कायर - मुंशी प्रेमचंद | Kayar by Munshi Premchand
मानसरोवर भाग - 1
मानसरोवर, मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से 8 खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है।
कायर, मानसरोवर भाग - 1 की कहानी है। यहाँ पढ़े: मानसरोवर भाग - 1 की अन्य कहानियाँ
युवक का नाम केशव था, युवती का नाम प्रेमा। दोंनो एक ही कॉलेज के और एक ही क्लास के विद्यार्थी थे। केशव नये विचारों का युवक था, जात-पाँत के बन्धनों का विरोधी। प्रेमा पुराने संस्कारों की कायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रथाओं में पूरा विश्वास रखनेवाली; लेकिन फिर भी दोनों में गाढ़ा प्रेम हो गया था और बात सारे कॉलेज में मशहुर थी। केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्य-कन्या प्रेमा से विवाह करके अपना जीवन सार्थक करना चाहता था। उसे अपने माता-पिता की परवाह न थी। कुल-मर्यादा का विचार भी उसे स्वाँग लगता था। उसके लिए सत्य कोई वस्तु थी तो प्रेमा, किन्तु प्रेमा के लिए माता-पिता और कुल-परिवार के आदेश के विरूद्ध एक कदम बढाना भी असम्भव था।
संध्या का समय है। विक्टोरिया पार्क के एक निर्जन स्थान में दोनों आमने-सामने हरियाली पर बैठे हुए है। सैर करने वाले एक-एक करके विदा हो गये किन्तु ये दोनों अभी वहीं बैठे हुए हैं। उनमें एक ऐसा प्रसंग छिड़ा हुआ है, जो किसी तरह समाप्त नहीं होता है।
केशव ने झुंझलाकर कहा – इसका यह अर्थ हैं कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं हैं।
प्रेमा ने शान्त करने की चेष्टा करके कहा – ‘तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो, केशव! लेकिन मैं इस विषय को माता-पिता के सामने कैसे छेड़ूँ, यह मेरी समझ में नही आता। वे लोग पुरानी रूढ़ियों के भक्त हैं। मेरी तरफ से कोई ऐसी बात सुनकर उनके मन में जो-जो शंकाएँ होंगी उनकी कल्पना कर सकते हो?’
केशव ने उग्र भाव से पूछा – ‘तो तुम भी उन्हीं पुरानी रूढ़ियों की गुलाम हो?’
प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मृदु स्नेह भरकर कहा – ‘नहीं, मैं उनकी गुलाम नहीं हूँ, लेकिन माता-पिता की इच्छा मेरे लिए और सब चीजों से अधिक मान्य हैं।’
‘तुम्हारा व्यक्तित्व कुछ नही हैं?’
‘ऐसा ही समझ लो।’
‘मैं तो समझता था कि वे ढकोसले मूर्खों के लिए ही है; लेकिन अब मालूम हुआ की तुम जैसी विदुषियाँ भी उनकी पूजा करती हैं। जब मैं तुम्हारे लिए संसार को छोड़ने के लिए तैयार हूँ, तो मैं तुमसे भी यही आशा करता हूँ’
प्रेमा ने मन में सोचा, मेरा अपनी देह पर क्या अधिकार है। जिन माता-पिता ने अपने रक्त से मेरी सृष्टि की है और अपने स्नेह से झे पाला हैं, उनकी मरज़ी के खिलाफ़ कोई काम करने का मुझे कोई हक़ नही।
उसने दीनता के साथ केशव से कहा – क्या प्रेम स्त्री और रुष के रूपप ही में रह सकता हैं, मैत्री के रूप में नहीं? मैं तो प्रेम को आत्मा का बन्धन समझती हूँ।
