शाम को जब दीनानाथ ने घर आकर गौरी से कहा कि मुझे एक कार्यालय में पचास रुपये की नौकरी मिल गई हैं, तो गौरी खिल उठी। देवताओं में उसकी आस्था और भी मुझे ढृढ़ हो गयी। इधर एक साल से बुरा हाल था। न कोई रोजी न रोजगार। घर में जो थोड़े-बहुत गहने थे, वह बिक चुके थे। मकान का किराया सिर पर चढ़ा हुआ था। जिन मित्रों से कर्ज मिल सकता था, सबसे ले चुके थे। साल-भर का बच्चा दूध के लिए बिलख रहा था। एक वक़्त का भोजन मिलता, तो दूसरे जून की चिन्ता होती। तकाजों के मारे बेचारे दीनानाथ को घर से निकलना मुश्किल था। घर से बाहर निकला नहीं, कि चारों ओर से चिथाड़ मच जाती- वाह बाबूजी वाह! दो दिन का वादा करके ले गये थे और आज दो महीने से सूरत नहीं दिखायी! भाई साहब, यह तो अच्छी बात नहीं, आपको अपनी जरूरत का ख्याल हैं, मगर दूसरों की जरूरत का जरा भी ख्याल नहीं? इसी से कहा हैं, दुश्मन को चाहे कर्ज दे दो, दोस्त को कभी न दो। दीनानाथ को ये वाक्य तीरो-से लगते थे और उसका जी चाहता था कि जीवन का अन्त कर डाले. मगर बेजबान स्त्री और अबोध बच्चे का मुँह देखकर कलेजा थाम के रह जाते। बारे, आज भगवान् ने उस पर दया की और संकट के दिन कट गये।
गौरी नें प्रसन्नमुख होकर कहा- मैं कहती थी कि नहीं, ईश्वर सबकी सुधि लेते हैं और कभी-कभी हमारी भी सुधि लेंगे, मगर तुमको विश्वास ही न आया । बोलो, अब तो ईश्वर की दयालुता के कायल हुए?
दीनानाथ ने हठधर्मी करते हुए कहा- यह मेरी दौड़-धूप का नतीजा हैं, ईश्वर की क्या दयालुता? ईश्वर को तो तब जानता, जब कहीं से छप्पर फाड़ कर भेज देते।
लेकिन मुँह से चाहे कुछ करे, ईश्वर के प्रति उसके मन में श्रद्धा उदय हो गये थी।
दीनानाथ का स्वामी बड़ा ही रूखा आदमी था और काम में बड़ा चुस्त। उसकी उम्र पचास के लगभग थी और स्वास्थ्य भी अच्छा न था, फिर भी वह कार्यालय में सबसे ज्यादा काम करता। मजाल न थी कि कोई आदमी एक मिनट की देर करे, या एक मिनट भी समय से पहले चला जाय। बीच में 15 मिनट की छुट्टी मिलती थी, उसमें जिसका जी चाहे पान खा ले, या सिगरेट पी ले या जलपान कर ले। इसके अलावा एक मिनट का अवकाश न मिलता था। वेतन पहली तारीख को मिल जाता था। उत्सवों में भी दफ्तर बन्द रहता था और नियत समय के बाद कभी काम न लिया जाता था। सभी कर्मचारियों को बोनस मिलता था और प्राविडेन्ट फंड की भी सुविधा थी। फिर भी कोई आदमी खुश न था। काम या समय की पाबन्दी की किसी को शिकायत न थी। शिकायत थी केवल स्वामी के शुष्क व्यवहार की । कितना ही जी लगाकर काम करो, कितना ही प्राण दे दो, पर उसके बदले धन्यवाद का एक शब्द भी न मिलता था।
