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लॉटरी (Lottery)

जल्दी से मालदार हो जाने की हवस किसे नहीं होती? उन दिनों जब लॉटरी के टिकट आये, तो मेरे दोस्त, बिक्रम के पिता, चचा, अम्माँ और भाई, सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया। कौन जाने, किसकी तकदीर जोर करे? किसी के नाम आये, रुपया रहेगा तो घर में ही।

मगर विक्रम को सब्र न हुआ। औरों के नाम रुपयें आयेंगे, फिर उसे कौन पूछता हैं? बहुत होगा, दस पाँच हजार उसे दे देंगे। इतने रुपयों में उसका क्या होगा? उसकी जिन्दगी में बड़े-बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत की यात्रा करनी थी, एक-एक कोने की। पीरू और ब्राजील और टिम्बकटू और होनोलूलू, ये सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आँधी की तरह महीने-दो-महीने उड़कर लौट आनेवालों में न था। वह एक-एक स्थान में कई-कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहन, रीति- रिवाज आदि का अध्ययन करना और संसार-यात्रा का एक वृहद् ग्रंथ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना था, जिसमें दुनिया-भर की उत्तम रचनाएँ जमा की जायँ। पुस्तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार था, बँगला, कार और फर्नीचर तो मालूमी बातें थी। पिता या चचा के नाम रुपये आ जाये, तो पाँच हजार से ज्यादा का डौल नहीं, अम्माँ के नाम आये, तो बीस हजार मिल जायँगे; लेकिन भाई साहब के नाम आ गये, तो उसके हाथ धेला भी न लगेगा। वह स्वाभिमानी था। घर वालों से खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने का बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा करता था- भाई, किसी के सामने हाथ फैलाने से तो किसी गड्ढे में डूब मरना अच्छा हैं। जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्तान कर जाय?

वह बहुत बेकरार था। घर में लॉटरी-टिकट के लिए उसे कौन रुपयें देगा और वह माँगे भी तो कैसे? उसने बहुत सोच-विचार कर कहा- क्यों न हम तुम साझे में एक टिकट ले लें?

तजवीज मुझे भी पसन्द आयी। मैं उन दिनों स्कूल -मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी। दस रुपये क टिकट खरीदना मेरे लिए सुफेद हाथी था। हाँ, एक महीना दूध, घी, जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बलाई रकम मिल जाय, तो कुछ हिम्मत बढ़े।

विक्रम ने कहा- कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ? कह दूँगा, उँगली से फिसल पड़ी।

अँगूठी दस रुपये से कम न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था; अगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता हैं, तो क्या बुरा हैं?

सहसा विक्रम फिर बोला- लेकिन भई, तुम्हें नकद देने पड़ेगे। मैं पाँच रुपये नकद लिये बगैर साझा न करूँगा।

अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला- दोस्त, यह बुरी बात हैं, चोरी खुल जायेगी, तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी।

आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबे किसी सेकेन्ड हैंड की किताबों की दूकान पर बेच डाली जायँ और उस रुपये से टिकट लिया जाय। किताबों से ज्यादा बेजरूरत हमारे पास और कोई चीज न थी। हम दोनो साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होंने डिग्रियाँ ली, अपनी आँखे फोड़ी और घर के रुपये बरबाद किये, वह भी जूतियाँ चटका रहे थे, हमने वही हाल्ट कर दिया। मैं स्कूल मास्टर हो गया और बिक्रम मटरगश्ती करने लगा? हमारी पुरानी किताबे अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थी। हमसे जितना चाटते बना, चाटा; उसका सत्त निकाल लिया। अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्हें कूडेखाने से निकाला और झाड़-पोंछ कर एक बड़ा-सा गट्ठर बाँधा। मास्टर था, किसी बुकसेलर की दूकान पर किबात बेचते हुए झेंपता था।

मुझे सभी पहचानते थे; इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आध घंटे में दस रुपयें का एक नोट लिये उछलता-कूदता आ पहुँचा। मैने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थी; पर यह दस रुपये उस वक़्त में हमें जैसे पड़े हुए मिले। अब टिकट में आधा साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी। पाँच लाख मेरे हिस्से में आयेंगे, पाँच बिक्रम के। हम अपने इसी में मग्न थे।