केशव ने कठोर भाव से कहा – ‘इन दार्शनिक विचारों से तुम मुझे पागल कर दोगी, प्रेमा! बस, इतना ही समझ लो कि मैं निराश होकर जिन्दा नही रह सकता। मैं प्रत्यक्षवादी हूँ और कल्पनाओं के संसार में अप्रत्यझ का आनन्द उठाना मेरे लिए असम्भव हैं।’
यह कहकर, उसने प्रेमा का हाथ पकड़कर, अपनी ओर खींचने की चेष्टा की। प्रेमा ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोली – नहीं केशव, मैं कह चुकी हूँ कि मैं स्वतंत्र नही हूँ । तुम मुझसे वह चीज़ न माँगो, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं हैं।
केशव ने अगर प्रेमा ने कठोर शब्द न कहे होते, तो भी उसे इतना दुःख न हुआ होता। एक क्षण वह मन मारे बैठा रहा, फिर उठकर निराशा भरे स्वर में बोला – ‘जैसी तुम्हारी इच्छा!’ और आहिस्ता-आहिस्ता कदम उठाता हुआ वहाँ से चला गया! प्रेमा अब भी वहीं बैठी आँसू बहाती रही।
रात को भोजन करके प्रेमा जब अपनी माँ के साथ लेटी, तो उसकी आँखों में नींद न थी। केशव ने उसे एक ऐसी बात कह दी थी, जो चंचल पानी में पड़ने वाली छाया की तरह उसके दिल पर छायी हुई थी। प्रतिक्षण उसका रूप बदलता था। वह उसे स्थिर न कर सकती थी। माता से इस विषय में कुछ कहे तो कैसे? लज्जा मुँह बंद कर देती थी। उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरा विवाह न हुआ, तो उस समय मेरा कर्तव्य क्या होगा! अगर केशव ने कुछ उद्दंडता कर डाली तो मेरे लिए संसार में फिर क्या रह जायेगा, लेकिन मेरा बस ही क्या हैं ? इन भाँति-भाँति के विचारों में एक बात जो उसके मन में निश्चित हुई, वह यह थी कि केशव के सिवा वह और किसी से विवाह न करेगी।
उसकी माता ने पूछा- ‘क्या तुझे अब तक नींद न आयी? मैने तुझसे कितनी बार कहा कि थोड़ा-बहुत घर का काम-काज किया कर; लेकिन तुझे किताबों से फुरसत नही मिलती। चार दिन में तू पराये घर जायेगी, कौन जाने, कैसा कैसा घर मिले! अगर कुछ काम करने की आदत न रही, तो कैसे कैसे निबाह होगा?’
प्रेमा ने भोलेपन से कहा – ‘मैं पराये घर जाऊँगी ही क्यों?’
माता ने मुस्कराकर कहा – ‘लड़कियों के लिए यही तो सबसे बड़ी विपत्ति है, बेटी। माँ-बाप की गोद में पलकर ज्यों ही सयानी हुई, दुसरों की हो जाती है। अगर अच्छा प्राणी मिल गया, तो जीवन आराम से कट गया, नहीं रो-रोकर दिन काटने पड़ते है। सब कुछ भाग्य मे अधीन है। अपनी बिरादरी नें तो मुझे कोई घर नहीं भाता। कहीं लड़कियों का आदर नही लेकिन करना तो बिरादरी में ही पड़ेगा। न जाने, यह जात-पाँत का बंधन कब टूटेगा?’
प्रेमा डरते-डरते बोली- ‘कहीं-कहीं तो बिरादरी के बाहर भी विवाह होने लगे है।’
उसने कहने को कह दिया; लेकिन उसका हृदय काँप रहा था कि माताजी कुछ भाँप न जायँ।
माता ने विस्मय के साथ पुछा-‘क्या हिन्दूअों में ऐसा हुआ है?’
फिर उसने अपने आप-ही-आप ही उस प्रश्न का जवाब भी दिया- अगर दो-चार जगह ऐसा भी हो गया, तो उससे क्या होता है?