कर्मचारियों में और कोई सन्तुष्ट हो या न हो, दीनानाथ को स्वामी से कोई शिकायत न थी। वह घुड़कियाँ और फटकार पाकर भी शायद उतने ही परिश्रम से काम करता था। साल-भर में उसने कर्ज चुका दिये और कुछ संचय भी कर लिया। वह उन लोगों में था, जो थोड़े में भी संतुष्ट रह सकते हैं- अगर नियमित रूप से मिलता जाय। एक रुपया भी किसी खास काम में खर्च करना पड़ता, तो दम्पत्ति में घंटों सलाह होती औऱ बड़े झाँव-झाँव के बाद मंजूरी री मिलती थी। बिल गौरी की तरफ से पेश होती, तो दीनानाथ विरोध में खड़ा होता। दीनानाथ की तरफ से पेश होता, तो गौरी उसकी कड़ी आलोचना करती। बिल को पास करा लेना प्रस्तावक की जोरदार वकालत पर मुनसहर था। सर्टिफाई करने वाली कोई तीसरी शक्ति वहाँ न थी।
और दीनानाथ अब पक्का आस्तिक हो गया था। ईश्वर की दया या न्याय में अब उसे कोई शंका न थी। नित्य संध्या करता और नियमित रूप से गीता का पाठ करता। एक दिन उसके एक नास्तिक मित्र ने जब ईश्वर की निन्दा की, तो उसने कहा- भाई, इसका तो आज तक निश्चय नहीं हो सका ईश्वर हैं या नहीं। दोनो पक्षों के पास इस्पात की-सी दलीले मौजूद हैं; लेकिन मेरे विचार में नास्तिक रहने से आस्तिक रहना कही अच्छा हैं। अगर ईश्वर की सत्ता हैं, तब तो नास्तिकों को नरक के सिवा कहीं ठिकाना नहीं। आस्तिक के दोनों हाथों में लड्डू हैं। ईश्वर है तो पूछना ही क्या, नहीं है, तब भी क्या बिगड़ता हैं। दो-चार मिनट का समय ही तो जाता हैं।
नास्तिक मित्र इस दोरुखी बात पर मुँह बिचकाकर चल दिये।
एक दिन जब दीनानाथ शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो स्वामी ने उसे अपने कमरे में बुला भेजा और बड़ी खातिर से उसे कुर्सी पर बैठाकर बोला- तुम्हें यहाँ काम करते कितने दिन हुए ? साल-भर तो हुआ ही होगा?
दीनानाथ ने नम्रता से कहा- जी हाँ, तेरहवाँ महीना चल रहा हैं।
‘आराम से बैठो, इस वक़्त घर जाकर जलपान करते हो?’
‘जी नहीं, मैं जलपान का आदी नही।’
‘पान-वान तो खाते ही होगे? जवान आदमी होकर अभी से इतना संयम।’
यह कहकर उसने उसने घंटी बजायी और अर्दली से पान और कुछ मिठाइयाँ लाने को कहा
दीनानाथ को शंका हो रही थी- आज इतनी खातिरदारी क्यों हो रही हैं। कहाँ तो सलाम भी नहीं लेते थे, कहाँ आज मिठाई और पान सभी कुछ मँगाया जा रहा हैं! मालूम होता हैं मेरे काम से खुश हो गये हैं। इस खयाल से उसे कुछ आत्मविश्वास हुआ और ईश्वर की याद आ गयी। अवश्य परमात्मा सर्वदर्शी और न्यायकारी हैं; नहीं तो मुझे कौन पूछता?
