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बालक (Balak)

गंगू को लोग ब्राह्मण कहते हैं औऱ वह अपने को ब्राह्मण समझता भी हैं। मेरे सईस और खिदमतगार मुझे दूर से सलाम करते हैं। गंगू मुझे कभी सलाम नहीं करता। वह शायद मुझसे पागलपन की आशा करता हैं। मेरा जूठा गिलास कभी हाथ से नहीं छूता और न मेरी हिम्मत हुई कि उससे पंखा झलने को कहूँ । जब पसीने से तर होता हूँ औ वहाँ कोई दूसरा आदमी नहीं होता, तो गंगू आप-ही-आप पंखा उठा लेता हैं; लेकिन उसकी मुद्रा से यह भाव स्पष्ट प्रकट होता हैं कि मुझ पर कोई एहसान कर रहा हैं और मैं भी न-जाने क्यों फौरन ही उसके हाथ से पंखा छीन लेता हूँ। उग्र स्वभाव का मनुष्य हैं। किसी की बात नहीं सह सकता। ऐसे बहुत कम आदमी होंगे, जिनसे उसकी मित्रता हो; पर सईस और खिदमतगार के साथ बैठना शायद वह अपमानजनक समझता हैं। मैने उसे किसी से मिलते- जुलते नहीं देखा। आश्चर्य हैं कि उसे भंग-बूटी से प्रेम नहीं, जो इस श्रेणी के मनुष्यों में एक असाधारण गुण हैं। मैने उसे कभी पूजा-पाठ करते या नदी में स्नान करते नहीं देखा। बिल्कुल निरक्षर हैं; लेकिन ब्राह्मण हैं और चाहता हैं कि दुनिया उसकी प्रतिष्ठा और सेवा करे और क्यों न चाहे? जब पुरुखों की पैदा की हुई सम्पत्ति पर आज भी लोग जमाये हुए हैं औऱ उसी शान से, मानो खुद पैदा किये हो, तो वह क्यों उस प्रतिष्ठा औऱ सम्मान को त्याग दे, जो उसके पुरुखाओं ने संचय किया था? यह उसकी बपौती हैं।

मेरा स्वभाव कुछ इस तरह का हैं कि अपने नौकरों से बहुत कम बोलता हूँ । मैं चाहता हूँ, जब तक न बुलाऊँ, कोई मेरे पास न आये। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि जरा-सी बातों के लिए नौकरों को आबाज देता फिरूँ। मुझे अपने हाथ से सुराही से पानी उँडेल लेना, अपना लैम्प जला लेना, अपने जूते पहन लेगा या आलमारी से कोई किताब निकाल लेना, इससे कहीं ज्यादा सरल मालूम होता हैं कि हींगन औऱ मैकू को पुकारूँ। इससे मुझे अपनी स्वेच्छा और आत्म विश्वास का बोध होता हैं। नौकर मेरे स्वभाव से परिचित हो गये और बिना जरूरत के मेरे पास बहुत कम आते थे। इसलिए एक दिन जब प्रातःकाल गंगू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया तो मुझे बहुत बुरा लगा। ये लोग जब आते हैं, तो पेशगी हिसाब में कुछ माँगने के लिए या किसी दूसरे नौकर की शिकायत करने के लिए। मुझे ये दोनों ही बाते अत्यंत अप्रिय हैं। मैं पहली तारीख को हर एक का वेतन चुका देता हूँ और बीच में जब कोई कोई माँगता हैं, तो क्रोध आ जाता हैं; कौन दो-दो, चार-चार रुपये का हिसाब रखता फिरे। फिर जब किसी को महीने-भर की पूरी मजूरी मिल गयी, तो उसे क्या हक हैं कि उसे पन्द्रह दिन में खर्च कर दे और ऋण या पेशगी की शरण ले, और शिकायतों से तो मुझे घृणा हैं। मैं शिकायतों को दुर्बलता का प्रमाण समझता हूँ, या ठुकरसुहाती की क्षुद्र चेष्ठा।

मैने माथा सिकोड़ कर कहा- क्या बात हैं, मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं?