प्रेमा ने इसका कुछ जवाब न दिया। भय हुआ कि माता कहीं उसका आशय न समझ जायँ। उसका भविष्य एक अँधेरी खाई की तरह उसके सामने मुँह खोले खड़ा था, मानो उसे निगल जायेगा।
उसे न जाने कब नींद आ गयी।
कायर - मुंशी प्रेमचंद | Kayar by Munshi Premchand |
प्रातःकाल प्रेमा सोकर उठी, तो उसके मन में एक विचित्र साहस का उदय हो गया था। सभी महत्त्वपूर्ण फैसले हम आकस्मिक रूप से कर लिया करते है, मानो कोई देवी शक्ति हमें उनकी ओर खींच ले जाती हैं; वही हालत प्रेमा की थी। कल तक वह माता-पिता के निर्णय को मान्य समझती थी; पर संकट को सामने देखकर उसमें उस वायु की हिम्मत पैदा हो गयी थी, जिसके सामने कोई पर्वत आ गया हो। वहीं मद वायु प्रबल वेग से पर्वत के मस्तक पर चढ़ जाती है और उसे कुचलती हुई दूसरी तरफ जा पहुँचती है। प्रेमा मन में सोच रही थी- माना, यह देह माता-पिता की हैं किन्तु आत्मा को जो कुछ भुगतनी पड़ेगा, वह इसी देह से तो भुगतना पड़ेगा। अब वह उस विषय में संकोच करना अनुचित ही नही, घातक समझ रही थी। अपने जीवन को क्यों एक झूठे सम्मान पर बलिदान करें? उसने सोचा, विवाह का आधार अगर प्रेम न हो, तो वह तो देह का विक्रय हैं। आत्मसमर्पण क्या बिना प्रेम के भी हो सकता हैं? इस कल्पना ही से कि न जाने किस अपरिचित युवक से उसका ब्याह हो जायेगा, उसका हृदय विद्रोह कर उठा।
वह अभी नाश्ता करके कुछ पढ़ने जा रही थी कि उसके पिता ने प्यार से पुकारा – मैं कल तुम्हारे प्रिंसिपल के पास गया था, वे तुम्हारी बड़ी तारीफ़ कर रहे थे।
प्रेमा ने सरल भाव से कहा – आप तो यों ही कहा करते हैं।
‘नहीं, सच।’
यह कहते हुए उन्होंने अपनी मेज की दराज खोली और मखमली चौखटों में जड़ी हुई एक तस्वीर निकालकर उसे दिखाते हुए बोले – यह लड़का आयी. सी. एस. के इम्तहान में प्रथम आया हैं। इसका नाम तो तुमने सुना होगा?
बूढ़े पिता ने ऐसी भूमिका बाँधी थी कि प्रेमा उनका आशय समझ न सके; लेकिन प्रेमा भाँप गयी। उसका मन तीर की भाँति लक्षय पर जा पहुँचा। उसने बिना तस्वीर की ओर देखे ही कहा- नहीं, मैने तो उसका नाम नहीं सुना।
पिता ने बनाबटी आश्चर्य से कहा- क्या? तुमने उसका नाम ही नहीं सुना? आज के दैनिक-पत्र में उसका चित्र और जीवन- वृत्तान्त छपा हैं।
प्रेमा ने रुखाई से जवाब दिया- होगा, मगर मैं तो इस परीक्षा का कोई महत्त्व नही समझती। मैं तो समझती हूँ, जो लोग इस परीक्षा में बैठते हैं, वे परले सिरे के स्वार्थी होते हैं। आखिर उनका उद्देश्य इसके सिवा और क्या होता हैं कि अपने गरीब, निर्धन, दलित भाईयों पर शासन करें और खूब धन-संचय करें। यह तो जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं हैं।
इस आपत्ति में जलन थी, अन्याय था, निर्दयता थी। पिताजी ने समझा था, प्रेमा वह बखान सुनकर ट्टू हो जायेगी। यह जबान सुनकर तीखे स्वर में बोले- त तो ऐसी बात कर रही हैं, जैसे तेरे लिए धन और अधिकार का कोई मूल्य ही नहीं।
प्रेमा ने ढिठाई से कहा- हाँ, मैं तो इसका मूल्य नहीं समझती; मैं तो आदमी में त्याग देखती हूँ। मैं ऐसे युवकों को जानती हूँ, जिन्हें यह पर जबर्दस्ती भी दिया जाय, तो स्वीकार न करेंगे।
