगर तुम कोई विरोधात्मक गल्प या लेख लिखोगे, तो फौरन गिरफ्तार कर लिये जाओगे। हाकिम-जिला जरा भी मुरौवत न करेंगे। कह देंगे- यह गवर्नमेंट का हुक्म हैं, मैं क्या करूँ? अपने लड़के के लिए कानूनगोई या नायब तहसीलदारी का लालसा तुम्हें हैं नहीं। व्यर्थ क्यों दौड़े जाओ।

लेकिन, मुझे मित्रों की यह सलाह पसन्द न आयी। एक भला आदमी जब निमंत्रण देता हैं, तो केवल इसलिए अस्वीकार कर देना कि हाकिम-जिला हैं ने भेजा हैं, मुटमर्दी हैं। बेशक हाकिम-जिला मेरे घर आ जाते, तो उनकी शान कम न होती। उदार हृदय वाला आदमी बेतकल्लुफ चला आता; लेकिन भाई जिले की अफसरी बड़ी चीज हैं। और एक उपन्यासकार की हस्ती ही क्या हैं। इंगलैंड या अमेरिका में गल्प लेखकों और उपन्यासकारों की मेज पर निमंत्रण होने में प्रधानमंत्री भी अपना गौरव समझेगा, हाकिम-जिला की तो गिनती ही क्या हैं? लेकिन यह भारतवर्ष हैं, जहाँ हर रईस के दरबार में कवि-सम्राटों का जत्था रईस के कीर्तिमान के लिए जमा रहता था और आज भी ताजपोशी में हमारे लेखक- वृन्द बिना बुलाये राजाओं की खिदमत में हाजिर होते हैं, कसीदे पढ़ते हैं और इनाम के लिए हाथ पसारते हैं। तुम ऐसे कहाँ के बड़े हो कि हाकिम-जिला तुम्हारे घर चला आये। जब तुममें इतनी अकड़ और तुनकमिजाजी हैं, तो वह तो जिले का बादशाह हैं। अगर उसे कुछ अभिमान भी हो, तो उचित हैं। इसे उसकी कमजोरी कहो, बेहूदगी कहो, मूर्खता कहो, फिर भी उचित हैं। देवता होना गर्व की बात हैं; लेकिन मनुष्य होना भी अपराध नहीं।

और मैं तो कहता हूँ – ईश्वर को धन्यवाद दो कि हाकिम-जिला तुम्हारे घर नहीं आये; वरना तुम्हारी कितनी भद होती। उनके आदर-सत्कार का सामान तुम्हारे पास कहाँ था? गत की एक कुर्सी भी नही हैं। उन्हें क्या तीन टाँगोंवाले सिहासन पर बैठाते या मटमैले जाजिम पर? तीन पैसे की चौबिस बीड़ियाँ पीकर दिल खुश कर लेते हो। है सामर्थ्य रुपये के दो सिगार खरीदने की? तुम तो इतनी भी नहीं जानते कि वह सिगार मिलता कहाँ हैं; उसका नाम क्या हैं। अपना भाग्य सराहो कि अफसर साहब तुम्हारे घर नहीं आये और तुम्हे बुला लिया। चार-पाँच रुपये बिगड़ भी जाते और लज्जित भी होना पड़ता। और कहीं तुम्हारे परम दुर्भाग्य और पापों के दंड स्वरूप उनकी धर्मपत्नी भी उनके साथ होती, तब तो तुम्हें धरती में समा जाने के सिवा और कोई ठिकाना न था। तुम या तुम्हारी धर्मपत्नी उस महिला का सत्कार कर सकती थी? तुम्हारी तो घिग्घी बँध जाती साहब, बदहवास हो जाते! वह तुम्हारे दीवानेखाने तक ही न रहती जिसे तुमने गरीबामऊ ढंग से सजा रखा हैं। वहाँ गरीबी अवश्य हैं, पर फूहड़पन नहीं। अन्दर तो पग-पग पर फूहड़पन के दृश्य नजर आते । तुम अपने फटे पुराने पहनकर औऱ अपनी विपन्नता में मगन रह कर जिन्दगी बसर कर सकते हो; लेकिन कोई भी आत्माभिमानी आदमी यह पसन्द नहीं कर सकता कि उसकी दुरावस्था दूसरों के लिए विनोद की वस्तु बने। इन लेडी साहबा के सामने तो तुम्हारी जबान बंद हो जाती।