गंगू के तीखे अभिमानी मुख पर आज कुछ ऐसी नम्रता, कुछ ऐसी याचना, कुछ ऐसा संकोच था कि मैं चकित हो गया। ऐसा जान पड़ा, वह कुछ जवाब देना चाहता हैं; मगर शब्द नहीं मिल रहे हैं।

मैंने जरा नम्र होकर कहा- आखिर क्या बात हैं, कहते क्यों नहीं? तुम जानते हो, मेरे टहलने का समय हैं। मुझे देर हो रही हैं।

गंगू ने निराशा भरे स्वर में कहा- तो आप हवा खाने जायँ, मैं फिर आ जाऊँगा ।

यह अवस्था और भी चिन्ताजनक थी। इस जल्दी में तो वह एक क्षण में अपना वृत्तान्त कह सुनायेगा। वह जानता हैं कि मुझे ज्यादा अवकाश नहीं हैं। दूसरे अवसर पर तो दुष्ट घंटों रोयेगा। मेरे कुछ लिखने-पढ़ने को तो वह शायद कुछ काम समझता हो; लेकिन विचार को, जो मेरे लिए सबसे कठिन साधना हैं, वह मेरे विश्राम का समय समझता हैं। वह उसी वक्त आकर मेरे सिर पर सवार हो जायगा।

मैंने निर्दयता से उत्तर दिया- क्या कुछ पेशगी माँगने आये हो? मैं पेशगी नहीं देता।

‘जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी पेशगी नहीं माँगा।‘

‘तो किसी की शिकायत करना चाहते हो? मुझे शिकायतों से घृणा हैं?‘

‘जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी किसी की शिकायत नहीं की?‘

गंगू ने अपना दिल मजबूत किया। उनकी आकृति से स्पष्ट झलक रहा था, मानो वह कोई छलाँग मारने के लिए अपनी सारी शक्तियों को एकत्र कर रहा था। और लड़खड़ाती हुई आवाज में बोला- मुझे आप छुट्टी दे दें। मैं आपकी नौकरी अब न कर सकूँगा ।

यह इस तरह का पहला प्रस्ताव था, जो मेरे कानों में पड़ा। मेरे आत्माभिमान को चोट लगी। मैं जब अपने को मनुष्यता का पुतला समझता हूँ, अपने नौकरों को कभी कटु -वचन नहीं कहता, अपने स्वामित्व को यथासाध्य म्यान में रखने की चेष्ठा करता हूँ, तब मैं इस प्रस्ताव पर क्यों न विस्मित हो जाता! कठोर स्वर में बोला- क्यों, क्या शिकायत हैं?

आपने तो हुजूर, जैसा अच्छा स्वभाव पाया हैं, वैसा क्या कोई पायेगा; लेकिन बात ऐसी आ पड़ी हैं कि अब मैं आपके यहाँ नहीं रह सकता। ऐसा ने हो कि पीछे से कोई बात हो जाय, तो आपकी बदनामी हो। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से आपकी आबरू में बट्टा लगे।

मेरे दिल में उलझन पैदा हुई। जिज्ञासा की अग्नि प्रचंड हो गयी। आत्म-समर्पण के भाव से बरामदे में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठकर बोला- तुम तो पहेलियाँ बुझवा रहे हो। साफ-साफ क्यों नही कहते, क्या मामला हैं।

गंगू ने बड़ी नम्रता से कहा- बात यह है कि वह स्त्री, जो अभी विधवा आश्रम से निकाल दी गयी हैं, वह गोमती देवी…

वह चुप हो गया। मैंने अधीर होकर कहा- हाँ, निकाल दी गयी हैं, तो फिर? तुम्हारी नौकरी से उससे क्या सम्बन्ध?