अर्दली मिठाई और पान लाया। दीनानाथ आग्रह से विवश होकर मिठाई खाने लगा।
स्वामी ने मुसकराते हुए कहा- तुमने मुझे बहुत रूखा पाया होगा। बात यह हैं कि हमारे यहाँ अभी तक लोगों को अपनी जिम्मेदारी का इतना कम ज्ञान हैं कि अफसर जरा भी नर्म पड़ जाय और काम खराब होने लगता हैं। कुछ ऐसे भाग्यशाली हैं, जो नौकरों से हेल-मेल भी रखते हैं, उनसे हँसते- बोलते भी हैं, फिर भी नौकर नहीं बिगड़ते, बल्कि और भी दिल लगाकर काम करते हैं। मुझमें वह कला नहीं हैं, इसलिए मैं अपने आदमियों से कुछ अलग-अलग रहना ही अच्छा समझता हूँ और अब तक मुझे इस नीति से कोई हानि भी नहीं हुई; लेकिन मैं आदमियों का रंग-ढंग देखता हूँ और सब को परखता रहा हूँ । मैने तुम्हारे विषय में जो मत स्थिर किया हैं; वह यह हैं कि तुम वफादार हो और मैं तुम्हारे ऊपर विश्वास कर सकता हूँ, जहाँ तुम्हें खुद बहुत कम काम करना पड़ेगा। केवल निगरानी करनी पड़ेगी। तुम्हारे वेतन में पचास रुपये की और तरक्की हो जायगी। मुझे विश्वास हैं, तुमने अब तक जितनी तनदेही से काम किया हैं, उससे भी ज्यादा तनदेही से आगे करोगे।
दीनानाथ की आँखों में आँसू भर आये और कंठ की मिठाई कुछ नमकीन हो गयी। जी में आया, स्वामी के चरणों पर सिर दें और कहे- आपकी सेवा के लिए मेरी जान हाजिर हैं। आपने मेरा जो सम्मान बढ़ाया हैं, मैं उसे निभाने में कोई कसर न उठा रखूँगा; लेकिन स्वर काँप रहा था और वह केवल कृतज्ञता-भरी आँखों से देखकर रह गया।
सेठजी ने एक मोटा-सा लेजर निकालते हुए कहा- मैं एक ऐसे काम में तुम्हारी मदद चाहता हूँ, जिस पर इस कार्यालय का सारा भविष्य टिका हुआ हैं। इतने आदमियों में मैने केवल तुम्हीं को विश्वास-योग्य समझा हैं। और मुझे आशा हैं कि तुम मुझे निराश न करोगे। यह पिछले साल का लेजर है और इसमें कुछ ऐसी रकमें दर्ज हो गयी हैं; जिनके अनुसार कम्पनी को कई हजार का लाभ होता हैं, लेकिन तुम जानते हो, हम कई महीनों से घाटे पर काम कर रहे हैं। जिस क्लर्क ने यह लेजर लिखा था, उसकी लिखावट तुम्हारी लिखावट से बिल्कुल मिलती हैं। अगर दोनों लिखावटें आमने-सामने रख दी जायँ, तो किसी विशेषज्ञ को भी उसमें भेद करना कठिन हो जायगा। मैं चाहता हूँ, तुम लेजर में एक पृष्ठ फिर से लिख कर जोड़ दो और उसी नम्बर का पृष्ठ उसमें से निकाल दो। मैने पृष्ठ का नम्बर छपवा लिया हैं; एक दफतरी भी ठीक कर लिया हैं, जो रात भर में लेजर की जिल्दबन्दी कर देगा। किसी को पता तक न चलेगा। जरूरत सिर्फ यह हैं कि तुम अपनी कलम से उस पृष्ठ की नकल कर दो।
दीनानाथ ने शंका की- जब उस पृष्ठ की नकल ही करनी हैं, तो उसे निकालने की क्या जरूरत हैं?
सेठजी हँसे- तो क्या तुम समझते हो, उस पृष्ठ की हूबहू नकल करनी होगी। मैं कुछ रकमों में परिवर्तन कर दूँगा। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं केवल कार्यालय की भलाई के खयाल से यह कार्यवाई कर रहा हूँ । अगर रद्दोबदल न किया गया, तो कार्यालय के एक सौ आदमियों की जीविका में बाधा पड़ जायगी। इसमें कुछ सोच-विचार करने की जरूरत नहीं। केवल आध घंटे का काम हैं। तुम बहुत तेज लिखते हो।
कठिन समस्या थी। स्पष्ट थी कि उससे जाल बनाने को कहा जा रहा हैं। उसके पास इस रहस्य के पता लगाने का कोई साधन न था कि सेठजी जो कुछ कह रहे हैं, वह स्वार्थवश होकर या कार्यालय की रक्षा के लिए; लेकिन किसी दशा में भी हैं यह जाल, घोर जाल। क्या वह अपनी आत्मा की हत्या करेगा? नहीं; किसी तरह नहीं।
उसने डरते-डरते कहा- मुझे आप क्षमा करें, मैं यह काम न कर सकूँगा।
सेठजी ने उसी अविचलित मुसकान के साथ पूछा- क्यों?
