कावसजी ने पत्र निकाला और यश कमाने लगे। शापूरजी ने रूई की दलाली शुरू की और धन कमाने लगे? कमाई दोनों ही कर रहे थे, पर शापुरजी प्रसन्न थे; कावसजी विरक्त। शापुरजी को धन के साथ सम्मान और यश आप-ही-आप मिलता था। कावसजी को यश के साथ धन दूरबीन से देखने पर भी दिखायी न देता था; इसलिए शापुरजी के जीवन में शान्ति थी, सहृदयता थी, आशीर्वाद था, क्रीड़ा थी। कावसजी के जीवन में अशान्ति थी, कटुता थी निराशा थी, उदासीनता थी। धन को तुच्छ समझने की वह बहुत चेष्ठा करते थे; लेकिन प्रत्यक्ष को कैसे झुठला देते ? शापूरजी के घर में विराजने वाले सौजन्य और शांति के सामने उन्हें अपने घर के कलह और फूहड़पन से घृणा होती थी। मृदुभाषणी मिसेज शापूर के सामने उन्हें अपनी गुलशन बानू संकीर्णता और ईर्ष्या का अवतार-सा लगती थी। शापूरजी के घर में आते, तो शीरी-बाई मृदु हास से उनका स्वागत करती। वह खुद दिन-भर के थके-माँदे घर आते तो गुलशन अपना दुखड़ा सुनाने बैठ जाती और उनको खूब फटकारें बताती- तुम भी अपने को आदमी कहते हो। मैं तो तुम्हें बैल समझती हूँ, बैल। बड़ा मेहनती हैं, गरीब हैं, सन्तोषी हैं, माना लेकिन उसे विवाह करने का क्या हक था?
कावसजी से एक लाख बार यह प्रश्न किया जा चुका हैं था कि जब तन्हें समाचार-पत्र निकालकर अपनी जीवन बरबाद करना था, तो तुमने विवाह क्यों किया? क्यों मेरी जिन्दगी तबाह कर दी? जब तुम्हारे घर में रोटियाँ न थी, तो मुझे क्यो लाये! इस प्रश्न का जवाब देने का कावसजी में शक्ति न थी। उन्हें कुछ सूझता ही न था। वह सचमुच अपनी गलती पर पछताते थे। एक बार बहुत तंग आकर उन्होंने कहा था- अच्छा भाई अब तो जो होना था; हो चुका; लेकिन मैं तुम्हें बाँधे तो नही हूँ, तुम्हें जो पुरुष ज्यादा सुखी रख सके , उसके साथ जाकर रहो, अब मैं क्या कहूँ ? आमदनी नही बढ़ती, तो मैं क्या करूँ? क्या चाहती हो, जान दे दूँ? इस पर गुलशन में उनके दोनों कान पकड़कर जोर से ऐंठे और गालों पर दो तमाचे लगाये और पैनी आँखों से काटती हुई बोली- अच्छा, अब चोंच सँभालो, नहीं तो अच्छा न होगा। ऐसी बात मुँह से निकालते तुम्हें लाज नही आती। हयादार होते, तो चिल्लू भर पानी में डूब मरते। उस दूसरे पुरुष के महल में आग लगा दूँगी, उसका मुँह झुलस दूँगी। तब से बेचारे कावसजी के पास इस प्रश्न का कोई जवाब न रहा। कहाँ तो यह असंतोष और विद्रोह की ज्वाला और कहाँ वह मधुरता औऱ भद्रता की देवी शींरी, जो कावसजी को देखते ही फूल की तरह खिल उठती, मीठी-मीठी बातें करती, चाय, मुरब्बे और फूलों से सत्कार करती और अक्सर उन्हें अपनी कार पर घर पहुँचा देती। कावसजी ने कभी मन में भी इसे स्वीकार करने का साहस नहीं किया; मगर उनके हृदय में यह लालसा छिपी हुई थी कि गुलशन की जगह शीरीं होती, तो उनका जीवन कितना गुलजार होता! कभी-कभी गुलशन की कटूक्तियों से वह इतने दुखी हो जाते कि यमराज का आवाहन करते। घर उनके लिए कैदखाने से कम जान-लेवा न था और उन्हें जब अवसक मिलता, सीधें शीरीं के घर जाकर अपने दिल की जलन बुझा आते।
एक दिन कावसजी सबेरे गुलशन से झल्लाकर रजी के टेरेस में पहुँचे, तो देखा शीरी बानू की आँखें लाल हैं और चेहरा भभराया हुआ हैं, जैसे रोकर उठी हो। कावसजी ने चिन्तित होकर पूछा- आपका जी कैसा है, बुखार तो नहीं आ गया।
शीरीं ने दर्द-भरी आँखों से देखकर रोनी आवाज से कहा- नही, बुखार तो नहीं हैं, कम-से-कम देह का बुखार तो नहीं हैं।
