रसिक सम्पादक - मुंशी प्रेमचंद | Rasik Sampadak by Munshi Premchand
मानसरोवर भाग - 1
मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
तरसिक सम्पादक, मानसरोवर भाग - 1 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 1 की अन्य कहानियाँ
‘नवरस’ के सम्पादक पं. चोखेलाल शर्मा की धर्मपत्नी का जब से देहान्त हुआ हैं, आपको स्त्रियों से विशेष अनुराग राग हो गया है और रसिकता मात्रा भी कुछ बढ़ गयी हैं। पुरुषों के अच्छे-अच्छे लेख रद्दी में डाल दिये जाते हैं, पर देवियों के लेख कैसे भी हो, तुरन्त स्वीकार कर लिये जाते हैं और बहुधा लेख की प्रशंसा कुछ इन शब्दों में की जाती हैं- आपका लेख पढ़कर दिल थामकर रह गया, अतीत जीवन आँखों के सामने मूर्तिमान हो गया, अथवा आपके भाव साहित्य-सागर के उज्जवल रत्न हैं जिनकी चमक कभी कम न होगी। और कविताएँ तो उनके हृदय की हिलोरे, विश्व-वीणा की अमर तान, अनन्त की मधुर वेदना, निशा की नीरव गान होती थी। प्रशंसा के साथ दर्शनों की उत्कष्ट अभिलाषा भी प्रकट की जाती थी – यदि आप कभी इधर से गुजरें, तो मुझे न भूलिएगा। जिसने ऐसी कविता की सृष्टि की हैं, उसके दर्शनों का सौभाग्य हमें मिला, तो अपने को धन्य मानूँगा।
लेखिकाएँ अनुराग -मय प्रोत्साहन से भरे पत्र पाकर फूली न समातीं। जो लेख अभागे भिक्षुकों की भाँति कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं के द्वार से निराश लौट आये थे, उनका इतना आदर! पहली बार ऐसा सम्पादक जन्मा हैं, जो गुणों का पारखी हैं! और सभी सम्पादक अहम्मन्य हैं, अपने आगे किसी को समझते ही नहीं। ज़रा-सी सम्पादकी क्या मिल गयी मानो कोई राज्य मिल गया। इन सम्पादकों को कहीं सरकारी पद मिल जाय तो अन्धेर मचा दें। वह तो कहा कि सरकार इन्हें पूछती नहीं, उसने बहुत अच्छा किया, जो आर्डिनेन्स पास कर दिये। और स्त्रियों से द्वेष करो! यह उसी का दंड हैं! यह भी सम्पादक ही हैं, कोई घास नहीं छीलते और सम्पादक भी एक जगत विख्यात पत्र के ‘नवरस’ सब पत्रों में राजा हैं।
चोखेलालजी के पत्र की ग्राहक-संख्या बड़े वेग से बढ़ने लगी। हर डाक से धन्यवादो की एक बाढ़-सी आ जाती, और लेखिकाओं में उनकी पूजा होने लगी। ब्याह, गौना, मुंडन, जन्म-मरण के समाचार आने लगे। कोई आशीर्वाद माँगती, कोई उनके मुख से सांत्वना के दो शब्द सुनने की अभिलाषा करती, कोई उनसे घरेलू संकटों में परामर्श पूछती। और महीने में दस-पाँच महिलाएँ उन्हें आकर दर्शन भी दे जाती। शर्माजी उनकी अवाई का तार या पत्र पाते ही स्टेशन पर जाकर उनका स्वागत