मैने संतोष भाव दिखाकर कहा- पाँच लाख भी कुछ कम नहीं होते जी।

बिक्रम इतना संतोषी न था। बोला- पाँच लाख क्या, हमारे लिए तो इस वक़्त पाँच सौ भी बहुत हैं भाई, मगर जिन्दगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरा यात्रावाली स्कीम तो टल नहीं सकती। हाँ, पुस्तकालय गायब हो गया।

मैने आपत्ति की- आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे?

‘जी नहीं, उसका बजट हैं साढे तीन लाख का। सात वर्ष का प्रोग्राम हैं। पचास हजार रुपये साल ही तो हुए?’

‘चार हजार महीना कहो। मैं समझता हूँ, दो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।’

विक्रम ने गर्म होकर कहा- मैं शान से रहना चाहता हूँ ; भिखारियों की तरह नहीं

‘दो हजार में भी तुम शान से रह सकते हो।’

‘जब तक आप अपने हिस्से में से दो लाख मुझे न दे देंगे, पुस्तकालय न बन सकेगा।’

‘कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारा पुस्तकालय शहर में बेजोड़ हो?’

‘मैं तो बेजोड़ ही बनवाऊँगा।’

‘इसका तुम्हें अख्तियार हैं, लेकिन मेरे रुपयें में से तुम्हें कुछ न मिल सकेगा। मेरी जरूरतें देखो। तुम्हारे घर में काफी जायदाद हैं। तुम्हारे सिर कोई बोझ नहीं, मेरे सिर तो सारी गृहस्थी तो बोझ हैं। दो बहनों का विवाह हैं, दो भाईयों की शिक्षा हैं. नया मकान बनवाना हैं। मैं तो निश्चय किया कर लिया हैं कि सब रुपये सीधे बैंक में जमा कर दूँगा। उनके सूद से काम चलाऊँगा। कुछ ऐसी शर्ते लगा दूँगा, कि मेरे बाद भी कोई इस रकम में हाथ न लगा सके।’

विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा- हाँ, ऐसी दशा में तुमसे कुछ माँगना अन्याय हैं। खैर, मैं ही तकलीफ उठा लूँगा; लेकिन बैंक के सूद की दर तो बहुत गिर गयी हैं।

हमने कई बैंकों में सूद की दर देखी, अस्थायी कोष में भी; सेविंग बैंक की भी। बेशक दर बहुत कम थी। दो-ढाई रुपयें सैकडे ब्याज पर जमा करना वयर्थ हैं। क्यों न लेन-देन का कारोबार शुरू किया जाय? विक्रम भी अभी यात्रा पर न जाएगा। दोनो के साझे में कोठी चलेगी, जब कुछ धन जमा हो जाएगा, तब वह यात्रा करेगा। लेन-देन मे सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रौब-दाब भी रहेगा। हाँ, जब तक अच्छी जमानत न हो, किसी को रुपया न देना चाहिए; आसामी कितना ही मातबर क्यों न हो। और जमानत पर रुपये दे ही क्यों? जायदाद रेहन लिखाकर रुपये देंगे। फिर तो कोई खटका न रहेगा।

यह मंजिल भी तय हुई। अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे। विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया। अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट भी न लेगा। मैने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया और बिना किसी लिखा-पढ़ी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई!

