दस बजे रात का समय, एक विशाल भवन में एक सजा हुआ कमरा, बिजली की अँगीठी, बिजली का प्रकाश। बड़ा दिन आ गया।
सेठ खूबचन्दजी अफसरों की डालियाँ भेजने का सामान कर रहे हैं। फलों, मिठाइयों. मेवों, खिलौनों की छोटी-छोटी पहाड़ियाँ सामने खड़ी हैं। मुनीमजी अफसरों के नाम बोले जाते हैं और सेठजी अपने हाथों यथासामान डालियाँ लगाते जाते हैं।
खूबचन्दजी एक मिल के मालिक थे, बम्बई के बड़े ठीकेदार। एक बार नगर के मेयर भी रह चुके हैं। इस वक़्त भी व्यापारी-सभाओं के मन्त्री और व्यापार मंडल के सभापति हैं। इस धन, यश, मान की प्राप्ति में डालियों का कितना भाग हैं, यह कौन कह सकता हैं, पर इस अवसर पर सेठजी के दस-पाँच हजार बिगड़ जाते थे। अगर कुछ लोग तुम्हें खुशामदी, टोड़ी जीहजूर कहते हैं तो कहा करें। इससे सेठजी का क्या बिगड़ता हैं। सेठजी उन लोगों में नहीं हैं, जो नेकी करके दरिया में डाल दें।
पुजारीजी ने आकर कहा- सरकार, बड़ा विलम्ब हो गया । ठाकुरजी का भोग तैयार हैं।
अन्य धनिकों की भाँति सेठजी ने भी एक मन्दिर बनवाया था। ठाकुरजी की पूजा करने के लिए एक पुजारी नौकर रख लिया था।
पुजारी को रोष-भरी आँखों से देखकर कहा- देखते नहीं हो, क्या हो रहा हैं? यह भी एक काम हैं, खेल नहीं, तुम्हारे ठाकुरजी ही सब कुछ न देंगे। पेट भरने के पर ही पूजा सूझती हैं। घंटे-आध-घंटे की देर हो जाने से ठाकुर जी भूखों न मर जायँगें। पुजारी अपना-सा मुँह लेकर चले गये और सेठजी फिर डालियाँ सजाने में मसरूक हो गये।
सेठजी के जीवन का मुख्य काम धन कमाना था और उसके साधनों की रक्षा करना उनका मुख्य कर्त्तव्य। उनके सारे व्यवहार इसी सिद्धान्त के अधीन थे। मित्रों से इसलिए मिलते थे कि उससे धनोपार्जन में मदद मिलेगी। मनोरंजन भी करते थे तो व्यापार की दृष्टि से; दान बहुत देते थे पर उसमें भी यही लक्ष्य सामने रहता था। सन्ध्या और वन्दना उनके लिए पुरानी लकीर थी; जिसे पीटते रहनें में स्वार्थ सिद्ध होता था; मानो कोई बेगार हो। सब कामों से छुट्टी मिली, तो जाकर ठाकुर द्वारे में खड़े हो गये चरणामृत लिया और चले आये।
एक घंटे के बाद पुजारीजी फिर सिर पर सवार हो गये। खूबचन्द उनका मुँह देखते ही झुँझला उठे। जिस पूजा में तत्काल फायदा होता था, उसमें कोई बार-बार विध्न डाले तो क्यों न बुरा लगे? बोले- कह दिया, अभी मुझे फुरसत नहीं हैं। खोपड़ी पर सवार हो गये। मैं पूजा का गुलाम नहीं हूँ। जब घर में पैसे होते है, तभी ठाकुरजी की भी पूजा होती हैं। घर में पैसे न होगे. तो ठाकुरजी भी पूछने न आयेंगे।
पुजारी हताश होकर चला गया और सेठजी फिर अपने काम में लगे।
सहसा उनके मित्र केशवरामजी पधारे। सेठजी उठकर गले से लिपट गये और बोले- किधर से? मैं तो अभी तुम्हें बुलाने वाला था।
केशवराम ने मुस्कराकर कहा- इतनी रात गये तक डालियाँ ही लग रही हैं? कल का सारा दिन पड़ा हैं, लगा लेना। तुम कैसे इतना काम करते हो, मुझे तो यही आश्चर्य होता हैं। आज क्या प्रोग्राम था, याद हैं?
सेठजी ने गर्दन उठाकर स्मरण करने की चेष्टा करके कहा- क्या कोई विशेष प्रोग्राम था? मुझे तो याद नहीं आता (एकाएक स्मृति जाग उठती हैं) अच्छा, वह बात! हाँ, याद आ गया। अभी देर तो नहीं हुई । इस झमेले में ऐसा भूला कि जरा भी याद न रही।
‘तो चलो फिर। मैंने तो समझा था, तुम वहाँ पहुँच गये होगे।ʼ
‘मेरे न जाने से लैला नाराज तो नहीं हुई?ʼ
‘यह तो वहाँ चलने पर मालूम होगा। ’
‘तुम मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।’
‘मुझे क्या गरज पड़ी हैं, जो आपकी ओर क्षमा माँगूँ ! वह तो त्योरियाँ चढाये बैठी थी। कहने लगी- उन्हें मेरी परवाह नहीं तो मुझे भी उनकी परवाह नहीं। मुझे आने ही न देती थी। मैने शांत तो कर दिया, लेकिन कुछ बहाना करना पड़ेगा।’
खूबचन्द ने आँखें मारकर कहा- मैं कह दूँगा, गवर्नर साहब ने जरूरी काम से बुला भेजा था।
‘जी नहीं, यह बहाना वहाँ न चलेगा। कहेंगी- तुम मुझसे पूछकर क्यों नहीं गये? वह अपने सामने गवर्नर को समझती ही क्या हैं? रूप और यौवन बड़ी चीज हैं भाई साहब ! आप नहीं जानते।’
‘तो फिर तुम्हीं बताओं, कौन-सा बहाना करूँ?’
‘अजी, बीस बहाने हैं। कहना, दोपहर से 106 डिग्री का ज्वर था। अभी उठा हूँ ।’
दोनों मित्र हँसे और लैला का मुजरा सुनने चले।
सेठ खूबचन्द का स्वदेशी मिल देश के बहुत बड़े मिलों में हैं। जब से स्वदेशी- आन्दोलन चला हैं, मिल के माल की खपत दूनी हो गयी हैं। सेठजी ने कपड़े की दर में दो आने रुपया बढ़ा दिये हैं फिर भी बिक्री में कोई कमी नहीं हैं; लेकिन इधर अनाज कुछ सत्ता हो गया हैं, इसलिए सेठजी ने मजूरी घटाने की सूचना दे दी हैं। कई दिनों से मजरों के प्रतिनिधियों और सेठजी में बहस होती रही। सेठजी जौ-भर भी न दबना चाहते थे। जब उन्हें आधी मजूरी पर नये आदमी मिल सकते हैं; तब वह क्यों पुराने आदमियों को रखें। वास्तव में यह चाल पुराने आदमियों को भगाने ही के लिए चली गयी थी।
अंत में मजूरों ने यहीं निश्चय किया कि हड़ताल कर दी जाय।
प्रातःकाल का समय हैं। मिल के हाते में मजूरों की भीड़ लगी हुई हैं। कुछ लोग चारदीवारी पर बैठे हैं, कुछ जमीन पर; कुछ इधर-उधर मटरगश्त कर रहे हैं। मिल के द्वार पर कांस्टेबलों का पहरा हैं। मिल में पूरी हड़ताल हैं।
एक युवक को बाहर से आते देखकर सैकड़ो मजूर इधर-उधर से दौड़कर उसके चारों ओर जमा हो गये। हरेक पूछ रहा था- सेठजी ने क्या कहा?