गंगू ने जैसे अपने सिर का भारी बोझ जमीन पर पटक दिया-

‘मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ बाबूजी !‘

मैं विस्मय से उसका मुँह ताकने लगा। यह पुराने विचारों का पोंगा ब्राह्मण जिसे नयी सभ्यता की हवा तक न लगी, उस कुलटा से विवाह करने जा रहा हैं, जिसे कोई भला आदमी अपने घर में कदम भी न रखने देगा। गोमती ने इस मुहल्ले के शान्त वातावरण में थोड़ी-सी हलचल पैदा कर दी। कई साल पहले वह विधवाश्रम में आयी थी। तीन बार आश्रम के कर्मचारियों ने उसका विवाह कर दिया, पर हर बार वह महीने-पन्द्रह दिन के बाद भाग आयी थी। यहाँ तक कि आश्रम के मन्त्री ने अब की बार उसे आश्रम से निकाल दिया था। तब से वह इसी मुहल्ले में एक कोठरी लेकर रहती थी और सारे मुहल्ले के शोहदो के लिए मनोरंजन का केन्द्र बनी हुई थी।

मुझे गंगू की सरलता पर क्रोध भी आया और दया भी। इस गधे को सारी दुनिया में कोई स्त्री ही न मिलती थी, जो इससे ब्याह करने जा रहा हैं। जब वह तीन बार पतियों के पास से भाग आयी, तो इसके पास कितने दिन रहेगी? कोई गाँठ का पूरा आदमी होता, तो एक बात भी थी। शायद साल-छः महीने टिक जाती। यह तो निपट आँख का अन्धा हैं। एक सप्ताह भी तो निबाह न होगा।

मैंने चेतावनी के भाव से पूछा- तुम्हें इस स्त्री की जीवन-कथा मालूम हैं?

गंगू ने आँखो-देखी बात की तरह कहा- सब झूठ है सरकार, लोगों ने हकनाहक उसको बदनाम कर दिया हैं।

‘क्या कहते हो, वह तीन बार अपने पतियों के पास से नहीं भाग आयी?‘

‘उन लोगों ने उसे निकाल दिया, तो क्या करती?‘

‘कैसे बुद्धू आदमी हो! कोई इतनी दूर से आकर विवाह करके ले जाता हैं, हजारों रुपये खर्च करता हैं, इसलिए कि औरत को निकाल दें?‘

गंगू ने भावुकता से कहा- जहाँ प्रेम नहीं है हुजूर, वहाँ कोई स्त्री नहीं रह सकती। स्त्री केवल रोटी कपड़ा ही नहीं चाहती, कुछ प्रेम भी चाहती हैं। वे लोग समझते होंगे कि हमने एक विधवा से विवाह करके उसके ऊपर कोई बडा एहसान किया हैं। चाहते होंगे कि तन-मन से वह उसकी हो जाय, लेकिन दूसरे को अपना बनाने के लिए पहले आप उसका बन जाना पड़ता हैं हजूर। यह बात हैं। फिर उसे एक बीमारी भी हैं। उसे कोई भूत लगा हुआ हैं। यह कभी-कभी बक-झक करने लगती हैं और बेहोश हो जाती हैं।

‘और तुम ऐसी स्त्री से विवाह करोगे?‘ – मैने संदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा- समझ लो, जीवन कड़वा हो जायगा।

गंगू ने शहीदों के -से आवेश से कहा- मैं तो समझता हूँ, मेरी जिन्दगी बन जायगी बाबूजी, आगे भगवान की मर्जी।

मैने जोर देकर पूछा- तो तुमने तय कर लिया हैं?

‘हाँ, हजूर‘

‘तो मैं तुम्हारा इस्तीफा मंजूर करता हूँ।‘

मैं निरर्थक रूढ़ियों औऱ व्यर्थ के बन्धनों का दास नही हूँ ; लेकिन जो आदमी एख दुष्टा से विवाह करे, उसे अपने यहाँ रखना वास्तव में जटिल समस्या थी। आये- दिन टंट-बखड़े होगे, नयी-नयी उलझनें पैदा होगी, कभी पुलिस दौड़ लेकर आयेगी, कभी मुकदमें खड़े होगे। सम्भव हैं, चोरी की वारदातें भी हों। इस दलदल से दूर रहना ही अच्छा। गंगू क्षूधा-पीड़ित प्राणी की भाँति रोटी का टुकड़ा देखकर उसकी ओर लपक रहा हैं। रोटी जूठी हैं, सूखी हैं, खाने योग्य नहीं हैं, इसकी उसे परवाह नहीं; उसको विचार-बुद्धि से काम लेना कठिन था। मैने उसे पृथक कर देने ही में अपनी कुशल समझी।