कावसजी इस पहेली का कुछ मतलब न समझे।
शीरीं ने एक क्षण मौन रहकर फिर कहा- आपको मैं अपना मित्र समझती मि. कावसजी! आपसे क्या छिपाऊँ। मैं इस जीवन से तंग आ गयी हूँ। मैने अब तक हृदय की आग हृदय में रखी; लेकिन ऐसा मालूम होता है कि अब उसे बाहर न निकालूँ, तो मेरी हड्डियाँ तक जल जायेंगी। एक वक़्त आठ बजे हैं, लेकिन मेरे रँगीले पिया का कही पता नहीं। रात को खाना खाकर एक मित्र से मिलने का बहाना करके घर से निकले थे और अभी तक लौटकर नहीं आये। यह आज कोई नई बात नहीं हैं, इधर कई महीनों से इनकी रोज का आदत है। मैने आज तक आपसे कभी अपना दर्द नहीं कहा, मगर उस समय भी, जब मैं हँस-हँसकर आपसे बाते करती थी, मेरी आत्मा रोती थी।
कावसजी ने निष्कपट भाव से कहा- तुमने पूछा नहीं, कहाँ रह जाते हो?
‘पूछने से क्या लोग अपने दिल की बात बता दिया करते हैं?’
‘तुमसे तो उन्हें कोई भेद न रखना चाहिए।’
‘घर में जी न लगे तो आदमी क्या करे?’
‘मुझे तो यह सुनकर आश्चर्य हो रहा हैं। तुम जैसी देवी जिस घर में हो, वह स्वर्ग हैं। शापूरजी को तो अपना भाग्य सराहना चाहिए!’
‘आपका यह भाव तभी तक हैं, जब तक आपके पास धन नहीं हैं। आज तुम्हें कहीं से दो-चार लाख रुपये मिल जायँ, तो तुम यों न रहोगे और तुम्हारे ये भाव बदल जायँगे। यही धन का सबसे बड़ा अभिशाप हैं। ऊपरी सुख-शांति के नीचे कितनी आग हैं, यह तो उसी वक़्त खुलता हैं, तब ज्वालामुखी फट पड़ता हैं। वह समझते हैं, धन से घर भर कर उन्होंने मेरे लिए वह सब कुछ कर दिया जो उनका कर्त्तव्य था और अब मुझे असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं। यह नही जानते कि ऐश के ये सामान उस मिश्री-तहखानों में गड़े हुए पदार्थों की तरह हैं, जो मृतात्मा के भोग के लिए रखे जाते थे।’
कावसजी आज एक नयी बात सुन रहे थे। उन्हें अब तक जीवन का जो अनुभव हुआ था, वह यह था कि स्त्री अन्तःकरण से विलासिनी होती हैं। उस पर लाख प्राण वारो, उनके लिए मर ही क्यों न मिटो, लेकिन व्यर्थ । वह केवल खरहरा नहीं चाहती, उससे कहीं ज्यादा दाना और घास चाहती हैं। लेकिन एक यह देवी हैं, जो विलास की चीजों को तुच्छ समझती हैं और केवल मीठे स्नेह और सहवास से ही प्रसन्न रहना चाहती हैं। उनके मन में गुदगुदी सी उठी।
मिसेज शापूर ने फिर कहा- उनका यह व्यापार मेरी बर्दाश्त के बाहर हो गया हैं, मि. कावसजी! मेरे मन में विद्गोह की ज्वाला उठ रही हैं और मैं धर्मशास्त्र और मर्यादा इन सभी का आश्रय लेकर भी त्राण नही पाती ! मन को समझाती हूँ- क्या संसार में लाखों विधवाएँ नहीं पड़ी हुई हैं; लेकिन किसी तरह चित्त नहीं शान्त होता। मुझे विश्वास आता जाता हैं कि वह मुझे मैदान में आने के लिए चुनौती दे रहे हैं। मैने अब तक उनकी चुनौती नहीं ली हैं; लेकिन अब पानी सिर से ऊपर चढ़ गया हैं। और मैं किसी तिनके का सहारा ढूँढे बिना नहीं रह सकती। वह जो चाहते हैं, वह हो जायगा। आपके मित्र हैं, आपसे बन पड़े, तो उनको समझाइए। मैं इस मर्यादा की बेड़ी को अब और न पहन सकूँगी।
मि. कावसजी मन में भावी सुख का एक स्वर्ग का निर्माण कर रहे थे। बोले- हाँ- हाँ मैं अवश्य समझाऊँगा । यह तो मेरा धर्म हैं; लेकिन मुझे आशा नहीं कि मेरे समझाने का उन पर कोई असर हो। मैं तो दरिद्र हूँ, मेरे समझाने का उनकी दृष्टि में मूल्य ही क्या?