करते, बड़े आग्रह से उन्हें एक-आध दिन ठहराते, उनकी खूब खातिर करते। सिनेमा के फ्री पास मिले हुए थे ही, खूब सिनेमा दिखाते। महिलाएँ उनके सद्भाव से मुग्ध होकर विदा होती। मशहूर तो यहाँ तक हैं कि शर्माजी का कई लेखिकाओं से बहुत ही घनिष्ट सम्बन्ध हो गया हैं, लेकिन इस विषय में हम निश्चितपूर्वक कुछ नहीं कह सकते। हम तो इतना ही जानते हुँ कि जो देवियाँ एक बार यहाँ आ जाती, वह शर्माजी की अनन्य भक्त हो जातीं। बेचारा साहित्य की कुटिया का तपस्वी हैं। अपने विधुर जीवन की निराशाओं को अपने अन्तस्थल में संचित रखकर मूक वेदना में प्रेम-माधुर्य का रस-पान कर रहा हैं। सम्पादकजी के जीवन में जो कमी आ गयी थी, उनकी कुछ पूर्ति करना महिलाओं ने अपना धर्म-सा मान लिया। उनके भरे हुए भंडार में से अगर एक क्षुधित प्राणी को थोड़ी-सी मिठास दी जा सके, तो उससे भंडार की शोभा हैं। कोई देवी पार्सल से आचार भेज देती, कोई लड्डू। एक ने पूजा का ऊनी आसन अपने हाथों से बना कर भेज दिया। एक देवी महीने में एक बार आकर उनके कपड़ो की मरम्मत कर देती थी। दूसरी महीने मे दो-तीन बार आकर उन्हें अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर खिला जाती थी। अब वह किसी एक के न के सबके हो गये थे। स्त्रियों के अधिकारों को उनसे कड़ा रक्षृक शायद ही कोई मिले। पुरुषों से तो शर्माजी को हमेशा तीव्र आलोचना ही मिलती थी। श्रद्धामय सहानुभूति का आनन्द तो उन्हें स्त्रियों में ही पाया।
एक दिन सम्पादकजी को एक ऐसी कविता मिली, जिसमें लेखिका ने अपने उग्र प्रेम का रूप दिखाया था। अन्य सम्पादक उसे अश्लील कहते, लेकिन चोखेलाल इधर बहुत हो हो गये थे। कविता इतने सुन्दर अक्षरों में लिखी थी, लेखिका का नाम इतना मोहक था कि सम्पादकजी के सामने उसका एक कल्पना-चित्र-सा आकर खड़ा हो गया। भावुक प्रकृति, कोमल गीत, याचना भरे नेत्र, बिम्ब-अंधर, चंपई-रंग, अंग-अंग में चपलता भरी हुई, पहले गोंद की तरह शुष्क और कठोर, आर्द्र होते हुए ही चिपक जाने वाली। उन्होंने कविता दो-तीन बार पढ़ी और हर बार उनके मन में सनसनी दौड़ी-
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?
भाग सकोगे?
मै तुम्हारे गले में हाथ डाल दूँगी,
मै तुम्हारी कमर में करपाश कस दूँगी,
मैं तुम्हारी पाँव पकड़कर रोक लूँगी,
तब उस पर सर रख दूँगी।
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?
छोड़ सकोगे?
मैं तुम्हारे अधरों पर अपने कोपल चिपका दूँगी,
उस प्याले में जो मादक सुधा हैं,
उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?