यह लम्बा, दुबला, साँवला युवक मजूरों का प्रतिनिधि था। उसकी आकृति में कुछ ऐसी ढृढता, कुछ ऐसी निष्ठा, कुछ ऐसी गम्भीरता थी कि सभी मजूरों ने उसे नेता मान लिया था।
युवक के स्वर में निराशा थी, क्रोध था, आहत सम्मान का रुदन था।
‘कुछ नहीं हुआ। सेठजी कुछ नहीं सुनते।’
चारो ओर से आवाजें आयीं- तो हम भी उनकी खुशामद नहीं करते।
युवक ने फिर कहा- वह मजूरी घटाने पर तुले हुए हैं, चाहे कोई काम करे या न करे। इस मिल से इस साल दस लाख का फायदा हुआ हैं। यह हम लोगों ही की मेहनत का फल हैं, लेकिन फिर भी हमारी मजूरी काटी जा रही हैं। धनवानों का पेट कभी नहीं भरता। हम निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, हमारी कौन सुनेगा? व्यापार मंडल उनकी ओर हैं, सरकार उनकी ओर हैं, मिल के हिस्सेदार उनकी ओर हैं, हमारा कौन हैं? हमारा उद्धार तो भगवान ही करेंगे।
एक मजूर बोला- सेठजी भी तो भगवान के बड़े भगत हैं।
युवक ने मुस्कराकर कहा- हाँ, बहुत बड़े भक्त हैं। यहाँ किसी ठाकुर द्वारे में उनके ठाकुर द्वारे की-सी सजावट नहीं हैं, कहीं इतनी विधिपूर्वक भोग नहीं लगता, कहीं इतने उत्सव नहीं होते, कहीं ऐसी झाँकी नहीं बनती। उसी भक्ति का प्रताप हैं कि आज नगर में इतना सम्मान हैं, औरो का माल पड़ा सड़ता हैं, इनका माल गोदाम में नहीं जाने पाता। वही भक्तराज हमारी मजूरी घटा रहे हैं। मिल में अगर घाटा हो तो हम आधी मजूरी पर काम करेंगे, लेकिन जब लाखों का लाभ हो रहा हैं तो किस नीति से हमारी मजूरी घटायी जा रहीं हैं। हम अन्याय नहीं सह सकते। प्रण कर लो कि किसी बाहरी आदमी को मिल में घुसने न देंगे, चाहे वह अपने साथ फौज लेकर ही क्यों न आये? कुछ परवाह नहीं, हमारे ऊपर लाठियाँ बरसे, गोलियाँ चलें…
एक तरफ से आवाज आयी- सेठजी।
सभी पीछे फिर-फिर कर सेठजी की तरफ देखने लगे। सभी के चेहरों पर हवाईयाँ उड़ने लगी। कितने ही तो डरकर कांस्टबलों से मिल के अन्दर जाने के लिए चिरौरी करने लगे, कुछ लोग रुई की गाँठों की आड़ में जा छिपे। थोड़े से आदमी कुछ सहमे हुए- पर जैसे जान हथेली पर लिए – युवक के साथ खड़े रहे।
सेठजी ने मोटर से उतरते हुए कांस्टेबलों को बुलाकर कहा- इन आदमियों को मारकर बाहर निकाल दो, इसी दम।
मजूरों पर डंडे पड़ने लगे। दस-पाँच तो गिर पड़े। बाकी अपनी-अपनी जान लेकर भागे। वह युवक दो आदमियों के साथ अभी तक डटा खड़ा था।
प्रभुता असहिष्णु होती हैं। सेठजी खुद आ जायँ, फिर भी ये लोग सामने खड़े रहे, यह तो खुला हुआ विद्रोह हैं। यह बेअदबी कौन सह सकता हैं। जरा इस लौड़े को देखो। देह पर साबित कपड़े भी नहीं हैं; मगर जमा खड़ा हैं, मानों मैं कुछ हूँ ही नहीं। समझता होगा, यह मेरा कर ही क्या सकते हैं?
सेठजी ने रिवाल्कर निकाल लिया और इस समूह के निकट आकर उसे जाने का हुक्म दिया; पर वह समूह अचल खड़ा था। सेठजी उन्मत्त हो गये। यह हेकड़ी ! तुरन्त हेड कांस्टेबल को बुलाकर हुक्म दिया- इन आदमियों को गिरफ्तार कर लो।
कांस्टेबलों ने तीनो आदमियों को रस्सियों से जकड़ लिया और उन्हें फाटक की ओर ले चले। इनका गिरफ्तार होना था कि एक हजार आदमियों का दल रेला मारकर निकल आया और कैदियों की तरफ लपका। कांस्टेबलों ने देखा, बन्दूक चलाने पर भी जान न बचेगी, तो मुलजिमों को छोड़ दिया और भाग खड़े हुए। सेठजी को ऐसा क्रोघ आया कि इन सारे आदमियों को तोप से उड़वा दें। क्रोध में आत्म-रक्षा की भी उन्हें परवाह न थी। कैदियों को सिपाहियों से छुड़ाकर वह जन समूह सेठजी की ओर आ रहा था। सेठजी ने समझा- सब-के -सब मेरी जान लेने आ रहे हैं। अच्छा! यह लौड़ा गोपी सभी के आगे हैं! यहीं यहाँ भी इनका नेता बना हुआ है! मेरे सामने कैसा भीगी बिल्ली बना हुआ था; पर यहाँ सबके आगे- आगे आ रहा हैं।
सेठजी अब भी समझौता कर सकते थे; पर यों दबकर विद्रोहियों से दान माँगना उन्हें असह्य था।
इतने में क्या देखते हैं कि वह बढ़ता हुआ समूह बीच ही में रूक गया। युवक ने उन आदमियों से कुछ सलाह की और तब अकेला सेठजी की तरफ चला। सेठजी ने मन में कहा- शायद मुझसे प्राण-दान की शर्ते तय करने आ रहा हैं। सभी ने आपस में यही सलाह की हैं। जरा देखो, कितने निश्शंक भाव से चला आता हैं, जैसे कोई विजयी सेनापति हो। ये कांस्टेबल कैसे दुम दबाकर भाग खड़े हुए; लेकिन तुम्हें तो नहीं छोड़ता बचा, जो कुछ होगा, देखा जायगा। जब तक मेरे पास यह रिवाल्वर हैं, तुम मेरा क्या कर सकते हो! तुम्हारे सामने तो घुटना न टेकूँगा?
युवक समीप आ गया और कुछ बोलना ही चाहता था कि सेठजी ने रिवाल्वर निकालकर फायर कर दिया। युवक भूमि पर गिर पड़ा और हाथ-पाँव फैकने लगा।
उसके गिरते ही मजूरों में उत्तेजना फैल गयी। अभी तक उनमें हिंसा-भाव न था। वे केवल सेठजी को यह दिखा देना चाहते थे कि तुम हमारी मजूरी काट कर शान्त नहीं बैठ सकते; किन्तु हिंसा ने हिंसा को उद्दीप्त कर दिया। सेठजी ने देखा, प्राण संकट में हैं और समतल भूमि पर रिवाल्वर से भी देर तक प्राणरक्षा नहीं कर सकते; पर भागने का कहीं स्थान न था! जब कुछ न सूझा, तो वह रुई के गाँठ पर चढ़ गये और रिवाल्वर दिखा-दिखाकर नीचे वालों को ऊपर चढ़ने से रोकने लगे। नीचे पाँच-छह सौ आदमियों का घेरा था। ऊपर सेठजी अकेले रिवाल्वर लेकर खड़े थे। कहीं से कोई मदद नहीं आ रही हैं और प्रतिक्षण प्राणों की आशा क्षीण होती जा रही हैं। कांस्टेबलों ने भी अफसरों को यहाँ की परिस्थिति नहीं बतलायी; नहीं तो क्या अब तक कोई न आता? केवल पाँच गोलियों से कब तक जान बचेगी? एक क्षण में ये सब समाप्त हो जायँगी। भूल हुई, मुझे बन्दूक और कारतूस लेकर आना चाहिए था। फिर देखता इनकी बहादुरी। एक-एक को भूनकर रख देता; मगर क्या जानता था कि यहाँ इतनी भयंकर परिस्थिति आ खड़ी होगी?