‘यों वह मेरे ऊपर कृपा रखते हैं बस, उनकी यहीं आदत मुझे पसन्द नही!’
‘तुमने इतने दिनों बर्दाश्त किया, यही आश्चर्य है। कोई दूसरी औरत तो एक दिन न सहती।’
‘थोड़ी-बहुत तो यह आदत सभी पुरुषों में होती हैं; लेकिन ऐसे पुरुषों की स्त्रियाँ भी वैसी ही होती हैं। कर्म से नही, मन से ही सही। मैने तो सदैव इनको अपना इष्टदेव समझा!’
‘किन्तु जब पुरुष इसका अर्थ ही न समझे, तो क्या हो? मुझे भय हैं, वह मन में कुछ और न सोच रहे हो।’
‘और क्या सोच सकते हैं?’
‘आप अनुमान कर सकती हैं?’
‘अच्छा, वह बात! मगर मेरा अपराध?’
‘शेर और मेमनेवाली कथा आपने नहीं सुनी?’
मिसेज शापूर एकाएक चुप हो गयी। सामने से शापूरजी की कार आती दिखायी दी। उन्होंने कावसजी को ताकीद की और विनय-भरी आँखों से देखा और दूसरे द्वार के कमरे से निकलकर अन्दर चली गयी। मि. शापूर लाल आँखे किये कार से उतरे और मुस्कराकर कावसजी से हाथ मिलाया। स्त्री की आँखें भी लाल थी, पति की आँखें भी लाल। एक रुदन से, दूसरी रात खुमारी से।
शापूरजी ने हैट उतारकर खूँटी पर लटकाते हुए कहा- क्षमा कीजिएगा, मैं रात को एक मित्र के घर सो गया। दावत थी। खाने में देर हुई, तो मैने सोचा अब कौन घर जाय।
कावसजी ने व्यंग्य मुसकान के साथ कहा- किसके यहाँ दावत थी। मेरे रिपोर्टर में तो कोई खबर नहीं दी। जरा मुझे नोट करा दीजिए।
उन्होंने जेब से नोटबुक निकाली।
शापुरजी ने सतर्क होकर कहा- ऐसी कोई बड़ी दावत नहीं थी जो, दो-चार मित्रों का प्रीतिभोज था।
‘फिर भी समाचार तो जानना चाहिए। जिस प्रीतिभोज में आप-जैसे प्रतिष्ठित लोग शरीक हो, वह साधारण बात नहीं हो सकती। क्या नाम हैं मेजवान साहब का?’
‘आप चौकेंगे तो नहीं?’
‘बताइए तो।’
‘मिस गौहर!’
‘मिस गौहर!!’
‘जी हाँ, आप चौकें क्यों? क्या आप इसे तस्लीम नहीं करते कि दिन-भर रुपये- आने-पाई से सिर मारने के बाद मुझे कुछ मनोरंजन करने का भी अधिकार हैं, नही तो जीवन भार हो जाय।’
‘मैं इसे नहीं मानता।’
‘क्यों?’
‘इसीलिए कि मैं इस मनोरंजन को अपनी ब्याहता स्त्री के प्रति अन्याय समझता हूँ । ’
शापूरजी नकली हँसी हँसे- यही दकियानूसी बात। आपको मालूम होना चाहिए; आज का समय ऐसा कोई बन्धन स्वीकार नहीं करता।
‘और मेरा ख्याल हैं कि कम-से-कम इस विषय में आज का समाज एक पीढ़ी पहले के समाज से कहीं परिष्कृत है। अब देवियों का यह अधिकार स्वीकार किया जाने लगा हैं।’
‘यानी देवियाँ पुरुषों पर हुकूमत कर सकती हैं?’
‘उसी तरह जैसे पुरुष देवियों पर हुकूमत कर सकते हैं।’
‘मैं इसे नहीं मानता। पुरुष स्त्री का मुहताज नहीं हैं, स्त्री पुरुष की मुहताज हैं।’
‘आपका आशय यही तो है कि स्त्री अपने भरण-पोषण के लिए पुरुष पर अवलम्बित हैं?’