– कामाक्षी
शर्माजी को हर बार इस कविता में एक नया रस मिलता था। उन्होंने उसी क्षण कामाक्षी देवी के नाम यह पत्र लिखा-
‘आपकी कविता पढ़कर, मैं कह नहीं सकता, मेरे चित्त की क्या दशा हुई। हृदय में एक ऐसी तृष्णा जाग उठी हैं, जो मुझे भस्म किये डालती हैं। नही जानता, इसे कैसे शान्त करूँ? बस यही आशा हैं कि इसको शीतल करनेवाली सुधा भी वहीं मिलेगी, जहाँ से यह तृष्णा मिली हैं। मन पतंग की भाँति जंजीर तुड़ाकर भाग जाना चाहता हैं। जिस हृदय से यह भाव निकले हैं, उसमें प्रेम का कितना अक्षय भंडार हैं, उस प्रेम का, जो अपने को समर्पित कर देने में ही आनन्द पाता हैं। मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि, ऐसी कविता मैने आज तक नही सुनी थी और इसने मेरे अन्दर जो तूफान उठा दिया हैं, वह मेरी विधुर शांति को छिन्न-भिन्न किये डालता हैं। आपने एक गरीब की फूस की झोपड़ी में आग दी हैं, लेकिन मन यह स्वीकार नही करता कि वह केवल विनोद-क्रीड़ा हैं। इन शब्दों में मुझे एक ऐसा हृदय छिपा हुआ ज्ञात होता हैं, जिसने प्रेम की वेदना सही हैं, जो लालसा की आग से तपा हैं। मैं इसे परम सौभाग्य समझूँगा, यदि आपके दर्शनों का सौभाग्य पर सका। यह कुटिया अनुराग की भेंट के लिए आपका स्वागत करने को तड़प रही हैं।’
तीसरे दिन ही उत्तर आ गया। कामाक्षी ने बड़े भावुकतापूर्ण शब्दों में कृतज्ञता प्रकट की थी और अपने आने की तिथि बतायी थी।
आज कामाक्षी का शुभागमन हैं।
शर्माजी ने प्रातःकाल हजामत बनवायी, साबुन और बेसन से स्नान किया, महीन खद्दर की धोती, कोकटी का ढीला चुन्नटदार कुरता, मलाई के रंग की रेशमी चादर-ठाठ से कार्यालय में बैठे, तो सारा दफ्तर चमक उठा। दफ्तर की भी खूब सफाई कर दी गयी थी। बरामदे में गमले रखवा दिये गये थे, मेज पर गुलदस्ते सजा दिये गये थे। गाड़ी नौ बजे आती हैं, अभी साढे आठ बजे हैं, साढ़े नौ तक यहाँ आ जायेगी। इस परेशानी में कोई काम नहीं हो रहा हैं। बार-बार घड़ी की ओर ताकते हैं, फिर आइने में अपनी सूरत देखकर कमरे में टहलने लगते हैं। मूँछो से दो-चार बाल पके हुए नजर आ रहे हैं, उन्हें उखाड़ फेंकने का इस समय कोई साधन नहीं हैं। कोई हरज नहीं। इससे रंग कुछ और ज्यादा ही जमेगा। प्रेम जब श्रद्धा के साथ आता हैं, तब वह ऐसा मेहमान हो जाता हैं, जो उपहार लेकर आया हो। युवकों के लिए प्रेम खर्चीली वस्तु हैं लेकिन महात्माओं या महीत्मापन के समीप पहुँचे हुए लोगों का प्रेम-उलटे और कुछ ले आता हैं। युवक जो रंग बहुमूल्य उपहारों से जमाता हैं, ये महात्मा या अर्द्ध- महात्मा लोग केवल आशीर्वाद से जमा लेते हैं।
ठीक साढ़े नौ बजे चपरासी ने आकर कार्ड दिया। लिखा था- कामाक्षी।
शर्माजी ने उसे देवीजी को लाने की अनुमति देकर एक बार फिर आइने में अपनी सूरत देखी और एक मोटी-सी पुस्तक पढ़ने लगे, मानो स्वाध्याय में तन्मय हो गये हैं। एक क्षण में देवीजी ने कमरे में कदम रखा। शर्माजी को उनके आने की खबर न हुई।
देवीजी डरते-डरते समीप आ गयी, तब शर्माजी ने चौंककर सिर उठाया मानो समाधि से जाग पड़े हो, और खड़े होकर देवीजी का स्वागत किया, मगर यह वह मूर्ति न थी, जिसकी उन्होंने कल्पना कर रखी थी!