नीचे के एक आदमी ने कहा- लगा दो गाँठों में आग। निकालो तो एक माचिस। रुई से धन कमाया, रुई की चिता पर जले।
तुरन्त एक आदमी ने जेब से दियासलाई निकाली औऱ आग लगाना ही चाहता था कि सहसा वही जख्मी युवक पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया। उसके पाँव में पट्टी बँधी हुई थी, फिर भी रक्त बह रहा था। उसका मुख पीला पड़ गया था और उसके तनाव से मालूम होता था कि युवक को असह्य वेदना हो रही हैं। उसे देखते ही लोगों ने चारों तरफ से आकर घेर लिया। उस हिंसा का उन्माद में भी अपने नेता को जीता-जागता देखकर उनके हर्ष की सीमा न रही। जयघोष से आकाश गूँज उठा- ‘गोपीनाथ की जय।’
जख्मी गोपीनाथ ने हाथ उठाकर समूह को शान्त हो जाने का संकेत करके कहा- भाईयों मैं तुमसे एक शब्द कहने आना हूँ । कह नही सकता, बचूँगा या नही। सम्भव हैं, तुमसे यह मेरा अन्तिम निवेदन हो। तुम क्या करने जा रहे हो? दरिद्र में नारायण का निवास हैं, क्या इसे मिथ्या करना चाहते हो? धनी को अपने धन का मद हो सकता हैं। तुम्हें किस बात का अभिमान हैं? मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, सब लोग यहाँ से हट जाओ। अगर तुम्हें मुझसे कुछ स्नेह हैं, अगर मैने तुम्हारी कुछ सेवा की हैं, तो अपने घर जाओ और सेठजी को घर जाने दो।
चारों तरफ से आपत्तिजनक आवाजें आने लगी; लेकिन गोपीनाथ का विरोध करने का साहस किसी में न हुआ। धीरे-धीरें लोग यहाँ से हट गये। मैदान साफ हो गया, तो गोपीनाथ ने विनम्र भाव से सेठजी से कहा- सरकार, अब आप चले जायँ। मैं जानता हूँ, आपने मुझे धोखे से मारा। मैं केवल यहीं कहने आपके पास आ रहा था, जो अब कह रहा हूँ । मेरा दुर्भाग्य था कि आपको भ्रम हुआ। ईश्वर की यहीं इच्छा थी।
सेठजी को गोपीनाथ पर कुछ श्रद्धा होने लगी हैं। नीचे उतरने में कुछ शंका अवश्य हैं; पर ऊपर भी तो प्राण बचने की कोई आशा नहीं हैं। वह इधर-उधर सशंक नेत्रों से ताकते हुए उतरते हैं। जन-समूह कुछ दस गज के अन्तर पर खड़ा हुआ हैं। प्रत्येक मनुष्य की आँखों में विद्रोह और हिंसा भरी हुई हैं। कुछ लोग दबी जबान से – पर सेठजी को सुनाकर- अशिष्ट आलोचनाएँ कर रहे हैं, पर किसी में इतना साहस नहीं हैं कि उनके सामने आ सके। उस मरते हुए युवक के आदेश में इतनी शक्ति हैं।
सेठजी मोटर पर बैठकर चले ही थे कि गोपी जमीन पर गिर पड़ा।
सेठजी की मोटर तेजी से जा रही थी, उतनी ही तेजी से उनकी आँखों के सामने आहत गोपी का छायाचित्र भी दौड़ रहा था। भाँति-भाँति की कल्पनाएँ मन में आने लगी।? अपराधी भावनाएँ चित्त को आन्दोलित करने लगीं। अगर गोपी उनका शत्रु था, तो उसने क्यों उनकी जान बचायी- ऐसी दशा में, जब वह स्वयं मृत्यु के पंजे में था? इसका उनके पास कोई जवाब न था। निरपराध गोपी, जैसे हाथ बाँधे उनके सामने खड़ा कह रहा था- आपने मुझे बेगुनाह क्यों मारा?
भोग-लिप्ता आदमी को स्वार्थान्ध बना देती हैं। फिर भी सेठजी की आत्मा अभी इतनी अभ्यस्त और कठोर न हुई थी कि एक निरपराध की हत्या करके उन्हें ग्लानि न होती। वह सौ-सौ युक्तियों से मन को समझाते थे; लेकिन न्याय बुद्धि किसी युक्ति को स्वीकार न करती थी। जैसे यह धारणा उनके न्याय-द्वार पर बैठी सत्याग्रह कर रही थी और वरदान लेकर ही टलेगी। वह घर पहुँचे तो इतने दुःखी और हताश थे, मानो हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हो।
प्रमीला ने घबरायी हुई आवाज में पूछा- हड़ताल का क्या हुआ? अभी हो रही हैं या बन्द हो गयी? मजूरों ने दंगा-फसाद तो नहीं किया? मैं तो बहुच डर रही थी।
खूबचन्द ने आराम-कुर्सी पर लेटकर एक लम्बीं साँस ली और बोले- कुछ न पूछो, किसी तरह जान बच गयी, बस यही समझ लो। पुलिस के आदमी तो भाग खड़े हुए, मुझे लोगों ने घेर लिया। बारे किसी तरह जान लेकर भागा। जब मैं चारों तरफ से घिर गया, तो क्या करता, मैने भी रिवालवर छोड़ दिया।
प्रमीला भयभीत होकर बोली- कोई जख्मी तो नहीं हुआ?
‘वही गोपीनाथ जख्मी हुआ; जो मजूरों की तरफ से मेरे पास आया करता था। उसका गिरना था कि एक हजार आदमियों ने मुझे घेर लिया। मैं दौड़कर रुई की
गाँठो पर चढ़ गया। जान बचने की कोई आशा न थी। मजूर गाँठो में आग लगाने जा रहे थे।ʼ
प्रमीला काँप उठी।
‘सहसा वहीं जख्मी आदमी उठकर मजूरों के सामने आया और उन्हें समझा कर मेरी प्राण-रक्षा की। वह न आता, तो मैं किसी तरह जीता न बचता।’
‘ईश्वर ने बड़ी कुशल की! इसीलिए मैं मना कर रही थी कि अकेले न जाओ। उस आदमी को लो अस्पताल ले गये होगें?ʼ
सेठजी ने शोक-भरे स्वर में कहा- मुझे भय हैं कि वह मर गया होगा। जब मैं मोटर पर बैठा, तो मैने देखा, वह गिर पड़ा और बहुत-से आदमी उसे घेरकर खड़े हो गये। न जाने उसकी क्या दशा हुई।
प्रमीला उन देवियों में थी जिनकी नसों में रक्त की जगह श्रद्धा बहती हैं। स्नान- पूजा, तप और व्रत यही उनके जीवन का आधार थे। सुख में दुःख में, आराम में, उपासना ही उसकी कवच थी। इस समय भी उस पर संकट आ पड़ा । ईश्वर के सिवा और कौन उसका उद्धार करेगा! वही खड़ी द्वार की ओर ताक रही थी और उसका धर्म-निष्ठ मन ईश्वर के चरणों में गिरकर क्षमा की भिक्षा माँग रहा था।
सेठजी बोले- यह मजूर उस जन्म का कोई महान पुरुष था। नहीं तो जिस आदमी ने उसे मारा, उसी की प्राण-रक्षा के लिए क्यों इतनी तपस्या करता!
प्रमीला श्रद्धा-भाव से बोली- भगवान् की प्ररेणा और क्या! भगवान की दया होती हैं, तभी हमारे मन में सदविचार आते हैं।
सेठजी ने जिज्ञासा की- तो बुरे विचार भी ईश्वर की प्ररेणा ही से आते होंगे? प्रमीला तत्परता के साथ बोली- ईश्वर आनन्द-स्वरूप हैं। दीपक से कभी अन्धकार नहीं निकल सकता।
सेठजी कोई जवाब सोच ही रहे थे कि बाहर शोर सुनकर चौक पड़े। दोनों ने सड़क की तरफ की खिड़की खोल कर देखा, तो हजारों आदमी काली झंडियाँ लिए दाहिनी तरफ से आते दिखाई दिये। झंडों के बाद एक अर्थी थी, सिर-ही-सिर दिखाई देते थे। यह गोपीनाथ के जनाजे का जुलूस था। सेठजी तो मोटर पर बैठकर मिल से घर की ओर चले, उधर, मजूरों ने दूसरी मिलों में इस हत्याकांड की सूचना भेज दी। दम-के -दम सारे शहर में यह खबर बिजली की तरह दौड़ गयी और कई मिलों मे हड़ताल हो गयी। नगर में सनसनी फैल गयी। किसी भीषण उपद्रव के भय से लोगों ने दूकाने बन्द कर दी। यह जुलूस नगर के मुख्य स्थानों का चक्कर लगाता आ सेठ खूबचन्द के द्वार पर आया हैं और गोपीनाथ के खून का बदला लेने पर तुला हुआ हैं। उधर पुलिस-अधिकारियों ने सेठजी की रक्षा करने का निश्चय कर लिया हैं, चाहे खून की नदी ही क्यों न बह जाय। जुलूस के पीछे सशस्त्र पुलिस के दो सौ जवान डबल मार्च से उपद्रवकारियों का दमन करने चले आ रहे हैं।
सेठजी अभी अपने कर्त्तव्य का निश्चय न कर पाये थे कि विद्रोहियों ने कोठी के दफ्तर में घुसकर लेन-देन के बहीखातों को जलाना और तिजोरियों को तोड़ना शुरू कर दिया। मुनीम और अन्य कर्मचारी तथा चौकीदार सब-के -सब अपनी- अपनी जान लेकर भागे। उसी वक्त बायीं ओर से पुलिस की दौड़ आ धमकी और पुलिस-कमिश्नर ने विद्रोहियों को पाँच मिनट के अन्दर यहाँ से भाग जाने का हुक्म दे दिया।
समूह ने एक स्वर से पुकारा- गोपीनाथ की जय!