‘अगर आप इन शब्दों में कहना चाहते हैं, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं; मगर अधिकार की बागडोर जैसे राजनीति में, वैसे ही समाज-नीति मे धनबल के हाथ रही हैं और रहेगी।’
‘अगर दैबयोग से धनोपार्जन का काम स्त्री कर रही हो और पुरुष कोई काम न मिलने के कारण घर बैठा हो, तो स्त्री को अधिकार हो कि अपना मनोरंजन जिस तरह चाहे करे?’
‘मैं स्त्री को अधिकार नहीं दे सकता।’
‘यह आपका अन्याय हैं।’
‘बिल्कुल नहीं। स्त्री पर प्रकृति मे ऐसे बन्धन लगा दिये हैं कि वह जितना भी चाहे, पुरुष की भाँति स्वच्छन्द नही रह सकती और न पशुबाल में पुरुष का मुकाबला ही कर सकती हैं। हाँ, गृहिणी का पदत्याग कर या अप्राकृतिक जीवन का आश्रय लेकर, वह सब कुछ कर सकती हैं।’
‘आप लोग उसे मजबूर कर रहे हैं कि अप्राकृतिक जीवन का आश्रय ले।’
‘मैं ऐसे समय की कल्पना ही नहीं कर सकता, जब पुरुषों का आधिपत्य स्वीकार करनेवाला औरतों का काल पड़ जाय। कानून और सभ्यता मैं नही जानता। पुरुषों ने स्त्रियों पर हमेशा राज किया हैं और करेंगे।’
सहसा कावसजी ने पहलू बदला। इतनी थोड़ी सी देर में ही वह अच्छे खासे कूटनीति-चतुर हो गये थे। शापूरजी को प्रशंसा-सूचक आँखों से देखकर बोले- तो हम और आप दोनों एक विचार के हैं। मैं आपकी परीक्षा ले रहा था। मैं भी स्त्री को गृहिणी, माता और स्वामिनी, सब कुछ मानने को तैयार हूँ, पर उसे स्वच्छन्द नहीं देख सकता। अगर कोई स्त्री स्वच्छन्द होना चाहती हैं तो उसके लिए मेरे घर में स्थान नहीं हैं। अभी मिसेज शापूर की बातें सुनकर दंग रह गया। मुझे इसकी कल्पना भी न थी कि कोई नारी मन में इतने विद्रोहात्मक भावों को स्थान दे सकती हैं।
मि. शापूर की गर्दन की नसें तन गयी; नथूने फूल गये। कुर्सी से उठकर बोले- अच्छा, तो अब शीरीं ने यह ढंग निकाला! मैं अभी उससे पूछता हूँ – आपके सामने पूछता हूँ – अभी फैसला कर डालूँगा। मुझे उसकी परवाह नही हैं। किसी की परवाह नहीं हैं। बेवफा औरत? जिसके हृदय में जरा भी संवेदना नहीं, जो मेरे जीवन में जरा-सा आनन्द भी नहीं सह सकती। चाहती हैं, मैं उसके अंचल में बँधा-बँधा घूमूँ ! शापूर से यह आशा रखती हैं? अभागिनी भूल जाती हैं कि आज मैं आँखों से इशारा कर दूँ, तो एक सौ एक शीरियाँ मेरी उपासना करने लगे; जी हाँ, मेरे इशारों पर नाचें। मैंने इसके लिए जो कुछ किया, बहुत कम पुरुष किसी स्त्री के लिए करते हैं। मैने… मैंने…
उन्हे ख्याल आ गया कि वह जरूरत से ज्यादा बहके जा रहे हैं। शीरी की प्रेममय सेवाएँ याद आयीं, रुककर बोले- लेकिन मेरा ख्याल हैं कि वह अब भी समझ से काम ले सकती हैं। मै उसका दिल नहीं दुखाना चाहता। मैं यह भी जानता हूँ कि वह ज्यादा-से-ज्यादा जो कर सकती हैं, वह शिकायत हैं। इसके आगे बढ़ने की हिमाकत वह नहीं कर सकती। औरतों को मना लेना बहुत मुश्किल नहीं हैं, कम-से-कम मुझे तो यही तजरबा हैं।