चुनाँचे मैंने हाकिम-जिला का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और यद्‌यपि उनके स्वभाव में कुछ अनावश्यक अफसरी की शान थी; लेकिन उनके स्नेह औऱ उदारता ने उसे यथासाध्य प्रकट न होने दिया। कम-से-कम उन्होंने मुझे शिकायत का कोई मौका न दिया। अफसराना प्रकृति को तब्दील करना उनकी शक्ति के बाहर था।

मुझे इस प्रंसंग को कोई महत्व देने की कोई बात भी न थी, महत्व न दिया । उन्होंने मुझे बुलाया, मैं चला गया। कुछ गप-शप किया और लौट आया। किसी से इसकी जिक्र करने की जरूरत ही क्या? मानो भाजी खरीदने बाजार गया था।

लेकिन टोहियों ने जाने कैसे टोह लगा लिया। विशेष समुदायों में यह चर्चा होने लगी कि हाकिम-जिला और मेरी बड़ी गहरी मैत्री हैं। और वह मेरा बड़ा सम्मान करते हैं। अतिशयोक्ति ने मेरा सम्मान और भी बड़ा दिया। यहाँ तक मशहुर हुआ कि वह मुझसे सलाह लिये बगैर कोई फैसला या रिपोर्ट नहीं लिखते।

कोई भी समझदार आदमी इस ख्याति से लाभ उठा सकता था। स्वार्थ में आदमी बावला हो जाता हैं। तिनके का सहारा ढूँढता फिरता हैं। ऐसों को विश्वास दिलाना कुछ मुश्किल न था कि मेरे द्‌वारा उनका काम निकल सकता हैं, लेकिन मैं ऐसी बातों से घृणा करता हूँ? सैकड़ो व्यक्ति अपनी कथाएँ लेकर मेरे पास आये। किसी के साश पुलिस ने बेजा ज्यादती की। कोई इन्कम टैक्स वालों की सख्तियों से दु:खी था, किसी की यह शिकायत थी कि दफ्तर में उसकी हकतलफी हो रही हैं। और उसके पीछे के आदमियों को दनादन तरक्कियाँ मिल रही हैं। उसका नम्बर आता हैं, तो कोई परवाह नही करता। इस तरह का कोई-न-कोई प्रसंग नित्य ही मेरे पास आने लगा, लेकिन मेरे पास उन सबके लिए एक ही जवाब था- मुझसे मतलब नहीं।

एक दिन मैं अपने कमरे में बैठा था, कि मेरे बचपन के एक सहपाठी मित्र आ टपके। हम दोनों एक ही मकतब में पढ़ने जाया करते थे। कोई 45 साल की पुरानी बात हैं। मेरी उम्र 19 साल से अधिक न थी। वह भी लगभग इसी उम्र के रहे होगें; लेकिन मुझसे कहीं बलवान औऱ हृष्ट-पुष्ट । मै जहीन था, वह निरे कौदन। मौलवी साहब उनसे हार गये थे। और उन्हें सबक पढ़ाने का भार मुझ पर डाल दिया था। अपने से दुगने व्यक्ति को पढ़ाना मैं अपने लिए गौरव की बात समझता था और खूब मन लगा कर पढ़ाता था। फल यह हुआ कि मौलवी साहब की छड़ी जहाँ असफल रही, वहाँ मेरा प्रेम सफल हो गया। बलदेव चल निकला, खालिकबारी तक जा पहुँचा, मगर इस बीच में मौलवी साहब का स्वर्गवास हो गया और शाखा टूट गयी। उनके छात्र भी इधर-उधर हो गये। तब से बलदेव को केवल मैंने दो-तीन बार रास्ते में देखा, ( मैं अब भी वहीं सीकिया पहलवान हूँ और वह अब भी वही भीमकाय) राम-राम हुई, क्षेम-कुशल पूछा और अपनी-अपनी राह चले गये।