एक काली, मोटी, अधेड़, चंचल औरत थी, जो शर्माजी को इस तरह घूर रही थी, मानो उसे पी जायेगी। शर्माजी का सारा उत्साह, सारा अनुराग ठंड़ा पड़ गया। वह सारी मन की मिठाइयाँ, जो वह महीनों से खा रहे थे, पेट में शूल की भाँति चुभने लगी। कुछ कहते- सुनते न बना। केवल इतना बोले- सम्पादकों का जीवन बिल्कुल पशुओं का जीवन हैं। सिर उठाने का समय नही मिलता। उस पर कार्याधिक्य से इधर मेरा स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा हैं। रात ही से सिर-दर्द से बैचैन हूँ। आपकी क्या खातिर करूँ?
कामाक्षी देवी के हाथ में एक बड़ा-सा पुलिंदा था। उसे मेज पर पटककर रूमाल से मुँह पोंछकर मृदु -स्वर में बोली- यह तो आपने बड़ी बुरी खबर सुनाई। मैं तो एक सहेली से मिलते जा रही थी। सोचा रास्ते में आपके दर्शन करती चलूँ, लेकिन जब आपका स्वास्थ्य ठीक नही हैं, तो कुछ दिन रहकर आपका स्वास्थ्य सुधारना पड़ेगा। मैं आपके सम्पादन-कार्य में भी आपकी मदद करूँगी। आपका स्वास्थ्य स्त्री-जाति के लिए बड़े महत्त्व की वस्तु हैं। आपको इस दशा में छोड़कर अब मैं जा ही नही सकती।
शर्माजी को ऐसा जान पड़ा, जैसे उनका रक्त-प्रवाह रुक गया हैं, नाड़ी टूटी जा रही हैं। उस चुडैल के साथ रहकर तो जीवन ही नरक हो जायेगा। चली है कविता करने, और कविता भी कैसी? अश्लीलता में डूबी हुई। अश्लीलता तो हैं ही। बिल्कुल सड़ी हुई, गंदी। एक सुन्दरी युवती की कलम से वह कविता काम-बाण थी। इस डायन की कलम से तो वह परनाले की कीचड़ हैं। मै कहता हूँ , इसे ऐसी कविता लिखने का अधिकार ही क्या हैं? वह क्यों ऐसी कविता लिखती हैं? क्यों नही किसी कोने में बैठकर राम-भजन करती? आप पूछती हैं- मुझे छोड़कर भाग सकोगे? मैं कहता हूँ, आपके पास कोई आयेगा ही क्यों? दूर से ही देखकर न लम्बा हो जायेगा। कविता क्या हैं, जिसका न सिर हैं, न पैर, मात्राओं तक का तो इसे ज्ञान नहीं हैं। और कविता करती हैं? कविता अगर इस काया में निवास कर सकती हैं, तो फिर गधा भी गा सकता हैं! ऊँट भी नाच सकता हैं! इस राँड़ को इतना भी नहीं मालूम कि कविता करने के लिए रूप और यौवन चाहिए, नजाकत चाहिए। भूतनी-सी तो आपकी सूरत हैं, रात को कोई देख ले, तो डर जाय और आप उत्तेजक कविता लिखती हैं! कोई कितना ही क्षुधातुर हो, तो क्या गोबर खा लेगा? और चुड़ैल इतना बड़ा पोथा लेती आयी हैं। इसमें में वही परनाले का गंदा कीचड़ होगा!