कावसजी ने खंडन किया- मेरा तजरबा तो कुछ और हैं।
‘हो सकता हैं; मगर आपके पास खाली बाते हैं, मेरे पास लक्ष्मी का आशीर्वाद हैं।’
‘जब मन में विद्रोह के भाव जम गये, तो लक्ष्मी के टाले भी नही टल सकते।’
शापूरजी ने विचारपूर्ण भाव से कहा- शायद आपका विचार ठीक हैं।
कई दिनों के बाद कावसजी की शीरीं से पार्क में मुलाकात हुई। वह इसी अवसर की खोज में थे। उसका स्वर्ग तैयार हो चुका था। केवल शीरीं को प्रतिष्ठित करने की कसर थी। उस शुभ-दिन की कल्पना में वह पागल-से हो रहे थे। गुलशन को उन्होंने उसके मैके भेज दिया था। भेज क्या दिया था, वह रूठकर चली गयी थी। जब शीरीं उनकी दरिद्रता का स्वागत कर रही हैं, तो गुलशन की खुशामद क्यो की जाय? लपककर शीरी से हाथ मिलाया और बोले- आप खूब मिलीं। मैं आज आनेवाला था।
शीरीं ने गिला करते हुए कहा- आपकी राह देखते-देखते आँखे थक गयी। आप भी जबानी हमदर्दी ही करना जानते हैं। आपको क्या खबर हुई, इन कई दिनों में मेरी आँखों से कितने आँसू बहे हैं।
कावसजी ने शीरीबानू की उत्कंठापूर्ण मुद्रा देखी, जो बहुमूल्य रेशमी साड़ी की आब से और भी दमक उठी थी, और उनका हृदय अंदर से बैठता हुआ जान पड़ा। उस छात्र की-सी दशा हुई, जो आज अन्तिम परीक्षा पास कर चुका हो औऱ जीवन का प्रश्न उसके सामने अपने भयंकर रूप में खड़ा हो । काश! वह कुछ दिन और परीक्षाओं की भूल-भुलैया में जीवन के स्वप्नों का आनन्द ले सकता! उस स्वप्न के सामने यह सत्य कितना डरावना था। अभी तक कावसजी ने मधुमक्खी का शहद ही चखा था। इस समय वह उनके मुख पर मँडरा रही थी और वह डर रहे थे कि डंक न मारे।
दबी हुई आवाज से बोले- मुझे यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। मैने तो शापुर को बहुत समझाया था।
शीरीं ने उनका हाथ पकड़कर एक बेच पर बिठा दिया औऱ बोली- उन पर अब समझाने-बुझाने का कोई असर न होगा। और मुझे ही क्या गरज पड़ी हैं कि मैं उनके पाँव सहलाती रहूँ । आज मैने निश्चय कर लिया हैं, अब उस घर में लौटकर न जाऊँगी । अगर उन्हें अदालत में जलील होने का शौक हैं, तो मुझ पर दावा करे, मै तैयार हूँ। मैं जिसके साथ नहीं रहना चाहती, उसके साथ रहने के लिए ईश्वर भी मुझे मजबूर नहीं कर सकता, अदालत क्या कर सकती हैं? अगर तुम मुझे आश्रय दे सकते हो, तो मैं तुम्हारी बनकर रहूँगी, तब तक तुम मेरे पास रहोगे। अगर तुममे इतना आत्मबल नहीं है, तो मेरे लिए दूसरे द्वार खुल जायेगे। अब साफ-साफ बतालाओ, क्या वह सारी सहानुभूति जबानी थी।
कावसजी ने कलेजा मजबूत करके कहा- नहीं-नहीं शीरी खुदा जानता करके, मुझे तुमसे कितना प्रेम हैं। तुम्हारे लिए मेरे हृदय में स्थान हैं।
‘मगर गुलशन का क्या करोगो?’
