अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्से और लेडी डॉक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में जच्चेखानों पर अभी तक भंगिनों का ही प्रभुत्व हैं और निकट भविष्य में इसमें तब्दीली होने की आशा नहीं। बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, शिक्षित थे और जच्चेखानों में सुधार की आवश्यकता को मानते थे, लेकिन इसमें जो बाधाएँ थी, उन पर विजय कैसे पाते? कोई नर्स देहात जाने पर राजी न हुई औऱ बहुत कहने-सुनने से राजी भी हुई, तो इतनी लम्बी-चौड़ी फीस माँगी कि बाबू साहब को सिर झुकाकर चले आने के सिवा और कुछ न सूझा। लेडी डॉक्टर के पास जाने की उन्हें हिम्मत पड़ी। उसकी फीस री करने के लिए तो शायद बाबू साहब को अपनी आधी जायदाद बेचनी पड़ती; इसलिए जब तीन कन्याओं के बाद वह चौथा लड़का पैदा हुआ, तो फिर वहीं गूदड़ था और वहीं गूदड़ की बहू । बच्चे अक्सर रात ही को पैदा होते हैं। एक दिन आधीरात को चपरासी ने गूदड़ के द्वार पर ऐसी हाँक लगायी कि पास-पड़ोस में भी जाग पड़ गयी। लड़की न थी कि मरी आवाज से पुकारता।
गूदड़ के घर में इस शुभ अवसर के लिए महीनों से तैयारी हो रही थी। भय था तो यही कि फिर बेटी न हो जाय, नहीं तो वहीं बँधा हुआ एक रुपया और एक साड़ी मिलकर रह जायगी। इस विषय में स्त्री-पुरुष में कितने ही बार झगड़ा हो चुका था, शर्त लग चुकी थी। स्त्री कहती थी- अगर अबकी बेटा न हो तो मुँह न दिखाऊँ, हाँ-हाँ, मुँह न दिखाऊँ, सारे लच्छन बेटे के हैं। और गुदड़ कहता था- देख लेना, बेटी होगी और बीच खेत बेटी होगी। बेटा निकले तो मूँछें मुँड़ा लूँ, हाँ-हाँ, मूँछें मुँड़ा लूँ। शायद गूदड़ समझता था कि इस तरह अपनी स्त्री के पुत्र-कामना को बलवान करके वह बेटे की अवार्ड के लिए रास्ता साफ कर रहा हैं।
भूँगी बोली- अब मूँछ मुँड़ा ले दाढ़ीजार! कहती थी, बेटा होगा। सुनता ही न था। अपनी रट लगाये जाता था। मैं आज तेरी मूँछें मूँडूँगी, खूँटी तक तो रखूँगी ही नहीं।
गूदड़ ने कहा- अच्छा मूँड़ लेना भलीमानस! मूँछें क्या फिर न निकलेगी ही नहीं? तीसरे दिन देख लेना, फिर ज्यों-की-त्यों हैं, मगर जो कुछ मिलेगा, उसमें आधा रखा लूँगा, कहे देता हूँ।
भूँगी ने अँगूठा दिखाया और अपने तीन महीने के बालक को गूदड़ के सुपुर्द कर सिपाही के साथ चल खड़ी हुई।
गूदड़ ने पुकारा- अरी! सुन तो, कहाँ भागी जाती हैं? मुझे भी बधाई बजाने जाना पड़ेगा। इसे कौन सँभालेगा?