मैने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा- आओ भाई बलदेव, मजे में तो हो? कैसे याद किया, क्या करते हो आजकल?

बलदेव ने व्यथित कंठ से कहा- जिन्दगी के दिन पूरे कर रहे हैं भाई, और क्या। तुमसे मिलने को बहुत दिनों से इच्छा थी। याद करो वह मकतबवाली बात, जब तुम मुझे पढ़ाया करते थे। तुम्हारी बदौलत चार अक्षर पढ़ गया औऱ अपनी जमींदारी का काम सँभाल लेता हूँ, नहीं तो मूर्ख ही बना रहता। तुम मेरे गुरु हो भाई, सच कहता हूँ; मुझ जैसे गधे को पढ़ाना तुम्हारा ही काम था। न जाने क्या बात थी कि मौलवी साहब से सबक पढ़कर अपनी जगह पर आया नहीं कि बिल्कुल साफ। तुम पढ़ाते थे, वह बिना याद किये ही याद हो जाता था । तुम तब भी बड़े जहीन थे।

यह कहकर उन्होंने मुझे सगर्व-नेत्रों से देखा।

मैं बचपन के साथियों को देखकर फूल उठता हूँ । सजल नेत्र होकर बोला- मैं तो जब तुम्हें देखता हूँ, तो यहीं जी में आता हैं कि दौड़कर तुम्हारे गले लिपट जाऊँ। 45 वर्ष का युग मानो बिल्कुल गायब हो जाता हैं। वह मकतब आँखों के सामने फिरने लगता हैं। औऱ बचपन सारी मनोहरता के साथ ताजा हो जाता हैं।