‘उसे तलाक दे दूँगा।’
‘हाँ, यहीं मैं चाहती हूँ। तो मैं तुम्हारे साथ चलूँगी, अभी इसी दम। शापूर से अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं हैं।’
कावसजी को अपने दिन में कम्पन का अनुभव हुआ। बोले- लेकिन अभी तो वहाँ कोई तैयारी नहीं हैं।
‘मेरे लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं। तुम सब कुछ हो। टैक्सी ले लो। मैं इसी वक़्त चलूँगी।’
कावसजी टैक्सी को खोज में पार्क से निकले। वह एकान्त में विचार करने के लिए थोड़ा-सा समय चाहते थे, इस बहाने से उन्हें समय मिल गया। उन पर अब जवानी का नशा न था, जो विवेक की आँखों पर छाकर बहुधा हमें गड्ढ़े में गिरा देता था। अगर कुछ नशा था, तो अब तक हिरन हो चुका था। वह किस फन्दे में गला डाल रहे हैं, वह खूब समझते थे। शापूरजी उन्हें मिट्टी में मिला देने के लिए पूरा जोर लगायेंगे, यह भी उन्हें मालूम था। गुलशन उन्हें सारी दुनिया में बदनाम कर देंगी, यह भी वह जानते थे। ये सब विपत्तियाँ झेलने के लिए वह तैयार थे। शापूर की जबान बन्द करने के लिए उनके पास काफी दलीले थीं। गुलशन को भी स्त्री-समाज में अपमानित करने का उनके पास काफी मसाला था। डर था, तो यह कि शीरीं का यह प्रेम टिक सकेगा या नहीं। अभी तक शीरीं ने केवल उसके सौजन्य का परिचय पाया हैं, केवल उनकी न्याय, सत्य और उदारता से भरी बातें सुनी हैं। इस क्षेत्र में शापूरजी से उन्होंने बाजी मारी हैं, लेकिन उनके सौजन्य और उनकी प्रतिभा का जादू उनके बेसरोसामान घर में कुछ दिन ही रहेगा, इसमें उन्हें सन्देह था। हलवे की जगह चुपड़ी रोटियाँ भी मिले तो आदमी सब्र कर सकता हैं। रूखी भी मिल जायँ, तो वह सन्तोष कर लेगा; लेकिन सूखी घास सामने देखकर तो ऋषि-मुनि भी जामें से बाहर हो जायेंगे। शीरीं उनसे प्रेम करती हैं; लेकिन प्रेम के त्याग की भी तो सीमा हैं। दो-चार दिन भावुकता के उन्माद में यह सब्र कर ले; लेकिन भावुकता कोई टिकाऊँ चीज तो नहीं हैं। वास्तविकता के आघातों के सामने यह भाव भावुकता कै दिन टिकेगी । उस परिस्थिति की कल्पना करके कावसजी काँप उठे। अब तक वह रनिवास में रही हैं। अब उसे एक खपरैल का कॉटेज मिलेगा, जिसकी फर्श पर कालीन की जगह टाट भी नहीं हैं; कहाँ वरदीपोश नौकरों की पलटन, कहाँ एक बुढ़िया मामा की संदिग्ध सेवाएँ जो बात-बात पर भुनभुनाती हैं, धमकाती हैं, कोसती हैं। उनका आधा वेतन तो संगीत सिखाने वाला मास्टर ही खा जायगा औऱ शापूर जी ने कहीं ज्यादा कमीनापन से काम लिया, तो उनको बदमाशों से पिटवा भी सकते हैं? पिटने से वह नही डरते। यह तो उनका फतह होगी; लेकिन शीरीं की भोग-लालसा पर कैसे विजय पायें। बुढ़िया मामा जब मुँह लटकाये आकर उसके सामने रोटियाँ और सालन परोस देगी, तब शीरी के मुँह पर कैसी विदग्ध विरक्ति छा जायेगी। कहीं वह खड़ी होकर उनको और अपनी किस्मत को कोसने न लगे। नहीं, अभाव की पूर्ति सौजन्य से नहीं हो सकती। शीरीं का वह रूप किताना विकराल होगा।
सहसा एक कार सामने से आती दिखायी दी। कावसजी ने देखा- शापूरजी बैठे हुए थे। उन्होंने हाथ उठाकर कार को रुकवा लिया औऱ पीछे दौड़ते हुए जाकर शापूरजी से बोले- आप कहाँ जा रहे हैं?
‘यों ही जरा घूमने निकला था।’
‘शीरींबानू पार्क में हैं, उन्हें भी लेते जाइए।’
‘वह मुझसे लड़कर आयी हैं कि अब इस घर में कभी कदम न रखूँगी।’
‘और आप सैर करने जा रहे हैं?’
‘तो क्या आप चाहते हैं, बैठकर रोऊँ ?’
‘वह बहुत रो रही हैं।’
‘सच!’