‘इसलिए कि यह सरासर जाल हैं।’
‘जाल किसे कहते हैं?’
‘किसी हिसाब में उलटफेर करना जाल हैं।’
‘लेकिन उस उलटफेर से एक सौ आदमियों की जीविका बनी रहे, तो इस दशा में भी वह जाल हैं? कम्पनी की असली हालत कुछ और हैं, कागजी हालत कुछ और; अगर यह तब्दीली न की गयी, तो तुरन्त कई हजार रुपये नफे के देने पड़ जायेगे और नतीजा यह होगा कि कम्पनी का दिवाला हो जायगा। और सारे आदमियों को घर बैठना पड़ेगा। मैं नहीं चाहता कि थोड़े से मालदार हिस्सेदारों के लिए इतने गरीबों का खून किया जाय। परोपकार के लिए कुछ जाल भी करना पड़े, तो वह आत्मा की हत्या नही हैं।’
दीनानाथ को कोई जवाब न सूझा। अगर सेठजी का कहना सच हैं और इस जाल से सौ आदमियों को रोजी बनी रहे तो वास्तव में वह जाल नहीं, कठोर कर्त्तव्य हैं; अगर आत्मा की हत्या होती भी हो, तो सौ आदमियों की रक्षा के लिए उसकी परवाह न करनी चाहिए, लेकिन नैतिक समाधान हो जाने पर अपनी रक्षा का विचार आया। बोला- लेकिन कहीं मुआमला खुल गया, तो मिट जाऊँगा । चौदह साल के लिए काले पानी भेज दिया जाऊँगा ।
सेठ ने जोर से कहकहा मारा – अगर मुआमला खुल गया, तो तुम न फँसोंगे, मैं फँसूगा। तुम साफ इनकार कर सकते हो।
‘लिखावट तो पकड़ी जायगी?‘
‘पता ही कैसे चलेगा कि कौन पृष्ठ बदला गया, लिखावट तो एक-सी हैं।’
दीनानाथ परास्त हो गया। उसी वक़्त उस पृष्ठ की नकल करने लगा।
फिर भी दीनानाथ के मन में चोर पैदा हुआ था। गौरी से इस विषय में वह एक शब्द भी न कह सका।
एक महीनें के बाद उसकी तरक्की हुई। सौ रुपये मिलने लगे। दो सौ बोनस के भी मिले।
यह सब कुछ था, घर में खुशहाली के चिह्न नजर आने लगे; लेकिन दीनानाथ का अपराधी मन एक बोझ से दबा रहता था। जिन दलीलों से सेठजी ने उसकी जबान बन्द कर दी, उस दलीलों से गौरी को सन्तुष्ट कर सकने का उसे विश्वास न था।
उसकी ईश्वर-निष्ठा उसे सदैव डराती रहती थी। इस अपराध का कोई भयंकर दंड अवश्य मिलेगा। किसी प्रायश्चित, किसी अनुष्ठान से उसे रोकना असम्भव हैं। अभी न मिले; साल-दो-साल में मिले, दस-पाँच साल न मिले; पर जितनी देर से मिलेगा, उतना ही भयंकर होगा, मूलधन ब्याज के साथ बढ़ता जायेगा। वह अक्सर फछताता, मैं क्यों सेठजी के प्रलोभन में आ गया। कार्यालय टूटता या रहता, मेरी बला से; आदमियों की रोजी जाती या रहती, मेरी बला से; मुझे तो यह प्राण-पीड़ा न होती, लेकिन अब तो जो कुछ होना था हो चुका और दंड अवश्य मिलेगा। इस शंका ने उसके जीवन का उत्साह, आनन्द और माधुर्य सब कुछ हर लिया।
मलेरिया फैला हुआ था। बच्चे को ज्वर आया। दीनानाथ के प्राण नहीं में समा गये। दंड का विधान आ पहुँचा। कहाँ जाय, क्या करे, जैसे बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। गौरी ने कहा- जाकर कोई दवा लाओ, या किसी डॉक्टर को दिखा दो, तीन दिन तो हो गये।
दीनानाथ ने चिन्तित मन से कहा- हाँ, जाता हूँ लेकिन मुझे बड़ा भय लग रहा हैं।
‘भय की कौन-सी बात हैं, बेबात की बात मुँह से निकालते हो। आजकल किसे ज्वर नहीं आती?’