भूँगी ने दूर ही से कहा- इसे वहीं धरती पर सुला लेना। मैं आके दूध पिला जाऊँगी ।
महेशनाथ के यहाँ अब भूँगी की खूब खातिरदारियाँ होने लगीं। सबेरे हरीरा मिलता, दोपहर को पूरियाँ और हलवा, तीसरे पहर को फिर और रात को फिर और गूदड़ को भी भरपूर परोसा मिलता था। भूँगी अपने बच्चे को दिन-रात में एक-दो बार से ज्यादा न पिला सकती थी। उसके लिए ऊपर के दूध का प्रबन्ध था। भूँगी का दूध बाबूसाहब का भाग्यवान बालक पीता था। और यह सिलसिला बारहवें दिन भी न बन्द हुआ। मालकिन मोटी-ताजी देवी थी; पर अब की कुछ ऐसा संयोग था कि उन्हें दूध हुआ ही नहीं। तीनों लड़कियों की बार इतने इफरात से दूध होता था कि लड़कियों को बदहजमी हो जाती थी। अब की बार एक बूँद नहीं, भूँगी दाई भी थी और दूध-पिलाई भी।
मालकिन कहती- भूँगी, हमारे बच्चे को पाल दे, फिर जब तक तू जिये, बैठी खाती रहना। पाँच बीघे माफी दिलवा दूँगी। नाती-पोते तक चैन करेंगे।
और भूँगी का लाड़ला ऊपर का दूध हजन न कर सकने के कारण बार-बार उलटी करता और दिन-दिन दुबला होता जाता था।
भूँगी कहती- बहुजी, मूँडन में चूड़े लूँगी, कहे देती हूँ।
बहूजी उत्तर देती- हाँ हाँ, चूड़े लेना भाई, धमकाती क्यों हैं? चाँदी के लेगी या सोने के।
‘वाह बहूजी! चाँदी के पहन के किसे मूँह दिखाऊँगी और किसकी हँसी होगी?’
‘अच्छा सोने के लेना भाई, कह तो दिया।’
‘और ब्याह में कंठा लूँगी और चौधरी(गूदड़) के लिए हाथों के तोड़े।’
‘वह भी लेना, भगवान वह दिन तो दिखावे।’
घर की मालकिन के बाद भूँगी का राज्य था। महरियाँ, महराजिन, नौकर-चाकर सब उसका रोब मानते थे। यहाँ तक कि खुद बहूजी भी उससे दब जाती थी। एक बार तो उसने महेशनाथ को भी डाँटा था। हँसकर टाल गये। बात चली थी भंगियों की। महेशनाथ ने कहा था- दुनिया में और चाहे जो कुछ भी हो जाय, भंगी भंगी ही रहेंगे। इन्हें आदमी बनाना कठिन हैं।
इस पर भूँगी ने कहा था- मालिक, भंगी तो बड़ो-बड़ो को आदमी बनाते हैं, उन्हें कोई क्या आदमी बनाये।
यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भूँगी के सिर के बाल बच सकते थे? लेकिन आज बाबूसाहब उठाकर हँसे और बोले- भूँगी बात बड़े पते की कहती हैं।
भूँगी का शासनकाल साल-भर से आगे न चल सका। देवताओं ने बालक के भंगिन का दूध पीने पर आपत्ति की, मोटेराम शास्त्री तो प्रायश्चित का प्रस्ताव कर बैठे। दूध तो छुड़ा दिया गया; लेकिन प्रायश्चित की बात हँसी में उड़ गयी महेशनाथ ने फटकारकर कहा- प्रायश्चित की खूब कहीं शास्त्रीजी, कल तक तो उसी भंगिन का दूध पीकर पला, अब उससे छूत घुस गयी। वाह रे आपका धर्म।
शास्त्रीजी शिखा फटकारकर बोले- यह सत्य हैं, वह कल तक भंगिन का रक्त पीकर पला। माँस खाकर पला, यह भी सत्य हैं; लेकिन कल की बात कल थी, आज की बात आज। जगन्नाथपुरी में छूत-अछूत सब एक पंगत में खाते हैं; पर यहाँ तो नहीं खा सकते। बीमारी में तो हम भी कपड़े पहने खा लेते हैं, खिचड़ी तक खा लेते हैं बाबूजी ; लेकिन अच्छे हो जाने पर तो नेम का पालन करना ही पड़ता हैं। आपद्धर्म की बात न्यारी हैं।
‘तो इसका यह अर्थ हैं कि धर्म बदलता रहता हैं- कभी कुछ, कभी कुछ?’