‘हाँ बहुत रो रही हैं।’
‘तो शायद उसकी बुद्धि जाग रही हैं।’
‘तुम इस समय उन्हें मना लो, तो वह हर्ष से तुम्हारे साथ चली जायँ।’
‘मै परीक्षा करना चाहता हूँ कि वह बिना मनाये मानती हैं या नहीं।’
‘मैं बड़े असमंजस में पड़ा हुआ हूँ । मुझपर दया करो; तुम्हारे पैरो पड़ता हूँ ।’
‘जीवन में जो थोड़ा आनन्द हैं, उसे मनावन के नाट्य में नहीं छोड़ना चाहता।’
कार चल पड़ी औऱ कावसजी कर्त्तव्य-भ्रष्ट से वहीं खड़े रह गये। देर हो रही थीं। सोचा- कहीं शीरीं यह न समझ ले कि मैने भी उसके साथ दगा की; लेकिन जाऊँ भी तो क्योंकर? अपने सम्पादकीय कुटीर में उस देवी को प्रतिष्ठित करने की कल्पना ही उन्हें हास्यास्पद लगी। वहाँ के लिए तो गुलशन ही उपर्युक्त हैं। कुढ़ती हैं. कठोर बाते कहती हैं, रोती हैं, लेकिन वक़्त से भोजन तो देती हैं। फटे हुए कपड़ों को रफू तो कर देती हैं, कोई मेहमान आ जाता हैं, तो कितने प्रसन्न- मुख से उसका आदर-सत्कार करती हैं, मानो उसके मन में आनन्द-ही-आनन्द हैं। कोई छोटी-सी चीज भी दे दी, तो कितना फूल उठती हैं। थोड़ी-सी तारीफ करके चाहे उससे गुलामी करवा लो। अब उन्हें जरा-जरा बात पर झुँझला पड़ना, उसकी सीधी सी बातों का टेढ़ा जवाब देना, विकल करने लगा। उस दिन उसने यही तो कहा था कि उसकी छोटी बहन के सालगिरह पर कोई उपहार भेजना चाहिए। इसमें बरसने की कौन-सी बात थी। माना वह अपना सम्पादकीय नोट लिख रहे थे, लेकिन उनके लिए सम्पादकीय नोट जितना महत्व रखता हैं, क्या गुलशन के लिए उपहार भेजना उतना ही या उससे ज्यादा महत्व नही रखता? बेशक, उनके पास उस समय रुपये न थे, तो क्या वह मीठे शब्दों में यह नहीं कह सकते थे कि डार्लिंग? मुझे खेद हैं, अभी हाथ खाली हैं, दो-चार रोज में मैं कोई प्रबन्ध कर दूँगा । यह जवाब सुनकर वह चुप हो जाती। और अगर कुछ भुनभुना ही लेती तो उनका क्या बिगड़ जाता था? अपने टिप्पणियों में वह कितनी शिष्टता का व्यवहार करते हैं। कलम जरा भी गर्म पड़ जाय, तो गर्दन नापी जाय। गुलशन पर वह क्यों बिगड़ जाते हैं? इसीलिए कि वह उसके अधीन है और उन्हें रूठ जाने के सिवा कोई दंड नहीं दे सकती। कितनी नीच कायरता हैं कि हम सबलों के सामने दुम हिलाये और जो हमारे लिए अपने जीवन का बलिदान कर रही हैं, उसे काटने दौड़े।
सहसा एक तांगा आता हुआ दिखायी दिया और सामने आते ही उस पर से एक स्त्री उतर कर उनकी ओर चली। अरे! यह तो गुलशन हैं। उन्होंने आतुरता से आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया और बोले- तुम इस वक़्त यहाँ कैसे आयीं? मैं अभी-अभी तुम्हारा ही ख्याल कर रहा था।
गुलशन ने गदगद् कंठ से कहा- तुम्हारे ही पास जा रहीं थी। शाम को बरामदे में बैठी तुम्हारा लेख पड़ रही थी- न जाने कब झपकी आ गयी और मैंने एक बुरा सपना देखा। मारे डर के मेरी नींद खुल गयी और तुमसे मिलने चल पड़ी। इस वक़्त यहाँ कैसे खड़े हो? कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी? रास्ते भर मेरा कलेजा धड़क रहा था।
कावसजी ने आश्वासन देते हुए कहा- मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ । तुमने क्या स्वप्न देखा?
‘मैने देखा- जैसे तुमने एक रमणी को कुछ कहा हैं और वह तुम्हें बाँध कर घसीटे लिये जा रही हैं।’
‘कितना बेहूदा स्वप्न हैं; और तुम्हें इस पर विश्वास भी आ गया? मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि स्वप्न केवल चिन्तित मन की क्रीड़ा हैं।’
‘तुम मुझसे छिपा रहे हो। कोई न कोई बात हुई हैं जरूर। तुम्हारा चेहरा बोल रहा हैं। अच्छा, तुम इस वक़्त यहाँ क्यो खड़े हो? यह तो तुम्हारे पढ़ने का समय हैं।’
‘यों ही, जरा घूमने आया था।’
‘झूठ बोलते हो। खा जाओ मेरे सिर का कसम।’
‘अब तुम्हें एतबार ही न आयें तो क्या करूँ ?’
‘कसम क्योम नहीं खाते?’