एक घंटा पहले अगर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई होती, तो सेठजी ने बड़ी निश्चिन्तता से उपद्रवकारियों को पुलिस की गोलियों का निशाना बनने दिया होता, लेकिन गोपीनाथ के उस देवोपम सौजन्य और आत्म-समर्पण ने जैसे उनके मनःस्थित विकारों का शमन कर दिया था और अब साधारण औषधि भी उनपर रामबाण का-सा चमत्कार कर दिखाती थी।
उन्होंने प्रमीला से कहा- मैं जाकर सबके सामने अपना अपराध स्वीकार किये लेता हूँ । नहीं तो मेने पीछे न-जाने कितने घर मिट जायँगे।
प्रमीला ने काँपते हुए स्वर में कहा- यहीं खिड़की से आदमियों को क्यों नहीं समझा देते? वे जितना मजूरी बढाने को कहते हैं; बढ़ा दो।
‘इस समय तो उन्हें मेरे रक्त की प्यास हैं, मजूरी बढ़ाने का उन पर कोई असर न होगा। ’
सजल नेत्रों से देखकर प्रमीला बोली- तब तो तुम्हारे ऊपर हत्या का अभियोग चल जायगा।
सेठजी ने धीरता से कहा – भगवान की यही इच्छा हैं, तो हम क्या कर सकते हैं? एक आदमी का जीवन इतना मूल्यवान नहीं है कि उसके लिए असंख्य जानें ली जायँ।
प्रमीला को मालूम हुआ, साक्षात भगवान सामने खड़े हैं। वह पति के गले से लिपट कर बोली- मुझे क्या कह जाते हो?
सेठदी ने उसे गले लगाते हुए कहा- भगवान तुम्हारी रक्षा करेंगे। उनके मुख से और कोई शब्द न निकला। प्रमीला की हिचकियाँ बँधी हुई थी। उसे रोता छोड़कर सेठजी नीचे उतरे।
वह सारी सम्पत्ति जिसके लिए उन्होंने जो कुछ करना चाहिए, वह भी किया, जो कुछ न करना चाहिए, वह भी किया, जिसके लिए खुशामद की, छल किया अन्याय किये, जिसे वह अपने जीवन-तप का वरदान समझते थे, आज कदाचित् सदा के लिए उनके हाथ से निकली जाती थी; पर उन्हें जरा भी मोह न था, जरा भी खेद न था। वह जानते थे, उन्हें डामुल की सजा होगी; वह सारा कारोबर चौपट हो जायगा, यह सम्पत्ति धूल में मिल जायगी, कौन जाने प्रमीला से फिर भेंट होगी या नहीं, कौन मरेगा, कौन जियेगा, कौन जानता हैं, मानो वह स्वेच्छा से यमदूतों का आवाह्न कर रहे हो। और वह वेदनामय विवशता, जो हमे मृत्यु के समय दबा लेती हैं, उन्हें दबाये हुए थी।
प्रमीला उनके साथ-ही-साथ नीचे तक आयी। वह उनके साथ उस समय तक रहना चाहती थी, जब तक जनता उसे पृथक न कर दे; लेकिन सेठजी उसे छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गये और वह खड़ी रोती रह गयी।
बलि पाते ही विद्रोह का पिशाच शान्त हो गया। सेठजी एक सप्ताह हवालात में रहें। फिर उनपर अभियोग चलने लगा। बम्बई के सबसे नामी बैरिस्टर गोपी की तरफ से पैरवी कर रहे थे। मजूरों ने चन्दे से अपार घन एकत्र किया था और यहाँ तक तुले हुए थे कि अगर अदालत से सेठजी बरी भी हो जायँ, तो उनकी हत्या कर दी जाय। नित्य इजलास में कई हजार कुली जमा रहते। अभियोग सिद्ध ही था। मुलजिम ने अपना अपराध स्वीकार कर किया था। उनके वकीलों ने उनके अपराध को हलका करने की दलीलें पेश की। फैसला यह हुआ कि चौदह साल का कालापानी हो गया।
सेठजी के जाते ही मानो लक्ष्मी रूठ गयीं; जैसे उस विशालकाय वैभव की आत्मा निकल गयी हो। साल-भर के अन्दर उस वैभव का कंकालमात्र रह गया। मिल तो पहले ही बन्द हो चुकी थी। लेना-देना चुकाने पर कुछ न बचा। यहाँ तक कि रहने का घर भी हाथ से निकल गया। प्रमीला के पास लाखों के आभूषण थे। वह चाहती, तो उन्हें सुरक्षित रख सकती थी; पर त्याग की धुन में उन्हें भी निकाल फेंका। सातवें महीने में जब उनके पुत्र का जन्म हुआ, तो वह छोटे-से किराये के घर में थी। पुत्र-रत्न पाकर अपनी सारी विपत्ति भूल गयी। कुछ दुःख था तो यहीं कि पतिदेव होते, तो इस समय कितने आनन्दित होते।
प्रमीला ने किन कष्टों से झेलते हुए पुत्र का पालन किया; इसकी कथा लम्बी हैं। सब कुछ सहा, पर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। कई सज्जन तो उसे कुछ मासिक सहायता देने पर तैयार थे; लेकिन प्रमीला ने किसी का एहसान न लिया। भले घरों की महिलाओं से उसका परिचय था ही। वह घरों में स्वदेशी वस्तुओ का प्रचार करके गुजर-भर को कमा लेती थी। जब तक बच्चा दूध पीता था, उसे अपने काम में बड़ी कठिनाई पड़ी; लेकिन दूध छुड़ा देने के बाद वह बच्चे को दाई को सौपकर आप काम करनें चली जाती थी। दिन-भर के कठिन परिश्रम के बाद जब वह सन्ध्या समय घर आकर बालक को गोद में उठा लेती, तो उसका मन हर्ष से उन्मत्त होकर पति के पास उड़ जाता जो न-जाने किस दशा में काले कोसो पर पड़ा था। उसे अपनी सम्पत्ति के लुट जाने का लेशमात्र भी दुःख नहीं हैं। उसे केवल इतनी ही लालसा हैं कि स्वामी कुशल से लौट लावें और बालक को देखकर अपनी आँखे शीतल करें। फिर तो वह इस दरिद्रता में भी सुखी और सन्तुष्ट रहेगी। वह नित्य ईश्वर के चरणों में सिर झुकाकर स्वामी के लिए प्रार्थना करती हैं। उसे विश्वास है, ईश्वर जो कुछ करेगे; उससे उनका कल्याण ही होगा। ईश्वर-वन्दना में वह अलौकिक धैर्य, साहस और जीवन का आभास पाती हैं। प्रार्थना ही अब उसकी आशाओं का आधार हैं।
पन्द्रह साल की विपत्ति के दिन आशा की छाँह में कट गये।
सन्ध्या का समय हैं। किशोर कृष्णचन्द्र अपनी माता के पास मन-मारे बैठा हुआ हैं। वह माँ-बाप दोनों मे से एक पर भी नही पड़ा।
प्रमीला ने पूछा- क्यों बेटा, तुम्हारी परीक्षा तो समाप्त हो गयी?
बालक ने गिरे हुए मन से जवाब दिया- हाँ, अम्माँ, हो गयी; लेकिन मेरे परचे अच्छे नहीं हुए। मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता हैं।
यह कहते-कहते उसकी आँखें डबडबा आयी। प्रमीला ने स्नेह-भरे स्वर में कहा- यह तो अच्छी बात नहीं हैं बेटा, तुम्हें पढ़ने में मन लगाना चाहिए।
बालक ने सजल नेत्रों से माता को देखता हुआ बोला- मुझे बार-बार पिताजी की याद आती हैं। वह तो अब बहुत बूढ़े हो गये होंगे। मैं सोचता हूँ कि वह आयेंगे, तो तन-मन से उनकी सेवा करूँगा। इतना बड़ा उत्सर्ग किसने किया होगा अम्माँ? उस पर लोग उन्हें निर्दयी कहती हैं। मैने गोपीनाथ के बाल-बच्चों का पता लगा लिया अम्माँ। उसकी घरवाली हैं, माता हैं और एक लड़की हैं, जो मुझसे दो साल बड़ी हैं। माँ-बेटी दोनो उसी मिल में काम करती हैं। दादी बहुत बूढ़ी हो गयी हैं।
प्रमीला ने विस्मित होकर कहा- तुझे उनका पता कैसे चला बेटा?
कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित होकर बोला- मैं आज उस मिल में चला गया था। मैं उस स्थान को देखना चाहता था, जहाँ मजूरों ने पिताजी को घेरा था और वह स्थान भी, जहाँ गोपीनाथ गोली खाकर गिरा था; पर उन दोनों में एक भी स्थान भी न रहा। वहाँ इमारतें बन गयी हैं। मिल का काम बड़े जोर से चल रहा हैं। मुझे देखते ही बहुत से आदमियों ने मुझे घेर लिया। सब यही कहते खे कि तुम तो भैया गोपीनाथ का रूप धर कर आये हो। मजूरों ने वहाँ गोपीनाथ की एक तस्वीर लटका रखी हैं। उसे देखकर चकित हो गया अम्माँ, जैसे मेरी ही तस्वीर हो, केवल मूँछों का अन्तर हैं। जब मैने गोपी की स्त्री के बारे में पूछा, तो एक आदमी दौड़कर उसकी स्त्री को बुला लाया। वह मुझे देखते ही रोने लगी। और न-जाने क्यों मुझे भी रोना आ गया। बेचारी स्त्रियाँ बड़े कष्ट में हैं। मुझे तो उनक ऊपर ऐसी दया आती हैं कि उनकी कुछ मदद करूँ।
प्रमीला को शंका हुई, लड़का इन झगड़ों में पढ़कर पढ़ना न छोड़ बैठे। बोली- अभी तुम उनकी क्या मदद कर सकते हो बेटा? धन होता तो कहती, दस-पाँच रुपये महीना दे दिया करो, लेकिन घर का हाल तो तुम जानते ही हो। अभी मन लगाकर पढ़ो। जब तुम्हारे पिताजी आ जायँ, तो जो इच्छा हो वह करना। कृष्णचन्द्र ने उस समय कोई जवाब न दिया; लेकिन आज से उसका नियम हो गया कि स्कूल से लौटकर एक बार गोपी के परिवार को देखने अवश्य जाता। प्रमीला उसे जेब-खर्च के लिए जो पैसे देती, उसे उन अनाथों ही पर खर्च करता। कभी कुछ फल ले लिए, कभी शाक-भाजी ले ली।
एक दिन कृष्णचन्द्र को घर आने में देर हुई, तो प्रमीला बहुत घबरायी। पता लगाती हुई विधवा के घर पर पहुँची, तो देखा- एक तंग गली में, एक सीले, सडे हुए मकान में गोपी की स्त्री एक खाट पर पड़ी हैं और कृष्णचन्द्र खड़ा उसे पंखा झल रहा हैं। माता को देखते ही बोला- मैं अभी घर न जाऊँगा अम्माँ, देखो, काकी कितनी बीमार हैं। दादी को कुछ सूझता नहीं, बिन्नी खाना पका रही हैं। इनके पास कौन बैठे?
प्रमीला ने खिन्न होकर कहा- अब तो अँधेरा हो गया, तुम यहाँ कब तक बैठे रहोगे? अकेला घर मुझे भी तो अच्छा नहीं लगता। इस वक्त चलो, सबेरे फिर आ जाना।
रोगिणी ने प्रमीला की आवाज सुनकर आँखे खोल दी और मन्द स्वर में बोली- आओ माताजी, बैठो। मैं तो भैया से कह रही थी, देर हो रही हैं, अब घर जाओ; पर यह गये ही नहीं। मुझ अभागिनी पर इन्हें न जाने क्यों इतनी दया आती हैं। अपना लड़का भी इससे अधिक मेरी सेवा न कर सकता।
चारों तरफ से दुर्गन्ध आ रही थी। उमस ऐसी थी कि दम घुटा जाता था। उस बिल में हवा किधर से आता? पर कृष्णचन्द्र ऐसा प्रसन्न था, मानो कोई परदेशी चारों ओर से ठोकरें खाकर अपने घर में आ गया हो।
प्रमीला ने इधर-उधर निगाह दौड़ायी तो एक दीवार पर उसे एक तस्वीर दिखायी दी। उसने समीप जाकर उसे देखा तो उसकी छाती धक् से हो गयी। बेटे की ओर देखकर बोली- तून यह चित्र कब खिंचवाया बेटा?
कृष्णचन्द्र मुस्कराकर बोला- यह मेरा चित्र नहीं हैं अम्माँ गोपीनाथ का चित्र हैं।
प्रमीला ने अविश्वास से कहा- चल, झूठा कहीं का।
रोगिणी के कातर भाव से कहा- नहीं अम्माँ, वह मेरे आदमी ही चित्र हैं। भगवान की लीला कोई नहीं जानता; पर भैया की सूरत इतनी मिलती हैं कि मुझे अचरज होता हैं। जब मेरा ब्याह हुआ था, तब उनकी यही उम्र थी, और सूरत भी बिल्कुल यही। यही हँसी थी, यही बातचीत और यही स्वभाव। क्या रहस्य हैं, मेरी समझ में नहीं आता? माताजी, जबसे यह आने लगे हैं, कह नहीं सकती, मेरा जीवन कितना सुखी हो गया। इस मुहल्ले में सब हमारे ही जैसे मजूर रहते हैं। उन सभो के साथ यह लड़कों की तरह रहते हैं। सब इन्हें देखकर निहाल हो जाते हैं।
प्रमीला ने कोई जवाब न दिया। उनके मन पर एक अव्यक्त शंका छायी थी, मानो उसने कोई बुरा सपना देखा हो। उसके मन में बार-बार एक प्रश्न उठ रहा था, जिसकी कल्पना ही से उसके रोयें खड़े हो जाते थे।
सहसा उसने कृष्णचन्द्र का हाथ पकड़ लिया और बलपूर्वक खींचती हुई द्वार की ओर चली, मानो कोई उसे उसके हाथों से छीने लिये जाता हो।
रोगिणी ने केवल इतना कहा- माताजी, कभी-कभी भैया को मेरे पास आने दिया करना, नहीं तो मै मर जाऊँगी ।
पन्द्रह साल के बाद भूतपूर्व सेठ खूबचन्द अपने नगर के स्टेशन पर पहुँचे। हरा- भरा वृक्ष ठूँठ होकर रह गया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थी, सिर के बाल सन, दाढी जंगल की तरह बढ़ी हुई, दाँतो का कहीं नाम नहीं, कमर झुकी हुई। ठूँठ को देखकर कौन पहचान सकता हैं कि यह वही वृक्ष हैं, जो फल-फूल और पत्तियों से लदा रहता था, जिस पर पक्षी कवरल करते रहते थे।
स्टेशन के बाहर निकलकर वह सोचने लगे- कहाँ जायँ? अपना नाम लेके लज्जा आती थी। किससे पूछे, प्रमीला जीती हैं या मर गयी? अगर हैं तो कहाँ हैं? उन्हें देख वह प्रसन्न होगी, या उनकी उपेक्षा करेंगी?