एक-एक करके इन्तजार के दिन काटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखे कैलेंडर पर जाती। मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कूल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनो साथ बैठकर अपने-अपने मंसूबे बाँधा करते और इस तरह सायँ-सायँ कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। वह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक़्त लोगों को कितना विस्मय होगा! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे।

एक दिन बातों-बातों में विवाह का जिक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा- भई, शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता। व्यर्थ का चिन्ता और हाय-हाय! पत्नी का नाच बरदारी में ही बहुत से रुपये उड़ जायँगे।

मैंने इसका विरोध किया- हाँ, यह तो ठीक हैं; लेकिन जब तक जीवन के सुख- दु:ख का कोई साथी न हो; जीवन का आनन्द ही क्या? मैं तो विवाहित जीवन से विरक्त नहीं हूँ । हाँ; साथी ऐसा चाहता हूँ जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।

विक्रम जरूरत से ज्यादा तुनुकमिजाजी से बोला- खैर, अपना-अपना दृष्टिकोण हैं। आपको बीवी मुबारकर और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना तथा बच्चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ा समझना मुबारक। बन्दा तो आजाद रहेगा, अपने मजे से चाहा और जब चाहा उड़ गये और जब चाहा घर आ गये। यह नहीं कि हर वक़्त एक चौकीदार आपके सिर पर सवार हो। जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन जवाब तलब हुआ- कहाँ थे अब तक? आप बाहर निकले और फौरन जवाब सवाल हुआ- कहाँ जाते हो? और जो कहीं दुर्भाग्य से पत्नीजी भी साथ हो गयी, तब तो डूब मरने के सिवा आपके लिए कोई मार्ग ही नहीं रह जाता। न भैया, मुझे आपसे जरा-भी सहानुभूति नहीं। बच्चे को जरा-सा जुकाम हुआ और आप बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं होमियोपैथिक डाक्टर के पास। जरा उम्र खिसकी और लौड़े मनाने लगे कि कब आप प्रस्थान करे और वह गुलछर्रे उठायें। मौका मिला तो आपको जहर खिला दिया और मशहुर किया कि आपको कालरा हो गया था। मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता।

कुन्ती आ गयी। वह विक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्यारह साल की। छठे में पढ़ती थी और बराबर फेल होती थी। बड़ी चिबिल्ली, बड़ी शोख। इतने धमाके से द्वार खोला कि हम दोनों चौककर उठ खड़े हुए।

विक्रम ने बिगड़कर कहा- तू बड़ी शैतान हैं कुन्ती, किसने तुझे बुलाया यहाँ?

कुन्ती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नजर दौड़ाकर कहा- तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बन्द किये बैठे क्या बाते किया करते हो? जब देखो, यहीं बैठे हो। न कहीं घूमने जाते हो, न तमाशा देखेने; कोई जादू मन्तर जगाते होगे!

विक्रम ने उसकी गरदन पकड़कर हिलाते हुए कहा- हाँ एक मन्तर जगा रहे हैं, जिसमें तुझे ऐसा दूल्हा मिले, जो रोज गिनकर पाँच हजार हंटर जमाये सड़ासड़।

कुन्ती उसकी पीठ पर बैठकर बोली- मैं ऐसे दूल्हे सो ब्याह करूँगी, जो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा। मैं मिठाई के दाने फेंक दूँगी और वह चाटेगा। जरा भी चीं-चपड़ करेगा, तो काम गर्म कर दूँगी। अम्माँ को लॉटरी के रुपये मिलेंगे, तो पचास हजार मुझे दे दें। बस, चैन करूँगी। मैं दोनो वक़्त ठाकुरजी से अम्माँ के लिए प्रार्थना करती हूँ। अम्माँ कहती हैं, कुवाँरी लड़कियों की दुआ कभी निष्फल नहीं होती। मेरा मन तो कहता हैं, अम्माँ को रुपयें जरूर मिलेंगे।

मुझे याद आया, एक बार मैं अपने ननिहाल देहात में गया था, तो सूखा पड़ा हुआ था। भादों का महीना आ गया था; मगर पानी की बूँद नहीं। सब लोगों ने चन्दा करके गाँव की कुवाँरियों की दावत की थी और उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी। अवश्य ही कुवाँरियों की दुआ में असर होता हैं।

मैं विक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखा, विक्रम ने मुझे। आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चय भी कर लिया। विक्रम ने कुन्ती से कहा- अच्छा, तुमझे एक बात कहें, किसी से कहेगी तो नहीं? नहीं तू तो बड़ी अच्छी लड़की हैं, किसी से न कहेगी। मै अबकी खूब पढ़ाऊँगा और पास करा दूँगा। बात यह हैं कि हम दोनों ने भी लॉटरी का टिकट लिया हैं। हम लोगों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना किया कर। अगर हमें रुपये मिलें, तो तेरे लिए अच्छे-अच्छे गहने बनवा देंगे। सच!