बलदेव ने भी द्रवित कंठ से उत्तर दिया- मैंने तो भाई, तुम्हें सदैव अपना इष्टदेव समझा हैं। जब तुम्हें देखता हूँ, तो छाती गज-भर की हो जाती हैं कि मेरा बचपन का संगी जा रहा हैं, जो समय आ पड़ने पर कभी दगा न देगा। तुम्हारी बड़ाई सुन-सुनकर मन-ही-मन प्रसन्न हो जाता हूँ, लेकिन यह बताओ, क्या तुम्हें खाना नही मिलता? कुछ खाते-पीते क्यों नहीं? सूखते क्यों जाते हो? घी न मिलता हो, तो दो-चार कनस्तर भिजवा दूँ। जब तुम भी बूढे हुए, खूब डटकर खाया करो। अब तो देह में जो कुछ तेज और बल हैं, वह केवल खाने के अधीन हैं। मै तो अब भी सेर-भर दूध और पाव-भर घी उड़ाये जाता हूँ । इधर थोड़ा मक्खन भी खाने लगा हूँ । जिन्दगी-भर बाल-बच्चों के लिए मर मिटे। अब कोई यह भी नहीं पूछता कि तुम्हारी तबीयत कैसी हैं। अगर आज कंधा डाल दूँ, तो कोई एक लोटे पानी को न पूछें। इसलिए खूब खाता हूँ और सबसे ज्यादा काम करता हूँ । घर पर अपना रोब बना हुआ हैं। वही जो तुम्हारा जेठा लड़का हैं, उस पर पुलिस ने एक झूठा मुकदमा चला दिया हैं। जवानी के मद में किसी को कुछ समझता नहीं। तब से घात में लगे हुए थे। इधऱ गाँव में एक डाका पड़ गया। दारोगाजीन ने तहकीकात में उसे फाँस लिया। आज एक सप्ताह से हिरासत में हैं। मुकदमा मुहम्मद खलीफ, डिप्टी के इलजास में हैं और मुहम्मद खलीफ और दारोगाजी में दाँत-काटी रोटी हैं। अवश्य सजा हो जायेगी। अब तुम्हीं बचाओ, तो उसकी जान बच सकती हैं। और कोई आशा नहीं हैं। सजा तो जो होगी वह होगी; इज्जत भी खाक में मिल जायगी। तुम जाकर हाकिम-जिला से इतना कह दो कि मुकदमा झूठा हैं, आप खुद चलकर तहकीकात कर ले! बस, देखो भाई, बचपन के साथी हो, ‘नहीं’ न करना। जानता हूँ, तुम इन मुआमलों में नही पड़ते औऱ तुम्हारे-जैसे आदमी को पड़ना भी न चाहिए। तुम प्रजा की लड़ाई लड़ने वाले जीव हो, तुम्हे सरकार के आदमियों से मेल-जोल बढ़ाना उचित नहीं; नहीं तो जनता की नजरों से गिर जाओगे। लेकिन यह घर का मुआमला हैं। इतना समझ लो कि मुआमला बिल्कुल झूठा न होता, तो मैं कभी तुम्हारे पास न आता। लड़के की माँ रो-रोकर जान दिये डालती हैं, बहू ने दाना-पानी छोड़ रखा हैं। सात दिन से घर में चूल्हा नही जला। मैं तो थोड़ा-सा दूध पी लेता हूँ, लेकिन सास-बहू तो निराहार पड़ी हुई हैं, अगर बच्चा को सजा हो गयी, तो दोनों मर जाएगी। मैने यहीं कहकर ढाढस दिया हैं कि जब तक हमारा छोटा भाई सलामत हैं, कोई हमारा बाल बाँका नही कर सकता । तुम्हारी भाभी ने तुम्हारी एक पुस्तक पढ़ी हैं। वह तो तुम्हें देव तुल्य समझती हैं और जब कोई बात होती हैं, त तुम्हारी नजीर देकर मुझे लज्जित करती हैं। मैं भी साफ कह देता हूँ – मैं उस छोकरे की-सी बुद्धि कहाँ से लाऊँ ? तुम्हें उसकी नजरों से गिराने के लिए तुम्हें छोकरा, मरियल सभी कुछ कहता हूँ, पर तुम्हारे सामने मेरा रंग नहीं जमता।

मैं बड़े संकट में पड़ गया। मेरी ओर से जिनती आपत्तियाँ हो सकती थी, उस सबका जवाब बलदेवसिंह ने पहले ही से दे दिया था। इनको फिर दुहराना व्यर्थ था। इसके सिवा कोई जवाब न सूझा कि मैं जाकर साहब से कहूँगा। हाँ, इतना मैंने अपनी तरफ से और बढ़ा दिया कि मुझे आशा नहीं कि मेरे कहने का विशेष खयाल किया जाय, क्योंकि सरकारी मुआमलों में हुक्काम हमेशा अपने मातहतों का पक्ष लिया करते हैं।

बलदेवसिंह ने प्रसन्न होकर कहा- इसकी चिन्ता नहीं, तकदीर में जो लिखा हैं, वह तो होगा ही। बस तुम जाकर कह भर दो।

‘अच्छी बात हैं।’

‘तो कल जाओगे?’

‘हाँ अवश्य जाऊँगा ?’