प्रमीला का पता लगाने में ज्यादा देर न लगी। खूबचन्द की कोठी अभी तक खूबचन्द की कोठी कहलाती थी। दुनिया कानून क उलटफेर क्या जाने? अपना कोठी के सामने पहुँचकर उन्होंने एक तम्बोली से पूछा- क्यों भैया, यहीं तो सेठ खूबचन्द की कोठी हैं।
तम्बोली ने उनकी ओर कुतूहल से देखकर कहा- खूबचन्द की जब थी, तब थी, अब तो लाला देशराज की हैं।
‘अच्छा! मुझे यहाँ आये बहुत दिन हो गये। सेठजी के यहाँ नौकर था, सुना, सेठजी को कालापानी को गया था।’
‘हाँ, बेचारे भलमानसी में मारे गये। चाहते तो बेदाग बच जाते । सारा घर मिट्टी में मिल गया।ʼ
‘सेठानी तो होंगी?ʼ
‘हाँ, सेठानी क्यों नहीं हैं। उनका लड़का भी हैं।ʼ
सेठजी के चेहरे पर जैसे जवानी की झलक आ गयी। जीवन का वह आनन्द और उत्साह, जो आज पन्द्रह साल से कुम्भकरण की भाँति पड़ा सो रहा था, मानो नयी स्फूर्ति पाकर उठ बैठा और अब उस दुर्बल र् काया में समा नहीं रहा हैं।
उन्होंने इस तरह तम्बोली का हाथ पकड़ लिया, जैसे घनिष्ठ परिचय हो और बोले- अच्छा उनके लड़का भी हैं! कहाँ रहती हैं भाई बता दो तो जाकर सलाम कर आऊँ। बहुत दिनों तक उनका नमक खाया हैं।
तम्बोली ने प्रमीला के घर का पता बता दिया। प्रमीला इसी मुहल्ले में रहती थी। सेठजी जैसे आकाश में उड़ते हुए यहाँ से आगे चले।
वह थोडी दूर गये थे कि ठाकुरजी का एक मन्दिर दिखायी दिया। सेठजीन ने मन्दिर में जाकर प्रतिमा के चरणों पर सिर झुका दिया। उनके रोम-रोम से आस्था का स्रोच बह रहा था। इस पन्द्रह वर्ष के कठिन प्रायश्चित ने उनकी सन्तप्त आत्मा को अगर कहीं आश्रय मिला था, तो वह अशरण-शरण भगवान के चरण थे। उन पावन चरणों के ध्यान में ही उन्हें शान्ति मिलती थी। दिन भर ऊख के कोल्हू में जूते रहने या फावड़े चलाने के बाद जब वह रात को पृथ्वी की गोद में लेटते, तो पूर्व स्मृतियाँ अपना अभिनय करने लगती। वह विलासमय जीवन, जैसे रुदन करता हुआ उनकी आँखों के सामने आ जाता और उनके अन्तःकरण से वेदना में डूबी हुई ध्वनि निकलती- ईश्वर! मुझ पर दया करो। इस दया याचना में उन्हें एक ऐसी अलौकिक शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती थी, मानो बालक माता की गोद में लेटा हो।
जब उनके पास सम्पति थी, विलास के साधन थे, यौवन था, स्वास्थ्य था, अधिकार था, उन्हें आत्म-चिन्तन का अवकाश न मिलता था। मन प्रवृत्ति ही की ओर दौड़ता था, अब इन तियों को खोकर दीनावस्था में उनका मन ईश्वर की ओर झुका। पानी पर जब तक कोई आवरण हैं, उसमें सूर्य का प्रकाश कहाँ?
वह मन्दिर से निकलते ही थे कि एक स्त्री ने उसमें प्रवेश किया। खूबचन्द का हृदय उछल पड़ा। वह कुछ कर्त्तव्य-भ्रम से होकर एक स्तम्भ की आड़ में हो गये। यह प्रमीला था।
इन पन्द्रह वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जब उन्हें प्रमीला का याद न आयी हो। वह छाया उनकी आँखों में बसी हुई थी। आज उन्हें उस छाया और इस सत्य में कितना अन्तर दिखायी दिया। छाया पर समय का क्या असर हो सकता हैं। उस पर सुख-दुःख का बस नहीं चलता। सत्य तो इतना अभेद्य नहीं। उस छाया में वह सदैव प्रमोद का रूप देखा करते थे- आभूषण, मुसकान और लज्जा से रंजित। इस सत्य में उन्होंने साधक का तेजस्वी रूप देखा और अनुराग में डूबे हुए स्वर की भाँति उनका हृदय थरथरा उठा। मन में ऐसा उद्गार उठा कि इसके चरणों पर गिर पडूँ और कहूँ – देवी! इस पतित का उद्धार करो, किन्तु तुरन्त विचार आया- कही यह देवी मेरी उपेक्षा न करे। इस दशा में उसके सामने जाते उसे लज्जा आयी।
कुछ दूर चलने के बाद प्रमीला एक गली में मुड़ी। सेठजी भी उसके पीछे-पीछे चले जाते थे। आगे एक कई मंजिल की हवेली थी। सेठजी ने प्रमीला को उस चाल में घुसते देखा; पर यह न देख सके कि वह किधर गयी। द्वार पर खड़े-खड़े सोचने लगे – किससे पूछूँ?
सहसा एक किशोर की भीतर से निकलते देखकर उन्होंने उसे पुकारा। युवक ने उनकी ओर चुभती हुई आँखों से देखा और तुरन्त उनके चरणों पर गिर पड़ा। सेठजी का कलेजा धक-से हो गया। यह तो गोपी था, केवल उम्र में उससे कम। वही रूप था, वही डील था, मानो वह कोई जन्म लेकर आ गया हो। उनका सारा शरीर एक विचित्र भय से सिहर उठा।
कृष्णचन्द्र ने एक क्षण में उठकर कहा- हम तो आज आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बन्दर पर जाने के लिए एक गाड़ी लेने जा रहा था। आपको तो यहाँ आने में बड़ा कष्ट हुआ होगा। आइए अन्दर आइए। मैं आपको देखते ही पहचान गया। कहीं भी देखकर पहचान जाता।
खूबचन्द उसके साथ भीतर चले तो, मगर उनका मन जैसे अतीत के काँटो में उलझ रहा था। गोपी की सूरत क्या वह कभी भूल सकते थे? इस चहेरे को उन्होंने कितनी ही बार स्वप्न में देखा था। वह कांड उनके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी और आज एक युग बीत जाने पर भी उनके पथ में उसी भाँति अटल खड़ा था।
एकाएक कृष्णचन्द्र जीने के पास रुककर बोला- जाकर अम्माँ से कह आऊँ, दादा आ गये! आपके लिए नये-नये कपड़े बने रखे हैं।
खूबचन्द ने पुत्र के मुख का इस तरह चुम्बन किया, जैसे वह शिशु हो और उसे गोद में उठा लिया। वह उसे लिये जीने पर चढ़े चले जाते थे। यह मनोल्लस की शक्ति थी।
तीस साल से व्याकुल पुत्र-लालसा, यह पदार्थ पाकर, जैसे उस पर न्योछावर हो जाना चाहती हैं। जीवन नयी-नयी अभिलाषाओं को उन्हें सम्मोहित कर रहा हैं। इस रत्न के लिए वह ऐसी-ऐसी कितने ही यातनाएँ सहर्ष झेल सकते थे। अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ अनुभव के रूप में कमाया था, उसका तत्व वह अब कृष्णचन्द्र के मस्तिष्क में भर देना चाहते हैं। उन्हें यह अरमान नहीं हैं कि कृष्णचन्द्र धन का स्वामी हो, चतुर हो, यशस्वी हो; बल्कि दयावान् हो, सेवाशील हो, नम्र हो, श्रद्धालु हो। ईश्वर की दया में अब उन्हें असीम विश्वास हैं, नहीं तो उन-जैसा अधम क्यक्ति क्या इस योग्य था कि इस कृपा का पात्र बनता? और प्रमीला तो साक्षात् लक्ष्मी है।
कृष्णचन्द्र भी पिता को पाकर निहाल हो गया हैं। अपनी सेवाओं से मानो उनके अतीत को भुला देना चाहता हैं। मानो पिता की सेवा ही के लिए उसका जन्म हुआ। मानो वह पूर्वजन्म का कोई ऋण चुकाने के लिए संसार में आया हैं।
आज सेठजी को आये सातवाँ दिन हैं। सन्ध्या का समय हैं। सेठजी सन्ध्या करने जा रहे हैं कि गोपीनाथ की लड़की बिन्नी ने आकर प्रमीला से कहा- माताजी, अम्माँ का जी अच्छा नहीं हैं! भैया को बुला रही हैं।
प्रमीला ने कहा- आज तो वह न सकेगा । उसके पिता आ गये हैं, उनसे बातें कह रहा हैं।
कृष्णचन्द्र ने दूसरे कमरे में से उनकी बाते सुन लीं। तुरन्त आकर बोला- नहीं अम्माँ, मैं दादा से पूछकर जरा देर के लिए चला जाऊँगा।
प्रमीला ने बिगड़कर कहा- तू कहीं जाता हैं तो तुझे घर की सुधि ही नहीं रहती। न जाने उन सभों ने तुझे क्या बूटी सुँघा दी हैं।
‘मैं बहुत जल्द चला आऊँगा । अम्माँ, तुम्हारे पैरो पड़ता हूँ ।’
‘तू कैसा लड़का हैं! बेचारे अकेले बैठे हुए हैं और तुझे वहाँ जाने की पड़ी हुई हैं।’
सेठजी ने भी ये बाते सुनी। आकर बोले- क्या हरज हैं, जल्दी आने को कह रहे हैं तो जाने दो।
कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित बिन्नी के साथ चला गया। एक क्षण के बाद प्रमीला ने कहा- जबसे मैं गोपी की तस्वीर देखी हैं, मुझे नित्य शंका बनी रहती हैं, कि न- जाने भगवान क्या करने वाले हैं। बस यहीं मालूम होता हैं।
सेठजी ने गम्भीर स्वर में कहा- मैं तो पहली बार देखकर चकित रह गया था। जान पड़ा, गोपीनाथ ही खड़ा हैं।
‘गोपी की घरवाली कहती हैं कि इसका स्वभाव भी गोपी ही का-सा हैं।’
सेठजी गूढ़ मुस्कान के साथ बोले- भगवान् की लीला है कि जिसकी मैने हत्या की, वह मेरा पुत्र हो। मुझे तो विश्वास हैं, गोपीनाथ ने ही इसमें अवतार लिया हैं।
प्रमीला ने माथे पर हाथ रखकर कहा- यही सोचकर तो कभी-कभी मुझे न-जाने कैसी-कैसी शंका होने लगती हैं।
सेठजी ने श्रद्धा-भरी आँखो से देखकर कहा- भगवान् हमारे परम सुहृद हैं। वह जो कुछ करते हैं, प्राणियों के कल्याण के लिए करते हैं। हम समझते हैं, हमारे साथ विधि ने अन्याय किया; पर यह हमारी मूर्खता हैं। विधि अबोध बालक नहीं हैं, जो अपने ही सिरजे हुए खिलौने को तोड़-फोड़ कर आनन्दित होता हैं। न वह हमारा शत्रु हैं, जो हमारा अहित करने में सुख मानता हैं। वह परम दयालु हैं, मंगल रूप हैं। यहीं अवलम्ब हैं, जिसने निर्वासन-काल में मुझे सर्वनाश से बचाया। इस आधार के बिना कह नहीं सकता, मेरी नौका कहाँ-कहाँ भटकती और उसका क्या अन्त होता?