पिता ने उपहास के ढंग से कहा- यह तो आज मैंने नयी बात सुनी। मै तो देखता हूँ कि छोटी-छोटी नौकरियों के लिए लोग मारे-मारे फिरते है। मै जरा उस लड़के की सूरत देखना चाहता हूँ, जिसमें इतना त्याग हो। मैं तो उसकी पूजा करूँगा।
शायद किसी दूसरे अवसर पर यो शब्द सुनकर प्रेमा लज्जा से सिर झुका लेती; पर इस समय की दशा उस सिपाही की-सी थी, जिसके पीछे गहरी खाई हो। आगे बढ़ने के सिवा इसके लिए और कोई मार्ग न था। अपने आवेश को संयम से दबाती हुई, आँखों में विद्रोह भरे, वह अपने कमरे में गयी और केशव के कई चित्रों में से वह चित्र चुनकर लायी, जो उसकी निगाह में सबसे खराब था और पिता के सामने रख दिया। बूढ़े पिताजी ने चित्र को उपेक्षा के भाव से देखना चाहा, लेकिन पहली दृष्टि में उसने उन्हें आकर्षित कर लिया। ऊँचा कद था औक दुर्बल होने पर भी उसका गठन, स्वास्थ्य और संयम का परिचय दे रहा था। मुख पर प्रतिभा का तेज न था; पर विचारशीलता कुछ ऐसा प्रतिबिम्ब था, जो उसके प्रति मन में विश्वास पैदा करता था।
उन्होंने चित्र को देखते हुए पूछा- यह किसका चित्र हैं?
प्रेमा ने संकोच से सिर झुकाकर कहा- यह मेरे ही क्लास में पढ़ते है।
‘अपनी ही बिरादरी का हैं?’
प्रेमा का मुखमुद्रा धूमिल हो गयी। इसी प्रश्न के उत्तर पर उसकी किस्मत का फैसला हो जायेगा। उसके मन में पछतावा हुआ कि व्यर्थ में इस चित्र को यहाँ लायी। उसमें एक क्षण के लिए जो दृढता आयी थी, वह इस पैने प्रश्न के सामने कातर हो उठी। दबी ई आवाज में बोली- ‘जी नहीं, वह ब्राह्मण हैं।’ और यह कहने क साथ ही वह क्षुब्ध होकर कमरे से बाहर निकल गयी; मानो यहाँ की वायु में उसका गला घुटा जा रहा हो और दीवार की आड़ में खड़ी होकर रोने लगी।
लालाजी को तो पहले ऐसा क्रोध आया कि प्रेमा के बुलाकर साफ-साफ कह दे कि यह असम्भव हैं। वे उसी गुस्से में दरवाजे तक आये; लेकिन प्रेमा को रोते देखकर नम्र हो गये। इस युवक के प्रति प्रेमा के मन में क्या भाव थे? यह उनसे छिपा न रहा। वे स्त्री-शिक्षा के पूरे समर्थक थे; लेकिन इसके साथ ही कुल-मर्यादा का रक्षा भी करना चाहते थे। अपनी ही जाति के सुयोग्य वर के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर सकते थे, लेकिन उस क्षेत्र के बाहर कुलीन-से- कुलीन और योग्य-से- योग्य वर की कल्पना भी उनके लिए असह्य थी। इससे बड़ा अपमान वे सोच ही न सकते थे।
उन्होंने कठोर स्वर में कहा- आज से कॉलेज जाना बन्द कर दो। अगर शिक्षा कुल-मर्यादा को डूबाना ही सिखाती है, तो वह कु-शिक्षा हैं।
प्रेमा ने कातर कंठ से कहा- परीक्षा तो समीप आ गयी हैं।
लालाजी ने दृढता से कहा- आने दो।
और फिर अपने कमरे में जाकर विचारों में डूब गये।
छः महीने गुजर गये।
लालाजी ने घर में आकर पत्नी को एकांत में बुलाया और बोले- जहाँ तक मुझे मालूम हुआ हैं, केशव बहुत ही सुशील और प्रतिभाशाली युवक है। मै तो समझता हुँ, प्रेमा इस शोक में घुल घुलकर प्राण दे देगी। तुमने भी समझया, मैने भी समझाया, दूसरों ने भी समझाया; पर उस पर कोई असर नही नहीं होता। ऐसी दशा में हमारे लिए क्या उपाय हैं?