पाँच महीने गुजर गये। गंगू ने गोमती से विवाह कर लिया था और उसी मुहल्ले में एक खपरैल का मकान लेकर रहता था। वह अब चाट का खोंचा लगाकर गुजर-बसर करता था। मुझे जब कभी बाजार में मिल जाता, तो मैं उसका क्षेम- कुशल पूछता। मुझे उसके जीवन से विशेष अनुराग हो गया था। यह एक सामाजिक प्रश्न की परीक्षा थी- सामाजिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक भी। मैं देखना चाहता था, इसका परिणाम क्या होता हैं। मैं गंगू को सदैव प्रसन्न-मुख देखता। समृद्धि और निश्चिन्तता के मुख ख पर जो एक तेज और स्वभाव में जो एक आत्म-सम्मान पैदा हो जाता हैं, वह झे यहाँ प्रत्यक्ष दिखायी देता था। रुपये बीस आने की रोज बिक्री हो जाती थी। इसमें से लागत निकालकर आठ-दस आने बच जाते थे। यही उसकी जीविका थी; किन्तु इसमें किसी देवता का वरदान था; क्योंकि इस वर्ग के मनुष्यों में जो निर्लज्जता और विपन्नता पायी जाती हैं, इसका वहाँ चिह्न तक न था। उसके मुख पर आत्म-विश्वास और आनन्द की झलक थी, जो चित्त की शान्ति से ही आ सकती हैं।

एक दिन मैंने सुना कि गोमती गंगू के घर से भाग गयी हैं! कह नहीं सकता क्यों! मुझे इस खबर से एक विचित्र आनन्द हुआ। मुझे गंगू के संतुष्ट और सुखी जीवन पर एक प्रकार की ईर्ष्या होती थी। मैं उसके विषय में किसी अनिष्ट की, किसी घातक अनर्थ की, किसी लज्जास्पद घटना की प्रतिक्षा करता था। इस खबर से इस ईर्ष्या को सान्त्वना मिली। आखिर वही बात हुई, जिसका मुझे विश्वास था। आखिर बचा को अपनी अदूरदर्शिता का दंड भोगना पड़ा। अब देखे, बचा कैसे मुँह दिखाते हैं। अब आँखें खुलेगी और मालूम होगा कि लोग, जो उन्हें इस विवाह से रोक रहे थे, उनके कैसे शुभ-चिन्तक थे। उस वक़्त तो ऐसा मालूम होता था, मानो आपको कोई दुर्लभ पदार्थ मिला जा रहा हो। मानो मुक्ति का द्वार खुल गया हैं। लोगों ने कितना कहा कि यह स्त्री विश्वास के योग्य नहीं है, कितनों को दगा गे चुकी हैं, तुम्हारे साथ भी दगा करेगी, लेकिन कानों पर जूँ तक न रेंगी। अब मिले, तो जरा उसके मिजाज पूछूँ । कहूँ – क्यों महाराज, देवीजी का यह वरदान पाकर प्रसन्न हुए या नहीं? तुम तो कहते थे, वह ऐसी हैं और वैसी हैं, लोग केवल दुर्भावना के कारण दोष आरोपित करते हैं। अब बतलाओ, किसकी भूल थी?

उसी दिन संयोगवश गंगू से बाजार में भेट हो गयी। घबराया हुआ था, बदहवास था, बिल्कुल खोया हुआ। मुझे देखते ही उसकी आँखों में आँसू भर आये, लज्जा से नहीं व्यथा से। मेरे पास आकर बोला- बाबूजी, गोमती ने मेरे साथ विश्वासघात किया। मैने कुटिल आनन्द से, लेकिन कृमित्र सहानुभूति दिखाकर कहा- तुमसे तो मैने पहले ही कहा था; लेकिन तुम माने ही नहीं, अब सब्र करो। इसके सिवा और क्या उपाय हैं। रूपये पैसे ले गयी या कुछ छोड़ गयी?