बिन्नी ने कई कदम चलने के बाद कहा- मैने तुमसे झूठ-मूठ कहा कि अम्माँ बीमार हैं। अम्माँ तो अब बिल्कुल अच्छी हैं। तुम कई दिनों से गये नहीं, इसीलिए उन्होने मुझसे कहा- इस बहाने से बुला लाना। तुमसे वह एक सलाह करेंगी।
कृष्णचन्द्र ने कुतूहल -भरी आँखों से देखा।
‘तुमसे सलाह करेगी? मैं भला क्या सलाह दूँगा? मेरे दादा आ गये; इसीलिए नहीं आ सका।’
‘तुम्हारे दादा आ गये! उन्होंने पूछा होगा, यह कौन लड़की हैं?’
‘नहीं, कुछ नही पूछा।’
‘दिल में कहते होगे, कैसी बेशरम लड़की हैं।’
‘दादा ऐसे आदनी नहीं है। मालूम हो जाता कि यह कौन हैं, तो बड़े प्रेम से बाते करते। मैं तो कभी-कभी डरा करता था कि न जाने उनका मिजाज कैसा हो? सुनता था, कैदी बड़े कठोर हृदय हुआ करते हैं, लेकिन दादा तो दया के देवता हैं।’
दोनो कुछ देर फिर चुपचाप चले गया। तब कृष्णचन्द्र ने पूछा- तुम्हारी अम्माँ मुझसे कैसी सलाह करेंगी?
बिन्नी का ध्यान जैसे टूट गया।
‘मैं क्या जानू, कैसी सलाह करेगी? मैं जानती कि तुम्हारे दादा आये हैं, तो न आती। मन में कहते होगे, इतनी बड़ी लड़की अकेली मारी-मारी फिरती हैं।’
कृष्णचन्द्र कहकहा मारकर बोला- हाँ, कहते तो होंगे। मैं जाकर और जड़ दूँगा।
बिन्नी बिगड़ गयी।
‘तुम क्या जड़ दोंगे? बताओ, मैं कहाँ घूमती हूँ ? तुम्हारे घर के सिवा मैं और कहाँ जाती हूँ?’
‘मेरे जी में जो आयेगा, सो कहूँगा; नहीं तो मुझे बता दे, कैसी सलाह हैं?’
तो मैने कब कहा था कि नहीं बताऊँगी । कल हमारे मिल में फिर हड़ताल होने ‘ वाली हैं। हमारा मनीजर इतना निर्दयी हैं कि किसी को पाँच मिनिट की भी दे हो जाय तो, आधे दिन की तलब काट काट लेता हैं और दस मिनिट देर हो जाय, तो दिन-भर की मजूरी गायब। कई बार सभी ने जाकर उससे कहा-सुना मगर ; मानता ही नहीं। तुम हो तो जरा-से; पर अम्माँ का न-जाने तुम्हारे ऊपर क्यो इतना विश्वास हैं औऱ मजूर लोग भी तुम्हारे ऊपर बड़ा भरोसा रखते हैं। सबकी सलाह हैं कि तुम एक बार मजीजर के पास जाकर दो टूक बाते कर लो। हाँ या नहीं; अगर वह अपनी बात पर अड़ा रहे, तो फिर हम हड़ताल करेंगे।‘
कृष्णचन्द्र विचारों में मग्न था। कुछ न बोला। बिन्नी ने फिर उद्दंड भाव से कहा- यह कड़ाई इसीलिए तो हैं कि मनीजर जानता हैं, हम बेबस हैं औऱ हमारे लिए और कहीं ठिकाना नहीं हैं। तो हमें भी दिखा देना हैं कि हम चाहे भूखों मर मरेंगे मगर अन्याय न सहेंगे।
कृष्णचन्द्र ने कहा- उपद्रव हो गया, तो गोलियाँ चलेंगी।
‘तो चलने दो। हमारे दादा मर गये, तो क्या हम लोग जिये नहीं।’
दोनों घर पहुँचे तो वहाँ द्वार पर बहुत से मजदूर जमा थे और इसी विषय पर बाते हो रही थी।
कृष्णचन्द्र को देखते ही सभों ने चिल्लाकर कहा- लो भैया आ गये।
वही मिल हैं, जहाँ सेठ खूबचन्द ने गोलियाँ चलायी थी। आज उन्हीं का पुत्र मजदूरों का नेता बना हुआ गोलियों का सामने खड़ा हैं।
कृष्णचन्द्र और मैनेजर में बाते हो चुकीं। मैनेजर ने नियमों को नर्म करना स्वीकार न किया। हड़ताल की घोषणा कर दी गयी। आज हड़ताल हैं। मजदूर मिल के हाते के जमा हैं और मैनेजर ने मिल की रक्षा के लिए फौजी गारद बुला लिया हैं। मिल के मजदूर उपद्रव नहीं करना चाहते थे। हड़ताल केवल उनके असंतोष का प्रदर्शन थी; लेकिन फौजी गारद देखकर मजदूरों को भी जोश आ गया। दोनो तरह से तैयारी हो गयी हैं। एक ओर गोलियाँ हैं, सरी ओर ईट-पत्थर के टुकड़े।
युवक कृष्णचन्द्र ने कहा- आप लोग तैयार हैं? हमे मिल के अन्दर जाना हैं, चाहे सब मार डाले जायँ।
बहुत-सी आवाजें आयी- सब तैयार हैं।
जिसके बाल-बच्चे हैं, वह अपने घर में चले जायँ।
बिन्नी पीछे खड़ी-खड़ी बोली- बाल-बच्चे. सबकी रक्षा भगवान् करता हैं।
कई मजूदर घर लौटने का विचार कर रहे हैं। इस वाक्य ने उन्हें स्थिर कर दिया। जय-जयकार हुई और एक हजार मजदूरों को दल मिल द्वार की ओर चला। फौजी गारद ने गोलियाँ चलायी। सबसे पहले कृष्णचन्द्र फिर और कई आदमी गिर पड़े। लोगो के पाँव उखड़ने लगे।
उसी वक़्त नंगे सिर, नंगे पाँव हाते में पहुँचे और कृष्णचन्द्र को गिरते देखा- परिस्थिति उन्हें घर ही पर मालूम हो गयी थी। उन्होंने उन्मत्त होकर कहा- कृष्णचन्द्र की जय! और दौड़कर आहत युवक को कंठ से लगा लिया। मजूदरों में एक अदभूत साहस और धैर्य का संचार हुआ।
‘खबूचन्द।‘- इस नाम ने जादू काम किया। इस 15 साल में ‘खूबचन्द‘ ने शहीद का ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था। उन्हीं का पुत्र आज मजदूरों का नेता हैं। धन्य हैं भगवान की लीला! सेठजी ने पुत्र की लाश को जमीन पर लिटा दिया औऱ अविचलित भाव से बोले- भाईयों यह लड़का मेरा पुत्र था। मैं पन्द्रह साल डामुल काट कर लौटा, तो भगवान की कृपा से मुझे इसके दर्शन हुए। आज आठवाँ दिन हैं। आज फिर भगवान ने उसे अपनी शरण में ले लिया। वह भी उन्हीं की कृपा थी। यह भी उन्हीं की कृपा हैं। मैं जो मूर्ख, अज्ञानी तब था वही अब भी हूँ। हाँ, इस बात का मुझे गर्व हैं कि भगवान ने मुझे ऐसा वीर बालक दिया। अब आप लोग मुझे बधाईयाँ दें। किसे ऐसी वीर-गति मिलती हैं। अन्याय के सामने जो छाती खोलकर खड़ा हो जाय, वही सच्चा वीर हैं, इसीलिए बोलिए- कृष्णचन्द्र की जय!