उनकी पत्नी ने चिंतित भाव से कहा- कर तो दोगे; लेकिन रहोगे कहाँ? न-जाने कहाँ से यह कुलच्छनी मेरी कोख में आयी?
लालाजी ने भँवे सिकोड़कर तिरस्कार के साथ कहा- यह तो हजार दफा सुन चुका ; लेकिन कुल -मर्यादा के नाम को कहाँ तक रोयें। चिड़िया का पर खोलकर यह आशा करना, कि तुम्हारे आँगन में ही फुदकती रहेगी, भ्रम हैं। मैने इस प्रश्न पर ठंड़े दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा कि हमें इस आपद्धर्म को स्वीकार कर लेना ही चाहिए। कुल-मर्यादा के नाम पर मै प्रेमा की हत्या नही कर सकता। दुनिया हँसती हो, हँसे; मगर वह जमाना बहुत जल्द आनेवाला हैं, जब ये सभी बंधन टूट जायेंगे। आज भी सैकड़ो विवाह जात-पाँत के बंधनों को तोड़कर हो चुके हैं। अगर विवाह का उद्देश्य स्त्री और पुरुष का सुखमय जीवन है, तो हम प्रेमा की उपेक्षा नही कर सकते।
वृद्धा ने क्षुब्ध होकर कहा- जब तुम्हारी यही इच्छा है, तो मुझसे क्या पूछते हो? लेकिन मैं कहे देती हूँ कि मैं इस विवाह के नजदीक न जाऊँगी, न कभी इस छोकरी का मुँह देखूँगी । समझ लूँगी, जैसे और सब लड़के मर गये, वैसे यह भी मर गयी।
‘तो फिर आखिर तुम क्या करने को कहती हो?’
‘क्यों नही उस लड़के से विवाह कर देते, उसमे बुराई क्या हैं? दो साल में सिविल सर्विस पास करके आ जायेगा। केशव के पास क्या रखा हैं? बहुत होगा, किसी दफ्तर में क्लर्क हो जायेगा।’
‘और अगर प्रेमा प्राण-हत्या कर ले, तो?’
‘तो कर ले, तुम तो उसे और शह देते हो। जब उसे हमारी परवाह नहीं, तो हम उसके लिए अपने नाम को क्यों कलंकित करें? प्राणहत्या करना कोई खेल नही हैं। यह सब धमकी हैं। मन घोड़ा हैं, जब तक उसे लगान न दो, तो पुट्ठे पर हाथ न रखने देगा। जब उसके मन का यह हाल है, तो कौन कहे, वह केशव के साथ ही जिन्दगी-भर निबाह करेगी। जिस तरह आज उससे प्रेम हैं, उसी तरह कल दूसरे से हो सकता हैं। तो क्या पत्ते पर अपना मांस बिकवाना चाहते हो?’