‘और क्या! राजा का धर्म अलग, प्रजा का धर्म अलग, अमीर का धर्म अलग, गरीब का अलग, राजे-महाराजे जो चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें शादी-ब्याह करें, उनके लिए कोई बन्धन नहीं। सर्मथ पुरुष हैं। बन्धन तो मध्यवालो के लिए हैं।‘
प्रायश्चित को न हआ; लेकिन भूँगी को गद्दी से उतरना पड़ा! हाँ, दान-दक्षिणा इतनी मिली कि वह अकेले ले न जा सकी और सोने के चूड़े भी मिले। एक की जगह दो नयी, सुन्दर साड़ियाँ- मामूली नैनसुख की नहीं, जैसी लड़कियों की बार मिली थीं।
इसी साल प्लेग ने जोर बाँधा और गूदड़ पहले ही चपेट मे आ गया। भूँगी अकेली रह गयी; पर गृहस्थी ज्यों-की-त्यों चलती रही। लोग ताक लगाये बैंठे थे कि भूँगी अब गयी। फलाँ भंगी से बातचीत हुई, फलाँ चौधरी आये, लेकिन भूँगी न कहीं आयी, न कहीं गयीं, यहाँ तक कि पाँच साल बीत गये और बालक मंगल, दब दुर्बल और सदा रोगी रहने पर भी, दौड़ने लगा। सुरेश के सामने पिद्दी-सा लगता था।
एक दिन भूँगी महेशनाथ के घर का परनाला साफ कर रही थी। महीनों से गलीज जमा हो रहा था। आँगन में पानी भरा रहने लगा था। परनाले में एक लम्बा मोटा बाँस डालकर जोर से हिला रही थी। पूरा दाहिना हाथ परनाले के अन्दर था कि एकाएक उसने चिल्लाकर हाथ बाहर निकल लिया और उसी वक़्त एक काला साँप परनाले से निकलकर भागा। लोगों ने दौड़कर उसे मार तो डाला; लेकिन भूँगी को न बचा सके। समझे; पानी का साँप हैं, विषैला न होगा, इसलिए पहले कुछ गफलत की गयी। जब विष देह में फैल गया और लहरें आने लगीं, तब पता चला कि वह पानी का साँप नहीं, गेहुँवन था।
मंगल अब अनाथ था। दिन-भर महेशबाबू के द्वार पर मँडराया करता। घर में जूठन इतना बचता था कि ऐसे-ऐसे दस बालक पल सकते थे। खाने की कोई कमी न थी। हाँ, उसे बुरा जरूर लगता था, जब उसे मिट्टी के कसोरों में ऊपर से खाना दिया जाता था। सब लोग अच्छे-अच्छे बरतनों मे खाते हैं, उसके लिए मिट्टी के कसोरे!
यों उसे इस भेद भाव का बिल्कुल ज्ञान न होता था; लेकिन गाँव के लड़के चिढ़ा- चिढ़ाकर उसका अपमान करते रहते थे। कोई उसे अपने साथ खेलाता भी न था। यहाँ तक कि जिस टाट पर वह सोता था, वह भी अछूत थी। मकान के सामने एक नीम का पेड़ था। इसी के नीचे मंगल का डेरा था। एक फटा-सा टाट का टुकड़ा, दो मिट्टी के कसोरे और एक धोती, जो सुरेशबाबू की उतारन थी, जाड़ा, गरमी, बरसात हरेक मौसम में वह जगह एक-सी आरामदेह थी और भाग्य का बली मंगल झुलसती हुई लू, गलते हुए जाड़े और मूसलाधार वर्षा में भी जिन्दा और पहले से कहीं स्वस्थ था। बस, उसका कोई अपना था, तो गाँव को एक कुत्ता, जो अपने सहवर्गियों के जुल्म से दख दुखी होकर मंगल की शरण आ पड़ा था। दोनों एक ही खाना खाते, एक ही टाट पर सोते, तबीअत भी दोनों की एक-सी थी और दोनों एक दूसरे के स्वभाव को जान गये थे। कभी आपस में झगड़ा न होता।
गाँव के धर्मात्मा लोग बाबूसाहब की इस उदारता पर आश्चर्य करते। ठीक द्वार के सामने- पचास हाथ भी न होगा – मंगल का पड़ा रहना उन्हें सोलहों आने धर्म-विरुद्ध जान पड़ता। छिः ! यहीं हाल रहा, तो थोड़े ही दिनों में धर्म का अन्त ही समझों। भंगी को भी भगवान ने ही रचना हैं, यह हम भी जानते हैं। उसके साथ हमें किसी तरह का अन्याय न करना चाहिए, यह किसे नही मालूम ? भगवान का तो नाम ही पतित-पावन हैं; लेकिन समाज की मर्यादा भी कोई वस्तु हैं! उस द्वार पर जाते हुए संकोच होता हैं। गाँव का मालिक हैं, जाना तो पड़ता ही हैं; लेकिन बस यहीं समझ लो कि घृणा होती हैं।