एक हजार गलों से जय-ध्वनि निकली और उसी के साथ सब-के- सब हल्ला मारकर दफ्तर में घुस गये। गारद के जवानों ने एक बन्दूक भी न चलाई, इस विलक्षण कांड ने इन्हें स्तम्भित कर दिया था।
मैनेजर ने पिस्तौल उठा लिया और खड़ा हो गया। देखा, तो सामने सेठ खूबचन्द!
लज्जित होकर बोला- मुझे बड़ा दुःख हैं कि आज दैवगति से ऐसी दुर्घटना हो गयी, पर आप खुद समझ सकते हैं, क्या कर सकता था।
सेठजी ने शान्त स्वर से कहा- ईश्वर जो कुछ करता हैं, हमारे कल्याण के लिए करता हैं। अगर इस बलिदान से मजदूरों का कुछ हित हो, तो मुझे जरा भी खेद न होगा।
मैनेजर सम्मान भरे स्वर में बोला- लेकिन इस धारणा से तो आदमी को सन्तोष नहीं होता। ज्ञानियों का मन चंचल हो ही जाता हैं।
सेठजी ने इस प्रसंग का अन्त कर देने के इरादे से कहा- तो अब आप क्या निश्चय कर रहे हैं।
मैनेजर सकुचाता हुआ बोला- मैं इस विषय में स्वतंत्र नहीं हूँ। स्वामियों की आज्ञा थी, उसका पालन कर रहा था।
सेठजी कठोर स्वर में बोले- अगर आप समझते हैं कि मजदूरों के साथ अन्याय हो रहा हैं, तो आपका धर्म हैं कि उनका पक्ष लीजिए। अन्याय में सहयोग करना अन्याय करने के समान हैं।
एक तरफ तो मजदूर कृष्णचन्द्र के दाह-संस्कार का आयोजन कर रहे थे, दूसरी तरफ में मिल के डाइरेक्टर और मैनेजर सेठ खूबचन्द के साथ बैठे कोई ऐसी व्यवस्था सोच रहे थे कि मजदूरों के प्रति अन्याय का अन्त हो जाय।
दस बजे सेठजी ने बाहर निकलकर मजदूरों को सूचना दी- मित्रों ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हारी विनय स्वीकार कर ली। तुम्हारी हाजिरी के लिए अब नये नियम बनाये जायँगे और जुरमाने की वर्तमान प्रथा उठा ली जायगी।
मजदूरों ने सुना; पर उन्हें वह आनन्द न हुआ, जो एक घंटा पहले होता । कृष्णचन्द्र की बलि देकर बड़ी-से-बड़ी रिसायत भी उनके निगाहों में हेय थी। अभी अर्थी न उठने पायी थी कि प्रमीला लाल आँखें किये उन्मत्त-सी दौड़ी आयी और देह से चिमट गयी, जिसे उसने अपने उदर से जन्म दिया और अपने रक्त से पाला था। चारों ओर हाहाकार मच गया। मजदूर और मालिक ऐसा कोई नहीं था, जिसकी आँखों से आँसुओं की धारा न निकल रही हो।
सेछजी ने समीप जाकर प्रमीला के कन्धे पर हाथ रखा और बोले- क्या करती हो प्रमीला, जिसकी मृत्यु पर हँसना और ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, उसकी मृत्यु पर रोती हो।
प्रमीला उसी शव को हृदय से लगाये पड़ी रही। जिस निधि को पाकर उसने विपत्ति को सम्पत्ति समझा था, पति-वियोग से अन्धकारमय जीवन में जिस दीपक से आशा, धैर्य और अवलम्ब पा रही थी, वह दीपक बुझ गया था। जिस विभूति को पाकर ईश्वर की निष्ठा और भक्ति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गयी थी वह विभूति उससे छीन ली गयी थी।
सहसा उसने पति को अस्थिर नेत्रों से देखकर कहा- तुम समझते होगे, ईश्वर जो कुछ करता हैं, हमारे कल्याण के लिए ही करता हैं। मैं ऐसा नहीं समझती। समझ ही नहीं सकती। कैसे से समझूँ? हाय मेरे लाल! मेरे लाडले! मेरे राजा, मेरे सूर्य, मेरे चन्द्र, मेरे जीवन का आधार! मेरे सर्वस्व! तुझे खोकर कैसे चित्त को शान्त रखूँ? जिसे गोद में देखकर मैंने अपने भाग्य को धन्य माना था, उसे आज धरती पर पड़ा देखकर हृदय को कैसे सँभालूँ । नहीं मानता! हाय नहीं मानता!
यह कहते हुए उसने जोर से छाती पीट ली।
उसी रात को शोकातुर माता संसार से प्रस्थान कर गयी। पक्षी अपने बच्चे की खोज में पिंजरे से निकल गया।
तीन साल बीत गये।
श्रमजीवियों के मुहल्ले में आज कृष्णाअष्टमी का उत्सव हैं। उन्होंने आपस में चन्दा करके एक मन्दिर बनवाया हैं। मन्दिर आकार में तो बहुत सुन्दर और विशाल नहीं पर जितनी भक्ति से यहाँ सिर झुकते हैं वह बात इससे कहीं विशाल मन्दिरों को प्राप्त नहीं। यहाँ लोग अपनी सम्पत्ति को प्रदर्शन करते नहीं, बल्कि अपनी श्रद्धा की भेट देने आते हैं।
मजदूर स्त्रियाँ गा रही हैं, बालक दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम कर रहे हैं औऱ पुरुष झाँकी के बनाव-श्रंगार में लगे हुए हैं।
उसी वक़्त सेठ खूबचन्द आये।स्त्रियाँ और बालक उन्हें देखते ही चारों ओर से दौड़कर जमा हो गये। वह मन्दिर उन्हीं के सतत उद्योग का फल है। मजदूर परिवारों की सेवा ही अब उनके जीवन का उद्देश्य है। उसका छोटा-सा परिवार अब विराट हो गया। उनके सुख को वह अपना सुख और उनके दुःख को अपना दुः ख मानते हो। मजदूरों में शराब, जुए और दुराचरण की वह कसरत नहीं रही। सेठजी की सहायता, सत्संग और सदव्यवहार पशुओं को मनुष्य बना रहा हैं।
सेठजी ने बाल-रूप भगवान के सामने जाकर सिर झुकाया और उनका मन अलौकिक आनन्द से खिल उठा। उस झाँकी में उन्हें कृष्णचन्द्र की झलक दिखायी दी। एक ही क्षण में उसने जैसे गोपीनाथ का रूप धारण किया।
सेठजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। भगवान की व्यापकता का, दया का रूप आज जीवन में पहली बार उन्हें दिखायी दिया। अब तक, भगवान की दया को वह सिद्धान्त रूप में मानते थे। आज उन्होंने उसका प्रत्यक्ष रूप देखा। एक पथ- भ्रष्ट पतनोन्मुखी आत्मा के उद्धार के लिए इतना दैवी विधान! इतनी अनवरत ईश्वरीय प्रेरणा! सेठजी के मानस-पट पर अपना सम्पूर्ण जीवन सिनेमा-चित्रों की भाँति दौड़ गया। उन्हें जान पड़ा जैसे बीस वर्ष से ईश्वर की कृपा उन पर छाया किये हुए हैं। गोपीनाथ का बलिदान क्या था? विद्रोही मजदूरों ने जिस समय उसका मकान घेर लिया था, उस समय उनका आत्म-समर्पण ईश्वर की दया के सिवा और क्या था, पन्द्रह साल के निर्वासित जीवन में, फिर कृष्णचन्द्र के रूप में, कौन उनकी आत्मा की रक्षा कर रहा था? सेठजी के अन्तःकरण से भक्ति की विह्वलता में डूबी हुई जय-ध्वनि निकली- कृष्ण भगवान की जय! और जैसे सम्पूर्ण ब्राह्मांड दया के प्रकाश से जगमगा उठा।