लालाजी ने स्त्री को प्रश्नसूचक दृष्टि से देखकर कहा- और अगर वह कल खुद जाकर केशव से विवाह कर ले, तो तुम क्या कर लोगी? फिर तुम्हारी कितनी इज्जत रह जायेगी! चाहे वह संकोचवश या हम लोगो के लिहाज़ से यो ही बैठी रहे, पर यदि जिद पर कमर बाँध ले, तो हम-तुम कुछ नही कर सकते।
इस समस्या का ऐसा भीषण अंत भी हो सकती है, यह इस वृद्धा के ध्यान में भी न आया था। यह प्रश्न बम के गोले की तरह उसके मस्तिष्क पर गिरा। एक क्षण तक वह अवाक् बैठी रह गयी, मानो इस आघात ने उसकी बुद्धि की धज्जियाँ उड़ा दी हो। फिर पराभूत होकर बोली- तुम्हें अनोखी ही कल्पनाएँ सूझती हैं! मैने तो आज तक कभी भी नहीं सुना कि किसी कुलीन कन्या नें अपनी इच्छा से विवाह किया हैं।
‘तुमने न सुना हो; लेकिन मैने सुना है, और देखा है कि ऐसा होना बहुत सम्भव हैं।’
‘जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन तुम मुझे जीती न देखोगे।’
‘मै यह नही कहता कि ऐसा होगा ही; लेकिन होना सम्भव है।’
‘तो जब ऐसा होना है, तो इससे तो यही अच्छा हैं कि हमीं इसका प्रबन्ध करें। जब नाक ही कट रही हैं, तो तेज छुरी से क्यो न कटे। कल केशव को बुलाकर देखो, क्या कहता हैं।’
केशव के पिता सरकारी पेंशनर थे, मिजाज के चिड़चिड़े और कृपण। धर्म के आडम्बरों में ही उनके चित्त को शान्ति मिलती थी। कल्पनाशक्ति का अभाव था। किसी के मनोभावों का सम्मान न कर सकते थे। वे अब भी उस संसार में रहते थे, जिसमें उन्होंने अपने बचपन और जवानी के दिन काटे थे। नवयुग की बढ़ती लहर को वे सर्वनाश कहते थे और कम-से-कम अपने घर को दोनों हाथो और पैरों का जोर लगाकर उससे बचाये रखना चाहते थे; इसलिए जब एक दिन प्रेमा के पिता उनके पास पहुँचे और केशव से प्रेमा के विवाह का प्रस्ताव किया, तो बूढ़े पंड़ितजी अपने आपे में न रह सके। धुँधली आँखें फाड़कर बोले- आप भंग तो नही खा गये हैं? इस तरह का सम्बन्ध और चाहे जो कुछ हो, विवाह नहीं हैं। मालूम होता हैं, आपको भी नये जमाने की हवा लग गयी।
बूढ़े बाबूजी ने नम्रता से कहा- मै खुद ऐसा सम्बन्ध पसन्द नही करता। इस विषय में मेरे विचार वहीं है, जो आपके; पर बात ऐसी आ पड़ी हैं कि मुझे विवश होकर आपकी सेवा में आना पड़ा। आजकल के लड़के और लड़कियाँ कितने स्वेच्छाचारी हो गये हैं, यह तो आप जानते ही हैं। हम बूढ़े लोगों के लिए अब अपने सिद्धांतों की रक्षा करना कठिन हो गया हैं। मुझे भय हैं कि कहीं ये दोनों निराश होकर अपनी जान पर न खेल जायँ।
बूढ़े पंड़ितजी जमीन पर पाँव पटकते हुए गरज उठे- आप क्या कहते हैं, साहब! आपको शर्म नही आती? हम ब्राह्मण हैं ब्राह्मणों में भी कुलीन। ब्राह्मण कितने ही पतित हो गये हों, इतने मर्यादाशून्य नहीं हुए हैं कि बनिए-बक्कालों की लड़की से विवाह करते फिरें। जिस दिन कुलीन ब्राह्मणों में लड़कियाँ न रहेंगी, उस दिन यह समस्या उपस्थित हो सकती हैं। मैन कहता हूँ , आपको मुझसे यह बात कहने का साहस कैसे हुआ?