मंगल और टामी में गहरी बनती हैं। मंगल कहता – देखों भाई टामी, जरा और खिसककर सोओ। आखिर मैं कहा लेटूँ ? सारा टाट तो तुमने घेर लिया।
टामी कूँ-कूँ करता, दुम हिलाता और खिसक जाने के बदले और ऊपर चढ़ आता एवं मंगल का मुँह चाटने लगता।
शाम को वह एक बार रोज अपना घर देखने और थोड़ी देर रोने जाता। पहले साल फूस का छप्पर गिर पड़ा, दूसरे साल एक दीवार गिरी और अब केवल आधी- आधी दीवारें खड़ी थी, जिनका ऊपर का भाग नोकदार हो गया था। यही उसके स्नेह की सम्पत्ति मिली। वही स्मृति, वही आकर्षण, वही प्यार उसे एक बार उस उजड़ में खिच ले जाती थी और टामी सदैव उसके साथ होता था। मंगल नोकदार दीवार पर बैठ जाता और जीवन के बीते और आनेवाले स्वप्न देखने लगता और बार-बार उछल कर उसकी गोद में बैठने की असफल चेष्ठा करता।
एक दिन कई लड़के खेल रहे थे। मंगल भी पहुँच कर दूर खड़ा हो गया। या तो सुरेश को उस पर दया आयी, या खेलनेवालों की जोड़ी पूरी न पड़ती थी, कह नहीं सकते। जो कुछ भी हो, तजवीज की कि आज मंगल को भी खेल में शरीक कर लिया जाय। यहाँ कौन देखने आता हैं। क्यों रे मंगल, खेलेगा।
मंगल बोला- ना भैया, कहीं मालिक देख ले, तो मेरी चमड़ी उधेड़ दी जाय। तुम्हें म्हें क्या, तुम तो अलग हो जाओगे।
सुरेश ने कहा- तो यहाँ कौन आता हैं देखने बे? चल, हम लोग सवार-सवार खेलेगे। तू घोड़ा बनेगा, हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके दौड़ायेंगे?
मंगल ने शंका की- मैं बराबर घोड़ा ही रहूँगी, कि सवारी भी करूँगा? यह बता दो।
यह प्रश्न टेढ़ा था। किसी ने इस पर विचार न किया था। सुरेश ने एक क्षण विचार करके कहा- तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठायेगा, सोच? आखिर तू भंगी हैं कि नहीं?
मंगल भी कड़ा हो गया। बोला- मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हें मेरी ही माँ ने अपना दूध पिलाकर पाला हैं। जब तब मुझे भी सवारी करने को न मिलेगी, मैं घोड़ा न बनूँगा। तुम लोग बड़े चघड़ हो। आप तो मजे से सवारी करोगे और मैं घोड़ा ही बना रहूँ ।
सुरेश ने डाँट कर कहा, तुझे घोड़ा बनना पड़ेगा और मंगल को पकड़ने दौड़ा। मंगल भागा। सुरेश ने दौड़ाया। मंगल ने कदम और तेज किया। सुरेश ने भी जोर लगाया; मगर वह बहुत खा-खाकर थुल-थुल हो गया था और दौड़ने में उसकी साँस फूलने लगी।
आखिर उसने रूक कर कहा- आकर घोड़ा बनो मंगल, नहीं तो कभी पा जाऊँगा, तो बुरी तरह पीटूँगा।
‘तुम्हें भी घोड़ा बनना पड़ेगा।’
‘अच्छा हम भी बन जायँगे।’
‘तुम पीछे से निकल जाओगे। पहले तुम घोड़ा बन जाओ। मैं सवारी कर लूँ, फिर मैं बनूँगा।’
सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था। मंगल का यह मुतालबा सुनकर साथियों से बोला- देखते हो इसकी बदमाशी, भंगी हैं न!
तीनों ने मंगल को घेर लिया और जबरदस्ती घोड़ा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा दिया और टिकटिक करके बोला- चल घोड़े, चल!