कुन्ती को विश्वास न आया। हमने कसमें खायी। वह नखरें करने लगी। जब हमने उसे सिर से पाँव तक सोने और हीरे से मढ़ देने की प्रतिज्ञा की, तब वह हमारे लिए दुआ करने करने पर राजी हुई।

लेकिन उसके पेट में मनों मिठाई पच सकती थी; वह जरा-बात न पची। सीधे अन्दर भागी और एक क्षण में वह खबर फैल गयी। अब जिसे देखिए, विक्रम को डाँट रहा हैं, अम्माँ भी, चचा भी, पिता भी- केवल विक्रम की शुभ -कामना से या और किसी भाव से – बैठे-बैठे तुम्हें हिमाकत ही सूझती हैं। रुपये लेकर पानी में फेंक दिये। घर में इतने आदमियों ने तो टिकट लिया ही था, तुम्हें लेने की क्या जरूरत थी? क्या तुम्हें उसमें से कुछ न मिलते? और तुम भी मास्टर साहब घोघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्या सिखाओगे, उसे और चौपट किये डालते हो।

विक्रम तो लाडला बेटा था। उसे और क्या कहते। कही रूठकर एक-दो जून खाना न खाये, तो आफत ही आ जाय। मुझ पर सारा गुस्सा उतरा। इसकी सोहब्बत में लड़का बिगड़ा जाता हैं।

‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत मेरी आँखों के सामने थी। मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आयी। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मँगवायी गयी थी। मेरे मामूँ साहब आये हुए थे। मैने चुपके से कोठरी में जाकर एक घूँट शराब ढाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थी, कि मामूँ साहब कोठरी में आ गये और मुझे मानो सेंध में गिरफ्तार कर लिया और इतनी बिगड़े- इतना बिगड़े कि मेरा कलेजा सूखकर छुहारा हो गया।

अम्माँ ने भी डाँटा, पिताजी ने भी डाँटा, मुझे आँसुओं से उनकी क्रोधाग्नि शान्त करनी पड़ी ; और दोपहर ही को मामूँ साहब नशे में पागल होकर गाने लगे, फिर रोये, फिर अम्माँ को गालियाँ दी, दादा के मना करने पर भी मारने दौड़े और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आये।

विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब और ताऊ छोटे ठाकुर साहब दोनो जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ाने वाले, पूरे नास्तिक; मगर अब दोनों बड़े निष्ठावान और ईश्वर भक्त हो गये थे। बड़े ठाकुर साहब प्रातःकाल गंगा-स्नान करने जाते और मन्दिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चन्दन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते शाम होते ही दोनो भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी रात कर भागवत की कथा तन्मय होकर सुनते। विक्रम के बड़े भाई प्रकाश को साधु -महात्माओं पर अधिक विश्वास था। वह मठों और साधुओं के अखाड़ों तथा कुटियों की खाक छानते और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। इस उम्र में उन्हें सिंगार का शौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थी। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें तो यह भक्ति- निष्ठा और धर्म-प्रेम हैं, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण। हमारा धर्म हमारे स्वार्थ के बल पर टिका हुआ हैं। हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती हैं, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्योतिषियों और पंडितों से प्रश्न करके अपने को कभी दुखी कर लिया करते थे।