‘कसम को मैं झूठ का अनुमोदन समझता हूँ।’
गुलशन ने फिर उनके मुख पर तीव्र दृष्टि डाली । फिर एक क्षण के बाद बोली- अच्छी बात हैं। चलो, घर चले।
कावसजी ने मुस्कराकर कहा- तुम फिर मुझसे लड़ाई करोगी।
‘सरकार से लड़कर भी तुम सरकार की अमलदारी में रहते हो कि नहीं? मैं भी तुमसे लडूँगी; मगर तुम्हारे साथ रहूँगी।’
‘हम इसे कब मानते हैं कि यह सरकार की अमलदारी हैं।’
‘यह तो मुँह से कहते हो। तुम्हारा रोआँ-रोआँ इसे स्वीकार करता हैं। नहीं तो तुम इस वक़्त जेल में होते।’
‘अच्छा, चलो, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।’
‘मैं अकेली नही जाने की। आखिर सुनूँ, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’
कावसजी ने बहुत कोशिश की कि गुलशन वहाँ से किसी तरह चली जायँ; लेकिन वह जितना ही इस पर जोर देते थे, उतना ही गुलशन का आग्रह भी बढ़ता जाता था। आखिर मजबूर होकर कावसजी को शीरीं और शापूर को झगड़े का वृत्तान्त कहना ही पड़ा; यद्यपि इस नाटक में उनका अपना जो भाग था उसे उन्होंने बड़ी होशियारी से छिपा देने की चेष्टा की।
गुलशन ने विचार करके कहा- तो तुम्हें भी यह सनक सवार हुई!
कावसजी ने तुरन्त प्रतिवाद किया- कैसी सनक! मैने क्या किया? अब यह तो इन्सानियत नहीं हैं कि एक मित्र की स्त्री मेरी सहायता माँगे और मैं बगलें झाँकने लगूँ।
‘झूठ बोलने के लिए बडी अक़ल की जरूरत होती हैं प्यारे, और वह तुममें नहीं हैं; समझे? चुपके से जाकर शीरींबानू को सलाम करो और कहो कि आराम से अपने घर में बैठे। सुख कभी सम्पूर्ण नहीं मिलता। विधि इतना घोर पक्षपात नहीं कर सकता। गुलाब में काँटे होते ही हैं। अगर सुख भोगना हो तो उसे उसके दोषों के साथ भोगना पड़ेगा। अभी विज्ञान ने कोई उपाय नहीं निकाला कि हम सुख के काँटो को अलग कर सके! मुफ्त का माल उड़ानेवाले को ऐयाशी के सिवा और सूझेगी क्या? अगर धन सारी दुनिया का विलास न मोल लेना चाहे तो वह धन ही कैसा? शीरीं के लिए भी क्या वे द्वार नहीं खुले हैं, शापूरजी के लिए खुले हैं? उससे कहो- शापूर के घर में रहें, उसके धन को भोगे और भूल जाय कि वह शापूर की स्त्री हैं, उसी तरह जैसे शापूर भूल गया हैं कि वह शीरीं का पति हैं। जलना और कुढ़ना छोडकर विलास का आनन्द लूटे । उसका धन, एक-से-एक रूपवान विद्वान् नवयुवकों को खींच लायेंगा। तुमने ही एक बार मुझसे कहा था कि एक जमाने में फ्रांस में धनवान् विलासिनी महिलाओं का समाज पर आधिपत्य था। उनके पति सब कुछ देखते थे औऱ मुँह खोने का साहस न करते थे। और क्या खोलते ? वे खुद इसी धुन में मस्त थे। यह धन का प्रसाद हैं। तुमसे न बने, तो चलो, मैं शीरीं को समझा दूँ। ऐयाश मर्द की स्त्री अगर ऐयाश न हो तो यह उसकी कायरता हैं- लतखोरपन हैं!’
कावसजी ने चकित होकर कहा- लेकिन तुम भी तो धन की उपासक हो?
गुलशन ने शर्मिन्दा होकर कहा- यहीं तो जीवन का शाप हैं। हम उसी चीज पर लपकते हैं, जिसमें हमारा अमंगल हैं, सत्यानाश हैं। मैं बहुत दिन पापा के इलाके में रही हूँ । चारों तरफ किसान और मजदूर रहते थे। बेचारे दिन-भर पसीना बहाते थे, शाम को घर जाते। ऐयाशी और बदनामी का कहीं नाम न था। और यहाँ शहर में देखती हूँ कि सभी घरों में यहीं रोना हैं। सब-के -सब हथकंड़ो से पैसे कमाते हैं और अस्वाभाविक जीवन बिताते हैं। आज तुम्हें कहीं से धन मिल जाय, तो तुम भी शापूर बन जाओगे, निश्चय।
‘तब शायद तुम भी अपने बताये हुए मार्ग पर चलोगी, क्यों?’
‘शायद नहीं, अवश्य।’