‘ईश्वर इतना निर्दयी क्यों हैं?’
‘ईश्वर निर्दयी हैं पापियों के लिए। हमने किसका क्या हर लिया हैं?’
‘ईश्वर पापियों को कभी क्षमा नहीं करता।’
‘पापियों को दंड न मिले, तो संसार में अनर्थ हो जाय।’
‘लेकिन आदमी ऐसे काम भी तो करता हैं, तो एक दृष्टि से पाप हो सकते हैं, दूसरी दृष्टि से पुण्य।’
‘मैं नहीं समझी।’
‘मान लो, मेरे झूठ बोलने से किसी की जान बचती हो, तो क्या वह पाप हैं?’
‘मैं तो समझती हूँ, ऐसा झूठ पुण्य हैं।’
‘तो जिस पाप से मनुष्य का कल्याण हो, वह पुण्य हैं?’
‘और क्या’
दीनानाथ की अमंगल की शंका थोड़ी देर के लिए दूर हो गयी। डॉक्टर को बुला लाया, इलाज शुरू किया, बालक एक सप्ताह में चंगा हो गया।
मगर थो़ड़े दिन बाद वह खुद बीमार पड़ा। वह अवश्य ही ईश्वरीय दंड हैं और वह बच नहीं सकता। साधारण मलेरिया ज्वर था; पर दीनानाथ की दंड-कल्पना ने उसे सन्निपात का रूप दे दिया। ज्वर में, नशे की हालत की तरह यों ही कल्पनाशक्ति तीव्र हो जाती हैं। पहले केवल मनोगत शंका थी, वह भीषण सत्य बन गयी। कल्पना ने यमदूत रच डाले, उनके भाले औऱ गदाएँ रच डाली। नरक का अग्निकुंड दहका दिया। डॉक्टर की एक घूँट दवा हजार मन की गदा के आवाज और आग के उबलते हुए समुद्र के दाह पर क्या असर करती? दीनानाथ मिथ्यावादी न था। पुराणों की रहस्यमय कल्पनाओं में उसे विश्वास न था। नहीं, वह बुद्धिवादी था और ईश्वर में भी तभी उसे विश्वास आया, जब उसकी तर्कबुद्धि कायल हो गयी। लेकिन ईश्वर के साथ उसकी दया उसकी दया भी आयी, उसका दंड भी आया। दया ने उसे रोजी दी, मान लिया। ईश्वर की दया न होती, तो शायद वह भूखों मर जाता, लेकिन भूखों मरना अग्निकुड में ढकेल दिये जाने से कहीं सरल था, खेल था। दंड-भावना जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार से ऐसी बद्धमूल हो गया थी, मानो उसकी बुद्धि का, उसकी आत्मा का, एक अंग हो गयी हो। उसका तर्कवाद और बुद्धिवाद इन मन्वन्तरों के जमे हुए संस्कार पर समुद्र की ऊँची लहरों की भाँति आता था, पर एक क्षण में उन्हें जल-मग्न करके फिर लौट जाता था और वह पर्वत ज्यों-का-त्यों खड़ा रह जाता था।