ज्यों-ज्यों लॉटरी का दिवस समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शान्ति उड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण सन्देह होने लगा कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इनकार कर दे, तो मैं क्या करूँगा। साफ इन्कार कर जाय कि तुमने टिकट का साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर हैं, न कोई दूसरा सबूत। सब कुछ विक्रम की नीयत पर हैं। उसकी नीयत जरा भी डावाँडोल हुई कि काम-तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकता, मुँह तक नहीं खोल सकता। अब अगर कुछ कहूँ भी तो लाभ नहीं । अगर उसकी नीयत में फितूर आ गया हैं तो वह अभी से इन्कार कर देगा; अगर नहीं आया हैं, तो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमी ऐसा तो नहीं हैं; मगर भाई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन हैं। अभी तो रुपये नहीं मिले हैं। इस वक़्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता हैं? परीक्षा का समय तो तब आयेगा, जब दस लाख रुपये हाथ में होगे। मैंने अपने अन्तःकरण को टटोला- अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे रुपये बिना कान- पूँछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता? कौन कह सकता हैं; मगर सम्भव यही था कि मैं हीले-हवाले करता, कहता- तुमने मुझे पाँच रुपये उधार दिये थे। उसके दस ले लो, सौ ले लो और क्या करोगे; मगर नहीं मुझसे इतनी बद-दियानती न होती।

दूसरे दिन हम दोनो अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा- कहीं हमारा टिकट निकल आये, तो मुझे अफसोस होगा कि नाहक तुमसे साझा किया!

वह सरल भाव से मुस्काराया, मगर यह भी थी उसकी आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था।

मैने चौककर कहा- सच! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता हैं?

‘लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है?’

‘इससे क्या।’

‘अच्छा मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इन्कार कर जाऊँ?’

मेरा खून सर्द हो गया। आँखों के सामने अँधेरा छा गया।

‘मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता था।’

‘मगर हैं बहुत सम्भव। पाँच लाख। सोचो! दिमाग चकरा जाता हैं!’

‘तो भाई, अभी से कुशल हैं, लिखा-पढ़ी कर लो! यह संशय रहे ही क्यों?’

विक्रम ने हँसकर कहा- तुम बड़े शक्की हो यार! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता हैं? पाँच लाख तो क्या, पाँच करोड़ भी होस तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नीयत में खलल न आने दूँगा।

किन्तु मुझे उसके इस आश्वासनों पर बिलकुल विश्वास न आया। मन में एक संशय बैठ गया।

मैने कहा- यह तो मै भी जानता हूँ, तुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती, लेकिन लिखा-पढ़ी कर लेने से क्या हरज हैं।

‘फजूल हैं।’

‘फजूल ही सही।’

‘तो पक्के कागज पर लिखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट-फीस ही साढे सात हजार हो जाएगी। किस भ्रम में हैं आप?’

मैने सोचा, बला से सादी लिखा-पढी के बल पर कोई कानूनी कार्रवाही न कर सकूँगा। पर इन्हें लज्जित करने का, जलील करने का, इन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आयेगा और दुनिया में बदनामी का भय न हो, तो आदमी न जाने क्या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता। बोला- मुझे सादे कागज पर ही विश्वास आ जायगा।

विक्रम ने लापरवाही से कहा- जिस कागज का कोई कानूनी महत्त्व नहीं, उसे लिखकर क्या समय नष्ट करें?

मुझे निश्चय हो गया कि विक्रम की नीयत में अभी से फितूर आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने में क्या बाधा हो सकती हैं? बिगड़कर कहा- तुम्हारी नीयत तो अभी से खराब हो गयी।

उसने निर्लज्जता से कहा- तो क्या तुम साबित करना चाहते हो कि ऐसी दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती?

‘मेरी नीयत इतनी कमजोर नही हैं?’

‘रहने भी दो। बड़ी नीयतवाले! अच्छे-अच्छे को देखा हैं।’

‘तुम्हें इसी वक़्त लेखाबद्ध होना पड़ेगा। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रहा।’

‘अगर तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं हैं, तो मैं भी नहीं लिखता।’

‘तो क्या तुम समझते हो, तुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे?’

‘किसके रुपये और कैसे रुपये?’