गंगू ने छाती पर हाथ रखा। ऐसा जान पड़ा, मानो मेरे इस प्रश्न ने उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया।

‘अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए, उसने धेले की भी चीज नहीं छूई । अपना जो कुछ था, वह भी छोड़ गयी। न-जाने मुझमें क्या बुराई देखी। मैं उसके योग्य न था और क्या कहूँ । वह पढ़ी-लिखी थी, मैं करिया अक्षर भैंस बराबर। मेरे साथ इतने दिन रही, यहीं बहुत हैं। कुछ दिन औऱ उसके साथ रह जाता, तो आदमी बन जाता। उसका आपसे कहाँ तक बखान करूँ हजूर। औरों के लिए चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आशीर्वाद थी। न-जाने मुझेस क्या खता हो गयी। मगर कसम ले लीजिए, जो उसके मुख पर मैल तक आया हो। मेरी औकात ही क्या हैं बाबूजी ! दस-बराबर आने का मजूर हूँ ; पर इसी में उसके हाथो इतनी बरक्कत थी कि कभी कमी नहीं पड़ी।’

मुझे इन शब्दों से घोर निराशा हुई। मैने समझा था, वह उसकी वेवफाई की कथा कहेगा और मैं उसकी अन्ध-भक्ति पर कुछ सहानुभूति प्रकट करूँगा; मगर उस मूर्ख की आँखें अब तक नहीं खुली। अब भी उसी का मंत्र पढ़ रहा हैं। अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित हैं।

मैने कुटिल परिहास किया- तो तुम्हारे घर से कुछ नहीं ले गयी?

‘कुछ भी नहीं बाबूजी, धेले की भी चीज नहीं।’

‘और तुमसे प्रेम भी बहुत करती थी?’

‘अब आपसे क्या कहूँ बाबूजी, वह प्रेम तो मरते दम तक याद रहेगा।’

‘फिर भी तुम्हें छोड़कर चली गयी?’

‘यहीं तो आश्चर्य हैं बाबूजी !’

‘त्रिया-चरित का नाम कभी सुना हैं?’

‘अरे बाबूजी जी, ऐसा न कहिए। मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे, तो भी मैं उसका यश ही गाऊँगा ।’

‘तो फिर ढूँढ निकालो!’

‘हाँ, मालिक। जब तक उसे ढूँढ न लाऊँगा, मुझे चैन न आयेगा। मुझे इतना मालूम हो जाय कि वह कहाँ हैं, फिर तो मैं उसे ले ही आऊँगा ; और बाबूजी, मेरा दिल कहता हैं कि वह आयेगी जरूर। देख लीजिएगा। वह मुझसे रूठकर नही गयी; लेकिन दिल नहीं मानता। जाता हूँ, महीने-दो-महीने जंगल, पहाड़ की धूल छानूँगा। जीता रहा तो फिर आपके दर्शन करूँगा।’

यह कह कह वह उन्माद की दशा में एक तरफ चल दिया।

इसके बाद मुझे एक जरूरत से नैनीताल जाना पड़ा। सैर करने के लिए नहीं।

एक महीने बाद लौटा, और अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि देखता हूँ, गंगू एक नवजात शिशु को गोद में लिये खड़ा हैं। शायद कृष्ण को पाकर नन्द भी इतने पुलकित न हुए होंगे। मालूम होता था, उसके रोम-रोम से आनन्द फूटा पड़ता हैं। चेहरे और आँखों से कृतज्ञता और श्रद्धा के राग से निकल रहे थे। कुछ वही भाव था, जो किसी क्षुधा-पीड़ित भिक्षुक के चेहरे पर भरपेट भोजन करने के बाद नजर आता हैं।

मैंने पूछा- कहो महाराज, गोमती देवी का कुछ पता लगा, तुम तो बाहर गये थे?

गंगू ने आपे में न समाते हुए जवाब दिया- हाँ बाबूजी, आपके आशीर्वाद से ढूँढ लाया। लखनऊ के जनाने अस्पताल में मिली। यहाँ एक सहेली से कह गयी थी अगर वह बहुत घबरायें तो बतला देना। मैं सुनते ही लखनऊ भागा औऱ उसे घसीट लाया। घाते में यह बच्चा भी मिल गया

उसने बच्चे को उठाकर मेरी तरफ बढ़ाया। मानो कोई खिलाड़ी तमगा पाकर दिखा रहा हो।

मैने उपहास के भाव से पूछा- अच्छा, यह लड़का भी मिल गया? शायद इसीलिए वह यहाँ से भागी थी। हैं तो तुम्हार ही लड़का?