बूढ़े बाबूजी जितना ही दबते थे, उतना ही पंड़ितजी बिगड़ते थे। यहाँ तक कि लालाजी अपना अपमान ज्यादा न सह सकें और अपनी तकदीर को कोसते हुए चले गये।
उसी वक्त केशव कॉलेज से आया। पंड़ितजी ने तुरन्त उसे बुलाकर कठोर कंठ से कहा- मैं सुना हैं, तुमने किसी बनिए की लड़की से अपना विवाह करने का निश्चय कर लिया हैं। यह खबर कहाँ तक सही हैं?
केशव ने अनजान बनकर पूछा- आपसे किसने कहा?
‘किसी ने कहा। मैं पूछता, यह बात ठीक है, या नहीं? अगर ठीक हैं, और तुमने हमारी मर्यादा को डुबाना निश्चय कर लिया हैं, तो तुम्हारे लिए हमारे घर में कोई स्थान नहीं हैं। तुम्हें मेरी कमाई का एक धेला भी नहीं मिलेगा। मेरे पास जो कुछ है, वह मेरी कमाई हैं। मुझे अख्तियार हैं कि मै उसे जिसे चाहूँ दे दूँ। तुम यह अनीति करके मेरे घर में कदम नहीं रख सकते।’
केशव पिता के स्वभाव से परिचित था। प्रेमा से उसे प्रेम था, वह गुप्त रूप से प्रेमा से विवाह कर लेना चाहता था। बाप तो हमेशा न रहेंगे। माता के स्नेह पर उसे विश्वास था। उस प्रेम की तरंग में वह सारे कष्टों को झेलने के लिए तैयार मालूम होता था; लेकिन जैसे कोई कायर सिपाही बन्दूक के सामने जाकर हिम्मत खो बैठता हैं और कदम पीछे हटा लेता हैं, वही दशा केशव की हुई। वह साधारण युवकों की तरह सिद्धांतों के लिए बड़े-बड़े तर्क कर सकता था, जबान से उनमें अपनी भक्ति की दोहाई दे सकता था; लेकिन यातनाएँ झेलने की सामर्थ्य उसनें न थी। अगर वह अपनी जिद्द पर अड़ा और पिता ने भी अपनी टेक रखी, तो उसका कहाँ ठिकाना लगेगा? उसका सारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा।
उसने दबी जबान से कहा- जिसनें आपसे यह कहा हैं, बिल्कुल झूठ कहा हैं।
पंड़ितजी ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा- तो यह खबर बिल्कुल गलत हैं?
‘ जी हाँ, बिल्कुल गलत।’
‘तो तुम आज ही इसी वक्त उस बनिए को खत लिख दो और याद रखो कि अगर इस तरह की चर्चा फिर कभी उठी, तो मै तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु होउँगा। बस, जाओ।’
केशव और कुछ न कह सका। वह वहाँ से चला, तो ऐसा मालूम होता था कि पैरों मे दम नहीं हैं।
दुसरे दिन प्रेमा ने केशव के नाम यह पत्र लिखाः-
‘प्रिय केशव!