‘मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्ती का ही अन्त न हो जायगा, बल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होगा।’

हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी।

सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहाँ दोनो ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाईयों में हो सकती हैं। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्या, मैं कभी विवाद होते भी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह दे, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनो को आश्चर्य हुआ दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनों भाई अपनी-अपनी कुर्सियों से उठ कर खड़े हो गये थे, एक-एक कदम आगे भी बढ़ आये थे, आँखें लाल, मुख विकृत. त्योरियाँ चढ़ी हुई, मुट्ठियाँ बँधी हुई। मालूम होता था, बस हाथापाई हुआ ही चाहता हैं।

छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा- सम्मिलित परिवार मे जो कुछ भी हो और कही से भी और किसी के नाम भी आये, वह सबका हैं, बराबर।

बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम और आगे बढ़ाया- हरगिज नहीं, अगर मैं कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं। मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं। यह वैयक्तिक प्रश्न हैं।

‘इसका फैसला अदालत से होगा।’

‘शौक से अदालत जाइए। अगर मेरे लड़के, मेरी बीवी या मेरे नाम लॉटरी निकली, तो आपका उससे कोई सम्बन्ध न होगा, उसी तरह जैसे अगर आपके नाम लॉटरी निकले तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे लड़के से उससे कोई सम्बन्ध न होगा।’

‘अगर मैं जानता कि आपकी नीयत हैं, तो मैं भी बीवी-बच्चों के नाम से टिकट ले सकता था।’

‘यह आपकी गलती हैं।’

‘इसलिए कि मुझे विश्वास था, आप भाई हैं।’

‘यह जुआ हैं, आपको समझ लेना चाहिए था। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता। अगर आप कल दस-पाँच हजार रेस में हार आयें, तो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा।’

‘मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते?’

‘आप न ब्रह्मा हैं, न ईश्वर और न कोई महात्मा।’

विक्रम की माता ने सुना कि दोनो भाइयों में ठनी हूई हैं और मल्लयुद्ध हुआ चाहता हैं, तो दौड़ी हुई बाहर आयीं और दोनों को समझाने लगी।

छोटे ठाकुर ने बिगड़ कर कहा- आप मुझे क्या समझाती हैं, उन्हें समझाइए, जो चार-चार टिकट लिये हुए बैठे हैं। मेरे पास क्या हैं, एक टिकट। उसका क्या भरोसा। मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपयें मिलने का चौगुना चांस हैं, उनकी नीयत बिगड़ जाय, तो लज्जा और दु:ख की बात हैं।

ठकुरान ने देवर को दिलासा देते हुए कहा- अच्छा, मेरे रुपयें मे से आधे तुम्हारे। अब तो खुश हो।

बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी- क्यों आधे लें लेगे? मैं एक धेला भी न दूँगा। हम मुरौवत और सहृदयता से काम लें, फिर भी उन्हें पाँचवें हिस्से से ज्यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता हैं? न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक।

छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा- सारी दुनिया का कानून आप ही तो जानते हैं।

‘जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं हैं?’

‘यह वकालत निकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूँगा।’

‘बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे कलकत्ते का हो या लन्दन का।’

‘मैं आधा लूँगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा हैं।’

इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधे, लँगड़ाते हुए कपड़ो पर ताजा खून के दाग लगाये, प्रसन्न-मुख आकर एर आरामकुर्सी पर गिर पड़े। बड़े ठाकुर ने घबराकर पूछा- यह तुम्हारी क्या हालत हैं जी? ऐं, यह चोट कैसे लगी? किसी से मार-पीट तो नहीं हो गयी।

प्रकाश ने कुर्सी पर लेटकर एक बार कराहा, फिर मुसकराकर बोले- जी, कोई बात नहीं, ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।

‘कैसे कहते हो कि चोट नहीं लगी? सारा हाथ और सिर सूज गया हैं। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या हैं? कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गयी?’

‘बहुत मामूली चोट हैं साहब, दो-चार दिन में अच्छी हो जायगीय़ घबराने की कोई बात नहीं।’

प्रकाश के मुख पर आशापूर्ण, शान्त मुसकान थी। क्रोध, लज्जा या प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था।

बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर पूछा- लेकिन हुआ क्या, यह क्यों नहीं बतलाते? किसी से मार-पीट हुई हो तो थाने में रपट करवा दूँ?