‘मेरा काहे को हैं बाबूजी, आपका हैं, भगवान का हैं।’

‘तो लखनऊ में पैदा हुआ?’

‘हाँ बाबूजी जी, अभी तो क एक महीने का हैं।’

‘तुम्हारे ब्याह हुए कितने दिन हुए?’

‘यह सातवां महीना चल रहा हैं।’

‘तो शादी के छठे महीने पैदा हुआ?’

‘और क्या बाबूजी ।’

‘फिर भी तुम्हारा लड़का हैं?’

‘हाँ, जी।’

‘कैसी बे-सिर की बात कर रहे हो?’

मालूम नही, वह मेरा आशय समझ रहा था, या बन रहा था। उसी निष्कपट भाव से बोला- मरते-मरते बची, बाबूजी नया जनम हुआ। तीन दिन, तीन रात छटपटाती रही। कुछ न पूछिए।

मैने अब जरा व्यंग्य-भाव से कहा- लेकिन छः महीने में लड़का होते आज ही सुना।

यह चोट निशाने पर जा बैठी।

मुसकराकर बोला- अच्छा, वह बात! मुझे तो उसका ध्यान ही नही आया। इसी भय से तो गोमती भागी थी। मैने कहा- गोमती, अगर तुम्हारा मन मुझसे नहीं मिलता, तो तुम मुझे छोड़ दो। मैं अभी चला जाऊँगा और फिर कभी तुम्हारे पास न आऊँगा । तुमको जब कुछ काम पड़े तो मुझे लिखना, मैं भरसक तुम्हारी मदद करूँगा। मुझे तुमसे कोई मलाल नहीं हैं। मेरे आँखो में तुम अब भी उतनी ही भली हो। अब भी मैं तुम्हें उतना ही चाहता हूँ । नहीं, अब मैं तुम्हें और ज्यादा चाहता हूँ ; लेकिन अगर तुम्हारा मन मुझसे फिर नहीं गया हैं, तो मेरे साथ चलो। गंगू जीते-जी तुमसे बेवफाई नहीं करेगा। मैने तुमसे इसलिए विवाह नहीं किया कि तुम देवी हो; बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें चाहता था औऱ सोचता था कि तुम भी मुझे चाहती हो। यह बच्चा मेरा बच्चा हैं, मेरा अपना बच्चा हैं। मैने एक बोया हुआ खेत लिया, तो क्या फसल को इसलिए छोड़ दूँगा, कि उसे दूसरे ने बोया था?

यह कहकर उसने जोर से ठट्ठा मारा।

मैं कपड़े उतारना भूल गया। कह नहीं सकता, क्यों मेरी आँखें सजल हो गयीं। न- जाने कौन-सी शक्ति थी, जिसने मेरी मनोगत घृणा को दबाकर मेरे हाथों को बढ़ा दिया। मैंने उस निष्कलंक बालक को गोद में ले लिया और इतने प्यार से उसका चुम्बन लिया कि शायद अपने बच्चों का भी न लिया होगा।

गंगू बोला- बाबूजी, आप बड़े सज्जन हैं। मै गोमती से बार-बार आपका बखान किया करता हूँ। कहता हूँ, चल, एक बार उनके दर्शन कर आ; लेकिन मारे लाज के आती ही नही।

मैं और सज्जन! अपनी सज्जनता का पर्दा आज मेरी आँखों से हटा। मैने भक्ति में डूबे हुए स्वर में कहा- नहीं जी, मेरे-जैसे कलुषित मनुष्य के पास वह क्या आयेगी। चलो, मैं उनके दर्शन करने चलता हूँ । तुम मुझे सज्जन समझते हो? मैं ऊपर से सज्जन हूँ ; पर दिल का कमीना हूँ । असली सज्जनता तुममें है और यह बालक वह फूल हैं, जिससे तुम्हारी सज्जनता की महक निकल रही हैं।

मैं बच्चे को छाती से लगाये हुए गंगू के साथ चला।

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