मंगल कुछ देर तर तो चला, लेकिन बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी। उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया। सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे।
माँ ने सुना, सुरेश कहीं रो रहा हैं। सुरेश कहीं रोये, तो उनके तेज कानों में जरूर भनक पड़ जाती थी और उसका रोना भी बिल्कुल निराला होता था, जैसे छोटी लाइन के इंजन की आवाज।
महरी से बोली- देख तो, सुरेश कहीं रो रहा हैं, पूछ तो किसने मारा हैं।
इतने में सुरेश खुद आँख मलता हुआ आया। उसे जब रोने का अवसर मिलता था, तो माँ के पास फरियाद लेकर जरूर आता था। माँ मिठाई या मेवे देकर आँसू पोंछ देती थी। आप थे तो आठ साल के, मगर थे बिल्कुल गावदी। हद से ज्यादा प्यार ने उसकी बुद्धि के साथ वहीं किया, जो हद से ज्यादा भोजन ने उसकी देह के साथ।
माँ ने पूछा- क्यो रोता हैं, किसने मारा?
सुरेश ने रोकर कहा- मंगल ने छू दिया।
माँ को विश्वास न आया। मंगल इतना निरीह थी कि उससे किसी तरह की शरारत की शंका न थी; लेकिन सुरेश कसमें खाने लगा, तो विश्वास करना लाजिम हो गया। मंगल को बुलाकर डाँटा- क्यों रे मंगल, अब तुझे बदमाशी सूझने लगी। मैने तुझसे कहा था, सुरेश को कभी मत छूना, याद हैं कि नहीं, बोल।
मंगल ने दबी आवाज से कहा- याद क्यों नहीं हैं।
‘तो फिर तूने उसे क्यों छुआ?’
‘मैने नहीं छुआ।’
‘तून नहीं छुआ, तो वह रोता क्यो था?’
‘गिर पड़े, इससे रोने लगे।’
चोरी और सीनाजोरी। देवीजी दाँत पीसकर रह गयी। मारती, तो उसी दम स्नान करना पड़ता। छड़ी तो हाथ में लेनी ही पड़ती और छूत का विद्युत-प्रवाह इस छड़ी के रास्ते उनकी देह में पैवस्त हो जाता, इसलिए जहाँ तक गालियाँ दे सकी, दी और हुक्म दिया कि अभी-अभी यहाँ से निकल जा। फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आयी, तो खून ही पी जाऊँगी । मुफ्त को रोटियाँ खा-खाकर शरारत सूझती हैं; आदि।
मंगल में गैरत तो क्या थी, हाँ, डर था। चुपके से अपने सकोरे उठाये, टाट का टुकड़ा बगल में दबाया, धोती कन्धे पर रखी और रोता हुआ वहाँ से चल पड़ा। अब वह यहाँ कभी न आयेगा। यही तो होगा कि भूखों मर जायगा। क्या हरत हैं? इस तरह जीने से फायदा ही क्या? गाँ में उसके लिए और कहाँ ठिकाना था? भंगी को कौन पनाह देता? उसी खंडहर की ओर चला, जहाँ भले दिनों की स्मृतियाँ उसके आँसू पोंछ सकती थी और खूब फूट-फूटकर रोया।
उसी क्षण टामी भी उसे ढूँढता हुआ पहुँचा और दोनों फिर अपनी व्यथा भूल गये।
लेकिन ज्यों-ज्यों दिन का प्रकाश क्षीण होता जाता था, मंगल की ग्लानि भी क्षीण होती जाती थी। बचपन को बेचैन करने वाली भूख देह का रक्त पी-पीकर और भी बलवान होती जाती थी। आँखे बार-बार कसोंरों की ओर उठ जाती। कहाँ अब तक सुरेश की जूठी मिठाईयाँ मिल गयी होती। यहाँ क्या धूल फाँके ?
उसने टामी से सलाह की- खाओगे क्या टामी? मैं तो भूखा लेट रहूँगा।
टामी ने कूँ-कूँ करके शायद कहा- इस तरह अपमान तो जिन्दगी भर सहना हैं। यों हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा? मुझे देखो न, कभी किसी ने डंडा मारा, चिल्ला उठा, फिर जरा देर बाद दुम हिलाता हुआ उसके पास जा पहुँचा। हम-तुम दोनो इसीलिए बने हैं भाई!