प्रकाश ने हलक मन से कहा- मार-पीच किसी से नहीं हुई साहब। बात यह है कि मैं जरा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते हैं, वह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने-दौड़ते हैं। जो डरकर भागा, वह गया। जो पत्थर की चोट खाकर भी उनके पीछे लगा रहा, वह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं वहाँ पहुँचा, तो कोई पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिये, कोई बहुमूल्य भेंट लिये, कोई कपड़ो की थान लिये। झक्कड़ बाबा ध्यानवस्था में बैठे हुए थे। एकाएक उन्होंने आँखें खोली और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फिर क्या था, भगदड़ मच गयी। लोग गिरते-पड़ते भागे। हुर्र हो गये। एक भी न टिका। अकेला मै घंटेघर की तरह वहीं डटा रहा। बस उन्होंने पत्थर चला ही तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा।

उनका निशाना अचूक पड़ता हैं। खोपड़ी भन्ना गयी, खून की धारा बह चली; लेकिन मैं हिला नहीं। फिर बाबा जी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ नें लगा। मैं गिर पड़ा और बेहोश हो गया। जब होश आया, तो वहाँ सन्नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गये थे। अन्तर्धान हो जाया करते हैं। किसे पुकारूँ, किससे सवारी लाने को कहूँ ? मारे दर्द के हाथ फटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उठा और सीधा डॉक्टर के पास चला गया। उन्होंने देखकर कहा- हड्डी टूट गयी हैं और पट्टी बाँध दी; गर्म पानी से सेंकने को कहा हैं। शाम को फिर आयेंगे, मगर चोट लगी तो लगी; अब लॉटरी मेरे नाम आयी धरी हैं। यह निश्चय हैं। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूँगा ।

बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखायी दी। फौरन पलंग बिछ गया। प्रकाश उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगी, उनका भी मुख प्रसन्न था। इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा न था।

छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहें दौड़ रहे थे। ज्योंहि बड़े ठाकुर भोजन करने गये और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबन्ध करने गयीं, त्योंही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा- क्या बहुत जो से पत्थर मारते हैं? जोर से जो क्या मारते होगे।

प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा- अरे साहब, पत्थर नहीं मारते, बमगोले मारते हैं। देव-सा तो डील-डौल हैं और बलवान इतने हैं कि एक घूँसे में शेरों का काम तमाम कर देते हैं। कोई ऐसा-वैसा आदमी हो, तो एक ही पत्थर में टें हो जाय। कितने तो मर गये; मगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला। और दो-चार पत्थर मारकर ही नहीं रह जाते, जब तक आप गिर न पड़े और बेहोश न हो जायँ, वह मारते ही जायँगे; मगर रहस्य यहीं हैं कि आप जितने ज्यादा चोटे खायेंगे, उतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुँचगें।…

प्रकाश ने ऐसा रोएँ खड़े कर देने वाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी।

आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया- जुलाई की बीसवीं तारीख कत्ल की रात! हम प्रातःकाल उठे, तो एक नशा चढ़ा हुआ था, आशा और भय के द्वन्द्द का। दोनों ठाकुरों ने घड़ी रात रहे गंगा-स्नान किया था और मन्दिर में बैठे पूजन कर रहे थे। आज मन में श्रद्धा जागी । मन्दिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा- अनाथों के नाथ, तुम्हारी कृपादृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन डिज़र्व (deserve) करता हैं? विक्रम सूट -बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा- मैं डाकखाने जाता हूँ औऱ हवा हो गया। जरा देर में प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मन्दिर के द्वार पर खड़े होकर कंगालों को बाँटने लगे, जिनकी एक भीड़ जमा हो गयी थी। और दोनों ठाकुर भगवान के चरणों में लौ लगाये हुए थे, सिर झुकाते, आँखें बन्द किये हुए, अनुराग में डूबे हुए।

बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले- भगवान तो बड़े भक्त- वत्सल हैं, क्यों पुजारी जी?