तुम्हारे पूज्य पिताजी ने लालाजी के साथ जो अशिष्ट और अपमानजनक व्यवहार किया हैं, उसका हाल सुनकर मेरे मन में बड़ी शंका उत्पन्न हो रही हैं। शायद उन्होंने तुम्हें भी डाँट-फटकार बतायी होगी। ऐसी दशा में मैं तुम्हारा निश्चय सुनने के लिए विकल हो रही हूँ हूँ। मैं तुम्हारे साथ हर तरह का कष्ट झेलने को तैयार हूँ । मुझे तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति का मोह नही हैं; मैं तो केवल तुम्हारा तुम्हारा प्रेम चाहती हूँ और उसी में प्रसन्न हूँ । आज शाम को यहीं आकर भोजन करो। दादा और माँ, दोनों तुमसे मिलने के लिए बहुत इच्छुक हैं। मैं वह स्वपन देखने में मग्न हूँ , जब हम दोनो उस सूत्र में बँध जायेंगे, जो टूटना नहीं जानता; तो बड़ी-से-बड़ी आपत्ति में भी अटूट रहता हूँ।’
तुम्हारी,
प्रेमा।
संध्या हो गयी और इस पत्र का कोई जबाव न आया। उसकी माता बार-बार पूछती थी- केशव आये नही? बूढ़े लालाजी भी द्वार पर आँखें लगाये बैठे थे। यहाँ तक की रात के नौ बज गये; पर न तो केशव ही आये, न उनका पत्र।
प्रेमा के मन में भाँति-भाँति के संकल्प-विकल्प उठ रहे थे; कदाचित उन्हें पत्र लिखने का अवकाश न मिला होगा, या आज आने की फुरसत न मिली होगी, कल अवश्य आ जायेंगे। केशव ने पहले उसके पास जो प्रेम-पत्र लिखे थे, उन सबको उसने फिर से पढ़ा। उनके एक-एक शब्द से कितना अनुराग टपक रहा था, उनमें कितना कम्पन था, कितनी विकलता, कितनी तीव्र आकाँक्षा! फिर उसे केशव के वे वाक्य याद आते, जो उसने सैकड़ो ही बार कहे थे। कितनी ही बार वह उसके सामने रोया था। इतने प्रमाणों के होते हुए निराशा के लिए कहाँ स्थान था; मगर फिर भी सारी रात उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहा।
प्रातःकाल केशव का जवाब आया। प्रेमा ने काँपते हुए हाथों से पत्र लेकर पढ़ा। पत्र हाथ से गिर गया। ऐसा जान पड़ा, मानो उसके देह का रक्त स्थिर हो गया हो, लिखा थाः
‘मैं बड़े संकट में हूँ कि तुम्हें क्या जवाब दूँ! मैं इधर इस समस्या पर खूब ठंडे दिल से विचार किया हैं और इस नतीजे पर पहूँचा हूँ कि वर्तमान दशाओं में मेरे लिए पिता की आज्ञा की उपेक्षा करना दु:सह हैं। मुझे कायर न समझना। मैं स्वार्थी भी नहीं हूँ; लेकिन मेरे सामने जो बाधाएँ हैं, उन पर विजय पाने की शक्ति मुझमें नही हैं। पुरानी बातों को भूल जाओ। उस समय मैंने इन बाधाओं की कल्पना न की थी।!’
प्रेमा ने एक लम्बी, गहरी, जलती हुई साँस खींची और उस खत को फाँड़कर फैंक दिया। उसकी आँखों से अश्रुधार बहने लगी। जिस केशव को उसनें अपने अतःकरँ से वर मान लिया था, वह इतना निष्ठुर हो जायेगा, इसकी उसको रत्ती-भर भी आशा न थी। ऐसा मालूम पड़ा, मानो अब तक वह कोई सुनहरा सपना देख रही थी; पर आँखें खुलने पर सब कुछ अदृश्य हो गया। जीवन में आशा ही लुप्त हो गयी, तो अब अंधकार के सिवा और क्या रहा! अपने हृदय की सारी सम्पत्ति लगाकर उसने एक नाव लदवायी थी, वह नाव जलमग्न हो गयी। अब दूसरी नाव कहाँ से लदवाये; अगर वह नाव बी हैं, तो उसके साथ ही वह भी डूब जायेगी।
माता ने पूछा- क्या केशव का पत्र हैं?
प्रेमा ने भूमि की ओर ताकते हुए कहा- हाँ, उनकी तबीयत अच्छी नहीं हैं। इसके सिवा वह और क्या कहें? केशव की निष्ठुरता और बेवफाई का समाचार कहकर लज्जित होने का साहस उसनें न था।
दिन भर वह घर के काम-धंधों मे लगी रही, मानो उसे कोई चिन्ता ही नही हैं। रात को उसने सबको भोजन कराया, खुद भी भोजन किया और बड़ी देक तक हारमोनियम पर गाती रही।
मगर सवेरा हुआ, तो उसके कमरें में उसकी लाश पड़ी हुई थी। प्रभात की सुनहरी किरणें उसके पीले मुख को जीवन की आभा प्रदान कर रहीं थी!