उस मोटी पुस्तक की ओर देखते हुए बोले- नहीं, नहीं, मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता। वह ऐसी कोई बात नही हैं! दो-चार दिन के विश्राम से ठीक हो जायेगा। आपकी सहेली आपकी प्रतीक्षा करती होंगी।
‘आप तो महाशयजी संकोच कर रहे हैं। मै दस-पाँच दिन क बाद भी चली जाऊँगी, तो कोई हानि न होगी।’
‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं हैं देवीजी।’
रसिक सम्पादक - मुंशी प्रेमचंद | Rasik Sampadak by Munshi Premchand |
‘आपके मुँह पर तो आपकी प्रशंसा करना खुशामद होगी, पर जो सज्जनता मैने आप में देखी, वह कहीं नही पायी। आप पहले महान महानुभाव हैं, जिन्होंने मेरी रचना का आदर किया, नही, मैं तो निराश हो चुकी थी। आपके प्रोत्साहन का यह शुभ फल हैं कि मैने इतनी कविताएँ रच डालीं। आप इनमें से जो चाहे रख ले। मैने एक ड्रामा भी लिखना शुरू कर दिया हैं। उसे भी शीघ्र ही आपकी सेवा में भेजूँगी । कहिए तो दो-चार कविताएँ सुनाऊँ? ऐसा अवसर मुझे कब मिलेगा? यह तो नही जानती कि कविताएँ कैसी है, पर आप सुनकर प्रसन्न होंगे। बिल्कुल उसी रंग की हैं।’
उसने अनुमति की प्रतिक्षा न की। तुरन्त पोथा खोलकर एक कविता सुनाने लगा। शर्माजी को ऐसा मालूम होने लगा, जैसे कोई भिगो-भिगोकर जूते मार रहा हैं। कई बार उन्हें मतली आ गयी, जैसे एक हजार गधे कानों के पास खड़े अपना स्वर अलाप रहे हो। कामाक्षी के स्वर में कोयल का माधुर्य था। पर शर्माजी को इस समय वह भी अप्रिय लग रहा था। सिर में सचमुच दर्द होने लगा। यह गधी टलेगी भी, यह यों ही बैठी सिर खाती रहेंगी? इसे मेरे चेहरे से भी मेरे मनोभावों का ज्ञान नहीं हो रहा हैं! उस पर आप कविता करने चली हैं? इस मुँह से महादेवी या सुभद्राकुमारी की कविताएँ भी घृणा ही उत्पन्न करेंगी।
आखिर रहा न गया। बोले- आपकी रचनाओं का क्या कहना, आप यह संग्रह यहीं छोड़ जायें। मैं अवकाश में पढूँगा। इस समय तो बहुत त-सा काम हैं।
कामाक्षी ने दयार्द्र होकर कहा- आप इतना दुर्बल स्वास्थ्य होने पर भी इतने व्यस्त रहते हैं? मुझे आप पर दया आती हैं।
‘आपकी कृपा हैं।’
‘आपको कल अवकाश रहेगा? जरा मैं ड्रामा सुनाना चाहती थी?’
‘खेद हैं, कल मुझे जरा प्रयाग जाना हैं।’
‘तो मैं भी आपके साथ चलूँ ? गाड़ी में सुनाती चलूँगी?’
‘कुछ निश्चय नही, किस गाड़ी से जाऊँ।’
‘आप लौटेंगे कब तक?’
‘यह भी निश्चय नहीं।’
और टेलिफोन पर जाकर बोले- हल्लो, न. 77
कामाक्षी ने आध घंटे तक उनका इन्तजार किया, मगर शर्माजी एक सज्जन से ऐसी महत्त्व की बातें कर रहे थे, जिसका अन्त ही होने न पाता था।
निराश होकर कामाक्षी देवी विदा हुई और शीध्र ही फिर आने का वादा कर गयी। शर्माजी नें आराम की साँस ली और उस पोथे को उठाकर रद्दी में डाल दिया और जले हुए दिल से आप-ही-आप कहा- ईश्वर न करे कि फिर तुम्हारे दर्शन हो। कितनी बेशर्म हैं, कुलटा कही की! आज इसने सारा मजा किरकिरा कर दिया।
फिर मैनेजर को बुलाकर कहा- कामाक्षी की कविता नही जायेंगी।
मैनेजर ने स्तम्भित होकर कहा- फार्म तो मशीन पर हैं!
‘कोई हरज़ नहीं। फार्म उतार लीजिए।’
‘बड़ी देर होगी।’
‘होने दीजिए। वह कविता नही जायेगी।’
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