पुजारी ने समर्थन किया- हाँ सरकार, भक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया।

एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर साहब ने सिर उठाया, और पुजारी से बोले- क्यों भगवान तो सर्व-शक्तिमान हैं, अन्तर्यामी, सबके दिल का हाल जानते हैं।

पुजारी ने समर्थन किया- हाँ सरकार, अन्तर्यामी न होते तो सबके मन कि बात कैसे जान जाते? शबरी का प्रेम देखकर स्वयं उसकी मनोकामना पूरी की।

पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई। दोनो भाइयों ने आज ऊँचे स्वर से आरती गायी और बड़े ठाकुर ने दो रुपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रुपये डाले। बड़े ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लिया।

सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी से पूछा- तुम्हारा मन क्या कहता हैं पुजारी जी?

पुजारी बोला- सरकार की फते हैं।

छोटे पुजारी ने पूछा- और मेरी?

पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा- आप की भी फते हैं।

बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मन्दिर से गाते हुए निकते-

‘अब पत राखो मोरे दयानिधान तोरी गति लखि ना परे।’

मैं भी पीछे निकला औऱ जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करना चाहा; उन्होंने थाल हटाकर कहा- आप रहने दीजिए, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गयी हैं?

मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि विक्रम मुसकराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे। प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में विक्रम को गोद में उठा लिया; मगर कोई उससे कुछ पूछता नहीं, सभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं।

बड़े ठाकुर मे आकाश की ओर देखा- बोला रामचन्द्र की जय!

छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी- बोलो हनुमानजी की जय!

प्रकाश तालियाँ बजाता हुआ चीखा- दुहाई झक्कड़ बाबा की!

विक्रम ने और जोर से कहकहा मारा और फिर अलग खड़ा होकर बोला जिसका नाम आया हैं, उससे एक लाख लूँगा! बोलो, हैं मंजूर?

बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा- पहले बात तो!

‘ना! यों नहीं बताता।’

छोटे ठाकुर बिगड़े- महज बताने के लिए एक लाख? शाबाश।

प्रकाश ने त्योंरी चढ़ायी- क्या डाकखाना हमने देखा नहीं हैं?

‘अच्छा, तो अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार है जाओ?’

सभी लोग फौजी-अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गये।

‘होश-हवास ठीक रखना!’

सभी पूर्ण सचेत हो गये।

‘अच्छा, तो सुनिए कान खोलकर। इस शहर का सफाया हैं। इस शहर का ही नहीं, सम्पूर्ण भारत का सफाया हैं। अमेरिका के एक हब्शी का नाम आ गया।’

बड़े ठाकुर झल्लाये- झूठ-झूठ, बिलकुल झूठ!

छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला- कभी नहीं। तीन महीने की तपस्या यों ही रही? वाह?

प्रकाश ने छाती ठोंक कर कहा- यहाँ सिर मुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैं, दिल्लगी हैं!

इतने में और पचासों आदमी उधर से रोनी सूरत लिये निकले। बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया, अमेरिका का हब्शी! अभागा! पिशाच! दुष्ट!

अब कैसे किसी को विश्वास न आता? बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया- इसीलिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा हैं। हराम का माल खाते हो और चैन करते हो।

छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गये; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला।

माताजी ने केवल इतना कहा- सभी ने बेईमानी की हैं। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करे? किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लायेंगे?

रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला- चलो, होटल से कुछ खा आयें। घर में चूल्हा नही जला।

मैने पूछा- तुम डाकखाने से आये, तो बहुत प्रसन्न क्यों थे।

उसने कहा- जब मैने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आयी। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दुस्तान में इसके हजार गुने से कम न होगे और दुनिया में तो लाख गुने से भी ज्यादा हो जायँगे। मैने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया, और मुझे हँसी आयी। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक-भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख लोगों को नेवता दे बैठे- और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा हैं कि…

मैं भी हँसा- हाँ, बात तो यर्थात में यही हैं और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े- मरते थे; मगर सच बताना, तुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नही?

विक्रम- मुसकराकर बोला- अब क्या करोंगे पूछ कर? परदा ढका रहने दो।

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