मंगल ने कहा- तो तुम जाओ, जो कुछ मिले खा लो, मेरी परवाह न करो।
टामी ने अपनी श्वास-भाषा में कहा- अकेला नहीं जाता, तुम्हें साथ लेकर चलूँगा।
‘मैं नहीं जाता।’
‘तो मैं भी नहीं जाता।’
‘भूखों मर जाओगे।’
‘तो क्या तुम जीते रहोगे?’
‘मेरा कौन बैठा हैं, जो रोयगा ’
‘यहाँ भी वही हाल हैं भाई, क्वार में जिस कुतिया से प्रेम किया था, उसने बेवफाई की और अब कल्लू के साथ हैं। खैरियत यही हुई कि अपने बच्चे लेती गयी, नहीं तो मेरी जान गाढ़े में पड़ जाती। पाँच-पाँच बच्चों को कौन पालता?’
एक क्षण के बाद भूख ने एक दूसरी युक्ति सोच निकाली।
‘मालकिन हमें खोज रहीं होगी, क्या टामी?’
‘और क्या? बाबूजी और सुरेश खा चुके होगे। कहार ने उनकी थाली से जूठन निकाल लिया होगा और हमे पुकार रहा होगा।’
‘बाबूजी और सुरेश की थालियों में घी खूब रहता हैं और वह मीठी-मीठी चीज- हाँ मलाई।’
‘सब-का-सब घूरे पर डाल दिया जायगा।’
‘देखे, हमें खोजने कोई आता हैं?’
खोजने कौन आयेगा; क्या कोई पुरोहित हो? एक बार ‘मंगल-मंगल‘ होगा और बस, थाली परनाले में उँडेल दी जायेगी।
‘अच्छा, तो चलो चले। मगर मै छिपा रहूँगा, अगर किसी ने मेरा नाम लेकर न पुकारा ; तो मैं लौट आऊँगा । यह समझ लो।’
दोनो वहाँ से निकले और आकर महेशनाथ के द्वार पर अँधेरे में दबकर खड़े हो गये; मगर टामी को सब्र कहाँ? वह धीरे से अन्दर घुस गया। देखा, महेशनाथ और सुरेश थाली पर बैठ गये। बरोठे में धीरे से बैठ गया, मगर डर रहा था कि कोई डंडा न मार दे।
नौकर में बातचीत हो रही था। एक ने कहा- आज मँगलवा नहीं दिखायी देता। मालकिन मे डाँटा, इससे भागा हैं साइत।
दूसरे ने जवाब दिया- अच्छा हुआ, निकाल दिया गया। सबेरे-सबेरे भंगी का मुँह देखना पड़ता था।
मंगल और अँधेरे में खिसक गया। आशा गहरे जल में डूब गयी।
महेशनाथ थाली से उठ गये। नौकर हाथ धुला रहा था। अब हुक्का पीयेंगे और सोयेंगे। सुरेश अपनी माँ के पास बैठा कोई कहानी सुनता-सुनता सो जायगा! गरीब मंगल की किसे चिन्ता? इतनी देर हो गयी, किसी ने भूल से भी न पुकारा।
कुछ देर तक वह निराश-सा खड़ा रहा, फिर एक लम्बी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल में थाली की जूठन ले जाता नजर आया।
मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया। अब मन को कैसे रोके ?
कहार ने कहा- अरे, तू यहाँ था? हमने समझा कि कहीं चला गया। ले, खा ले; मै फेंकने जा रहा था।
मंगल ने दीनता से कहा- मैं तो बड़ी देर से यहाँ खड़ा था।
‘तो बोला क्यो नहीं?’
‘मारे डर के।’
‘अच्छा, ले खा ले।’
उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया। मंगल ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा, जिसमें दीन कृतज्ञता भरी हुई थी।
टामी भी अन्दर से निकल आया था। दोनों वहीं नीम के नीचे पत्तल में खाने लगे।
मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा- देखा, पेट की आग ऐसी होती हैं! यह लात की मारी रोटियाँ भी न मिलती, तो क्या करते?
टामी ने दुम हिला दी।
‘सुरेश को अम्माँ ने पाला था।’
टामी ने फिर दुम हिलायी।
‘लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा हैं।’
टामी ने फिर दुम हिलायी।