‘यह जरूर कहना कि आप चलकर तहकीकात कर लें।’

‘हाँ, जरूर कहूँगा।’

‘और यह भी कह देना कि बलदेवसिंह मेरा भाई हैं।’

‘झूठ बोलने के लिए मजबूर न करो।’

‘तुम मेरे भाई नहीं हों? मैंने तो हमेशा तुम्हें अपना भाई समझा हैं।’

‘अच्छा, यह भी कह दूँगा।’

बलदेवसिंह को विदा करके मैंने अपना खेल समाप्त किया और आराम से भोजन करके लेटा। मैंने उससे गला छुड़ाने के लिए झूठा वादा कर दिया। मेरा इरादा हाकिम-जिला के कुछ कहने का नही था। मैंने पेशबन्दी के तौर पर पहले ही जता दिया था कि हुक्काम आमतौर पर पुलिस के मुआमलों में दखल नहीं देते; इसलिए सजा हो भी गयी, तो मुझे यह कहने की काफी गुंजाइश थी कि साहब ने मेरी बात स्वीकार नहीं की।

कई दिन गुजर गये थे। मैं इस वाकिये को बिल्कुल भूल गया था। सहसा एक दिन बलदेवसिंह अपने पहलवान बेटे के साथ मेरे कमरे मे दाखिल हुए। बेटे नें मेरे चरणों पर सिर रख दिया औऱ अदब से एक किनारे खड़ा हो गया। बलदेवसिंह बोले- बिल्कुल बरी हो गया भैया! साहब ने दारोगा को बुलाकर खूब डाँटा कि तुम भले आदमियों को सताते और बदनाम करते हो। अगर फिर ऐसा झूठा मुकदमा लाये, तो बर्खास्त कर दिये जाओगे। दारोगाजी बहुत झेंपे। मैने झुककर सलाम किया। बचा पर घड़ो पानी पड़ गया। यह तुम्हारी सिफारिश का चमत्कार हैं, भाईजान! अगर तुमने मदद न की होती, तो हम तबाह हो गये थे। यह समझ लो कि तुमने चार प्राणियों की जान बचा ली। मैं तुम्हारे पास बहुत डरते-डरते आया था। लोगो ने कहा- उसके पास नाहक जाते हो, वह बड़ा बेमुरौवत आदमी हैं, उसकी जात से किसी का उपकार नहीं हो सकता। आदमी वह हैं; जो दूसरों का हित करे। वह क्या आदमी हैं, जो किसी की बात सुने ही नहीं। लेकिन भाईजान, मैने किसी की बात न मानी। मेरे दिल में मेरा राम बैठा कह रहा था- तुम चाहे कितने ही रूखे और बेलाग हो; लेकिन मुझ पर अवश्य दया करोगे।

यह कह कर बलदेवसिंह ने अपने बेटे को इशारा किया। वह बाहर गया औऱ एक बड़ा-सा गट्ठर उठा लाया, जिसमें भाँति-भाँति की देहाती सौगातें बँधी हुई थी। हालाँकि मै बराबर कहे जाता था- तुम ये चीजें नाहक लाये, इनकी क्या जरूरत थी, कितने गँवार हो, आखिर तो ठहरे देहाती, मैने कुछ नही कहा, मैं तो साहब के पास गया भी नहीं, लेकिन कौन सुनता हैं। खोया, दही, मटर की फलियाँ, अमावट, ताजा गुड़ और जाने क्या-क्या आ गया।

मैने कहने को तो एक तरह से कह दिया- मैं साहब के पास गया ही नहीं, जो कुछ हुआ, खुद हुआ, मेरा कोई एहसान नहीं हैं, लेकिन मतलब यह निकाला गया कि मैं केवल नम्रता से और सौगातों को लौटा देने के लिए कोई बहाना ढूँढने के लिए ऐसा कह रहा हूँ। मुझे इतनी हिम्मत न हुई कि मै इस बात का विश्वास दिलाता। इसका जो अर्थ निकाला गया, वहीं मैं चाहता था। मुफ्त का एहसान छोड़ने का जी न चाहता, अन्त में जब मैने जोर देकर कहा कि किसी से इस बात का जिक्र न करना, नहीं तो मेरे पास फरियादों का मेला लग जायगा, तो मानो मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं सिफारिश की – और जोरो से की।

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