जिन्दगी बाकी थी, बच गया। ताकत आते ही दफ्तर जाने लगा। एक दिन गौरी बोली- जिन दिनों तुम बीमार थे औऱ एक दिन तुम्हारी हालत बहुत नाजुक हो गयी थी, तो मैने भगवान से कहा था कि वह अच्छे हो जायँगे, तो पचास ब्राह्मणों को भोजन कराऊँगी । दूसरे दिन से तुम्हारी हालत सुधरने लगी। ईश्वर ने मेरी विनती सुन ली। उसकी दया न हो जाती, तो मुझे कहीं माँगे भीख न मिलती। आज बाजार से सामान ले आओ, तो मनौती पूरी कर दूँ। पचास ब्राह्मण नेवेत जायँगे, तो सौ अवश्य आयेंगे। पचास कँगले समझ लो और मित्रों में बीस-पचीस निकल ही आयेंगे। दो सौ आदमियों का डौल हैं। मैं सामग्रियों की सूची लिखे देती हूँ।
दीनानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा- तुम समझती हो, मैं भगवान की दया से अच्छा हुआ?
‘और कैसे अच्छे हुए?’
‘अच्छा हुआ इसलिए कि जिन्दगी बाकी थी।’
‘ऐसी बातें न करो। मनौती पूरी करनी होगी।’
‘कभी नहीं। मैं भगवान को दयालु नहीं समझता।’
‘और क्या भगवान निर्दयी हैं?’
‘उनसे बड़ा निर्दयी कोई संसार में न होगा। जो अपने रचे हुए खिलौनों को उनकी भूलों और बेवकूफियों की सजा अग्निकुंड में ढकेलकर दे, वह भगवान दयालु नहीं हो सकता। भगवान जितना दयालु हैं, उससे असंख्य गुना निर्दयी हैं। और ऐसे भगवान की कल्पना से मुझे घृणा होती हैं। प्रेम सबसे बड़ी शक्ति कही गयी हैं। विचारवानों ने प्रेम को ही जीवन की और संसार की सबसे बड़ी विभूति मानी हैं। व्यवहारों में न सही, आदर्श में प्रेम ही हमारे जीवन का सत्य हैं, मगर तुम्हारा ईश्वर दंड-भय से सृष्टि का संचालन करता हैं। फिर उसमें और मनुष्य मं क्या फर्क हुआ? ऐसे ईश्वर की उपासना मैं नही करना चाहता, नहीं कर सकता। जो मोटे हैं, उनके लिए ईश्वर दयालु होगा, क्योंकि वे दुनिया को लूटते हैं। हम जैसो को तो ईश्वर की दया कहीं नजर नहीं आती। हाँ, भय पग-पग पर खड़ा घूरा करता हैं। यह मत करो, ईश्वर दंड देना! वह मत करो, ईश्वर दंड देगा। प्रेम से शासन करना मानवता हैं, आतंक से शासन करना बर्बरता हैं। आतंकवादी ईश्वर से तो ईश्वर का न रहना ही अच्छा हैं। उसे हृदय से निकाल कर मैं उसकी दया और दंड दोनों से मुक्त हो जाना चाहता हूँ। एक कठोर दंड बरसों के प्रेम को मिट्टी में मिला देता हैं। मै तुम्हारे ऊपर बराबर जान देता रहता हूँ ; लेकिन किसी दिन डंडा लेकर पीट चलूँ, तो तुम मेरी सूरत न देखोगी। ऐसे आतंकमय, दंडमय जीवन के लिए मैं ईश्वर का एहसास नहीं लेना चाहता। बासी बात में खुदा के साझे के जरूरत नहीं हैं। अगर तुमने ओज-भोज पर जोर दिया, तो मैं जहर खा लूँगा।’
गौरी उसके मुँह की और भयातुर नेत्रों से ताकती रह गयी।